ज़िन्दगी –03

01-12-2025

ज़िन्दगी –03

मुकेश कुमार ऋषि वर्मा (अंक: 289, दिसंबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

बहुत तन्हा-तन्हा रही ज़िन्दगी, 
जैसी भी हो गुज़रती रही ज़िन्दगी। 
 
कभी गिरी तो कभी उठी ज़िन्दगी, 
बड़ा मज़ा आया तुझमें ए ज़िन्दगी। 
 
वक़्त ने ठुकराई हौसलों ने चलाई ज़िन्दगी, 
कैसे-कैसे क़तरा-क़तरा हुई ज़िन्दगी। 
 
चोट पर चोट खाती रही ज़िन्दगी, 
किन्तु क्षण-क्षण निखरती रही ज़िन्दगी। 
 
किस-किस से कहें सितम ढा गई ज़िन्दगी, 
मेरा सर्वस्व मुझसे छीन ले गई ज़िन्दगी। 
 
नूर चेहरे पर सजाती रही ज़िन्दगी, 
मेरी अनमोल काया खाती रही ज़िन्दगी। 
 
हमेशा झूठे-सच्चे ख़्वाब दिखाती रही ज़िन्दगी, 
जैसी भी थी गुलशन मेरा महकाती रही ज़िन्दगी। 
 
सहकर पीर जुदाई की जीती रही ज़िन्दगी, 
ग़म के साये में भी मुस्कुराती रही ज़िन्दगी। 
 
जब तक समझ में तू आई ज़िन्दगी, 
मुट्ठी से रेत की तरह निकल गई ज़िन्दगी। 

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