सुनीति कुमार चटर्जी: आधुनिक भारतीय भाषाविज्ञान के अप्रतिम शिल्पी

01-12-2025

सुनीति कुमार चटर्जी: आधुनिक भारतीय भाषाविज्ञान के अप्रतिम शिल्पी

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 289, दिसंबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

भारतीय भाषाविज्ञान के इतिहास में जिन नामों को उनके शोध-वैभव, व्यापक दृष्टि और विश्वस्तरीय मान्यता के आधार पर आदरपूर्वक स्मरण किया जाता है, उनमें प्रोफ़ेसर सुनीति कुमार चटर्जी का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 20वीं शताब्दी में भारतीय भाषा अध्ययन को आधुनिक पद्धति, तुलनात्मक व्याकरणिक दृष्टि और ऐतिहासिक विश्लेषण की वैज्ञानिकता प्रदान करने वाले विद्वानों में वे अग्रणी थे। वे भाषाविज्ञानी, साहित्येतिहासकार, अनुवादक, सांस्कृतिक चिन्तक और अंतरराष्ट्रीय विद्वान—सभी रूपों में समान रूप से प्रतिष्ठित रहे। उनकी विद्वत्ता का विस्तार प्राचीन भारतीय भाषाओं से लेकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं तक, और संस्कृत-पाली-प्राकृत से लेकर बांग्ला, हिंदी, असमिया, उड़िया व अन्य भाषाओं तक फैला हुआ था। 

प्रारम्भिक जीवन और शिक्षा:

सुनीति कुमार चटर्जी का जन्म 26 नवम्बर 1890 को बंगाल के एक शिक्षित, सांस्कृतिक एवं उदार पारिवारिक वातावरण में हुआ। आरम्भ से ही उन्हें भाषाओं में गहरी रुचि थी। अंग्रेज़ी, बांग्ला और संस्कृत उनकी बौद्धिक परवरिश के तीन प्रमुख स्तम्भ रहे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा कलकत्ता में हुई। इसके बाद उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में उच्च शिक्षा प्राप्त की और फिर उच्चतर शोध के लिए यूरोप गए। यूरोप प्रवास के दौरान उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय, पेरिस विश्वविद्यालय और जर्मनी में हैम्बर्ग विश्वविद्यालय में भाषाविज्ञान और तुलनात्मक व्याकरण का अध्ययन किया। यूरोप की वैचारिक और अकादमिक स्वतंत्रता तथा भाषाई अनुसंधान की पद्धतियों ने उनके भीतर एक नए प्रकार का वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित किया जिसने आगे चलकर भारतीय भाषाविज्ञान की दिशा बदल दी। 

वे यूरोप से लौटने पर न सिर्फ़ एक विद्वान बल्कि एक सुदृढ़ पद्धतिशास्त्री के रूप में स्थापित हुए। 

अध्यापन और अकादमिक जीवन:

भारत लौटने के बाद सुनीति कुमार चटर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के भाषाशास्त्र विभाग में अध्यापन का कार्य सँभाला। बाद में वे इसी विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी बने। उनके प्रशासनिक कार्यकाल को भारतीय विश्वविद्यालय व्यवस्था में एक सुदृढ़ सांस्कृतिक दिशा देने वाला काल माना जाता है। वे न केवल एक विद्वान अध्यापक थे बल्कि एक प्रेरक विद्वान भी, जिन्होंने कई पीढ़ियों को भाषाविज्ञान की ओर आकृष्ट किया। उन्होंने भारत के बाहर भी—एशिया, यूरोप, अमेरिका—कई विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दिए। उनकी विद्वत्ता का सम्मान करते हुए उन्हें अनेक देशों ने आमंत्रित किया और वे भाषाविश्लेषण के वैश्विक मंच पर भारत का प्रतिनिधित्व करते रहे। 

प्रमुख ग्रंथ और शोध:

सुनीति कुमार चटर्जी का लेखन-वैभव अत्यंत विस्तृत है। वे भारतीय आर्य भाषाओं, विशेषतः बांग्ला, असमिया, हिंदी, उड़िया और मराठी इत्यादि पर निरंतर शोध करते रहे। उनके कुछ मुख्य ग्रंथ इस प्रकार हैं—

(क) इंडो-आर्यन एंड हिंदी-

इस ग्रंथ में उन्होंने हिंदी भाषा के ऐतिहासिक विकास, अपभ्रंश–प्राकृत परंपरा और उत्तर भारत में बोलियों के आधार पर हिंदी के गठन का अत्यंत महत्त्वपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया। हिंदी भाषाविज्ञान के इतिहास में यह पुस्तक एक मील का पत्थर मानी जाती है। 

(ख) द ओरिजिन एंड डेवलपमेंट ऑफ़ द बंगाली लैंग्वेज-

बांग्ला भाषा के उत्पत्ति-विकास पर यह ग्रंथ आज भी सर्वोत्तम शोध माना जाता है। उन्होंने पाली-संस्कृत-प्राकृत से बांग्ला की ध्वन्यात्मक और रूपात्मक संरचनाओं का विस्तार से अनुसंधान किया। 

(ग) इंडियन लिंग्विस्टिक्स और अन्य भाषावैज्ञानिक लेख-

उन्होंने भारतीय भाषाओं के तुलनात्मक इतिहास पर अनेक शोधात्मक निबंध लिखे, जिन्हें आज भी भाषाशास्त्र के विद्यार्थियों तथा शोधार्थियों के लिए आधारग्रंथ माना जाता है। 

(घ) संस्कृति और सभ्यता पर लेखन-

भाषा के साथ-साथ वे संस्कृति, इतिहास और साहित्य के भी गहन अध्येता थे। उनके निबंध भारतीय सांस्कृतिक विविधता और एकता की व्याख्या करते हैं। 

भाषाविज्ञान में योगदान:

सुनीति कुमार चटर्जी का सबसे बड़ा योगदान भारतीय भाषाविज्ञान के आधुनिकीकरण में है। उन्होंने भाषा-विकास के वैज्ञानिक, तुलनात्मक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण को भारत में प्रतिष्ठित करने का कार्य किया। 

(क) तुलनात्मक भाषाविज्ञान की पद्धति-

उन्होंने यूरोप की तुलनात्मक व्याकरण पद्धति को भारतीय भाषाओं पर लागू किया। इससे भारतीय भाषा-इतिहास का वैज्ञानिक पुनर्निर्माण सम्भव हुआ। 

(ख) ध्वनि-विज्ञान और ध्वनि-परिवर्तन-

उन्होंने ध्वनि परिवर्तन के नियमों को भारतीय भाषाओं की ध्वन्यात्मक संरचना में गहराई से परखा। पाली-प्राकृत से लेकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं तक ध्वनियों का क्रमबद्ध विकास समझाने में उनका योगदान अत्यंत उल्लेखनीय है। 

(ग) भाषा-सम्पर्क का सिद्धांत-

भारत एक बहुभाषी देश है, जहाँ भाषाओं का परस्पर सम्पर्क और प्रभाव स्वाभाविक है। चटर्जी ने भाषा-सम्पर्क की इसी स्थिति को वैज्ञानिक रूप में समझाया। 
उन्होंने दिखाया कि—

बांग्ला, असमिया और उड़िया पर द्रविड़ भाषाओं का प्रभाव है, 

हिंदी और अन्य उत्तरी भाषाओं पर फारसी-अरबी का प्रभाव, 

पूर्वोत्तर की भाषाओं में तिब्बती-बर्मी प्रभाव। 

इन संबंधों की वैज्ञानिक पहचान भारतीय भाषाविज्ञान में उनकी मौलिक देन है। 

(घ) अपभ्रंश और प्राकृत अध्ययन-

उन्होंने अपभ्रंश को भारतीय भाषा-विकास की महत्त्वपूर्ण कड़ी मानते हुए उसकी पुनर्स्थापना की। उनके मतानुसार आधुनिक भारतीय भाषाओं के ध्वनि-रूप-वाक्य संरचनाओं की जड़ें अपभ्रंश में गहराई से समाई हुई हैं। 

भारतीय आर्य भाषाओं पर उनका दृष्टिकोण:

भारत में आर्य भाषाओं—संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं—का विकास एक निरंतर प्रवाह है। 

चटर्जी ने इस प्रवाह को दो तरह से देखा—

(क) ऐतिहासिक विकास का क्रम-

संस्कृत → प्राकृत → अपभ्रंश → आधुनिक भाषाएँ

उन्होंने माना कि यह विकास रैखिक नहीं बल्कि वलयाकार और जटिल है। 

उनके अनुसार आधुनिक भारतीय भाषाएँ सीधे संस्कृत से नहीं, बल्कि प्राकृत → अपभ्रंश की कड़ियों से होकर विकसित हुई हैं। 

(ख) क्षेत्रीय विविधता की व्याख्या-

उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप को भाषाई क्षेत्रों में बाँटकर दिखाया कि—

पूर्वी भाषाएँ (बांग्ला, असमिया, उड़िया) 

मध्य भाषाएँ (हिंदी, भोजपुरी, मैथिली) 

पश्चिमी भाषाएँ (राजस्थानी, गुजराती, मराठी) 

इन सभी की जड़ें समान होते हुए भी भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधताओं के कारण अलग मार्ग से विकसित हुई हैं। 

बांग्ला भाषा और साहित्य पर योगदान:

यद्यपि चटर्जी का शोध भारतीय भाषाओं के समग्र परिदृश्य को स्पर्श करता है, लेकिन उनकी मातृभाषा बांग्ला के प्रति उनका अनुराग विशेष रहा। 

(i) बांग्ला भाषा का ऐतिहासिक विश्लेषण-

उन्होंने बांग्ला भाषा में ध्वनि परिवर्तन, शब्दावली विस्तार, संस्कृतनिष्ठता और तद्भव-तत्सम सम्बन्धों को अत्यंत वैज्ञानिक रूप में समझाया। 

(ii) टैगोर सानिध्य-

चटर्जी रवींद्रनाथ टैगोर के अत्यंत निकट रहे और उनके साहित्यिक, दार्शनिक और भाषिक योगदान पर उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण निबंध लिखे। टैगोर ने भी चटर्जी को अपने समय के श्रेष्ठ विद्वानों में गिना। 

(iii) लोकभाषा और साहित्य-

उन्होंने बांग्ला लोकभाषाओं—राढ़ी, वरेंद्र, मगधी—के अध्ययन को संस्थागत रूप दिया। लोकभाषाओं के महत्त्व को उन्होंने प्रमुखता से स्थापित किया। 

हिंदी भाषा के विकास में भूमिका:

यद्यपि चटर्जी बांग्ला के विद्वान थे, परन्तु हिंदी के प्रति उनकी विशिष्ट रुचि है। 

(क) हिंदी की उत्पत्ति-विकास पर शोध-

उन्होंने हिंदी को पश्चिमी अपभ्रंश परंपरा से विकसित मानते हुए खड़ी बोली हिंदी के उभार को आधुनिक भारतीय समाज और संस्कृति के विकास से जोड़ा। 

(ख) हिंदी-उर्दू विवाद पर वैज्ञानिक दृष्टि-

उन्होंने हिंदी और उर्दू को दो स्वतंत्र भाषाएँ न मानकर एक ही भाषायी आधार की दो सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ माना। 

उनका मत था कि—

खड़ी बोली का व्याकरणात्मक आधार समान है। 

शब्दावली में अंतर सांस्कृतिक और ऐतिहासिक कारणों से है। 

यह दृष्टिकोण आज भी भाषाविज्ञान में महत्त्वपूर्ण माना जाता है। 

सांस्कृतिक और राष्ट्रीय दृष्टि:

चटर्जी भाषा-विद्वान भर नहीं थे; वे भारतीय संस्कृति के गहन अध्येता भी थे। उनकी अंतर्दृष्टि बहुसांस्कृतिक भारत को एक व्यापक सांस्कृतिक इकाई के रूप में देखती थी। 

(क) भाषाई एकता की अवधारणा

उन्होंने माना कि भारत की भाषाई विविधता उसकी शक्ति है, कमज़ोरी नहीं। 

भाषाओं की यह विविधता एक साझा सांस्कृतिक धरोहर के रूप में भारत को विशिष्ट बनाती है। 

(ख) प्रांतीय भाषाएँ और राष्ट्रवाद

उनका मानना था कि—

“किसी भी राष्ट्र की आत्मा उसकी मातृभाषाओं में बसती है।”

उन्होंने अंग्रेज़ी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार किया लेकिन भारतीय भाषाओं में ज्ञान उत्पादन और अभिव्यक्ति पर अधिक बल दिया। 

संस्थागत भूमिकाएँ और सम्मान:

सुनीति कुमार चटर्जी न केवल एक विद्वान थे बल्कि कई संस्थाओं के संस्थापक और संरक्षक भी। 

(क) एशियाटिक सोसायटी के अध्यक्ष

उन्होंने एशियाटिक सोसायटी को नए शोध-दृष्टिकोण प्रदान किए और उसे भारत-एशिया के सांस्कृतिक संबंधों का प्रमुख केंद्र बनाया। 

(ख) साहित्य अकादमी के अध्यक्ष

उनके नेतृत्व में साहित्य अकादमी ने भारतीय भाषाओं के विकास, अनुवाद परंपरा और साहित्यिक अनुसंधान को नई ऊँचाइयाँ दीं। 

उनकी विद्वत्ता को राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समान सम्मान प्राप्त था। 

शैली और व्यक्तित्व:

चटर्जी की भाषा—चाहे अंग्रेज़ी हो, बांग्ला हो या हिंदी—स्पष्ट, तर्कपूर्ण और प्रामाणिक होती थी। वे विद्वान होने के साथ-साथ अत्यंत विनम्र और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे। विद्यार्थियों को वे सदैव प्रोत्साहित करते और शोध में सावधानी तथा व्यापकता दोनों का आग्रह करते। 

उनकी विशेषताएँ थीं—

कठिन विषयों को सरल रूप में प्रस्तुत करना

अंतरानुशासनात्मक दृष्टि

सांस्कृतिक संवेदनशीलता

वैज्ञानिक पद्धति और सूक्ष्म विश्लेषण

विरासत:

भारतीय भाषाविज्ञान के क्षेत्र में चटर्जी की विरासत आज भी जीवंत है। उनके शोध-निष्कर्षों, वर्गीकरणों और सिद्धांतों पर आज भी कार्य होता है। 

  1. उनकी विरासत को पाँच बिंदुओं में समझा जा सकता है—

  2. भारतीय आर्य भाषाओं के इतिहास का वैज्ञानिक प्रतिमान

  3. तुलनात्मक भाषाविज्ञान की पद्धति का भारतीयकरण

  4. ध्वनि-विज्ञान और भाषा-सम्पर्क अध्ययन का विस्तार

  5. बांग्ला और हिंदी भाषा के विकास का आधुनिक पुनर्पाठ

  6. भारतीय भाषाई एकता और सांस्कृतिक विविधता की स्थापना

सुनीति कुमार चटर्जी ने भारतीय भाषाओं के इतिहास, संरचना और संबंधों को एक नया वैज्ञानिक आधार प्रदान किया। वे परंपरा और आधुनिकता, भारतीयता और विश्वदृष्टि, भाषा और संस्कृति—इन सभी का सुंदर संगम थे। 

उनके कार्यों ने सिद्ध किया कि भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कृति, इतिहास, साहित्य और समाज का दर्पण है। 

आज जब भारतीय भाषाओं को तकनीकी और वैश्विक मंचों पर नए अवसर प्राप्त हो रहे हैं, चटर्जी की दृष्टि और शोध पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक प्रतीत होते हैं। वे भारतीय भाषाओं के इतिहास के एक अध्याय भर नहीं; एक युग हैं—एक ऐसा युग जिसने भारतीय भाषाविज्ञान को आधुनिक, व्यापक और विश्वस्तरीय आयाम प्रदान किया। अतः उन्हें आधुनिक भारतीय भाषाविज्ञान का शिल्पी कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा। 

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