नई बोध कथा
संजय माथुर
शाम हो चली थी। जिस कार्य के लिये इस शहर में आए थे उसका कोई भी काम अब आज और नहीं हो सकता था। यानी अब शाम ख़ाली थी। दूसरे शहर में परिचित भी कहाँ होते हैं जिनके साथ कुछ बेहतर वक़्त गुज़ारा जाए। कुछ उनकी सुनी जाए, कुछ अपनी कही जाए। यानी अब फिर वही होटल पहुँच कर, टी वी पर कछ निहायत ही बोरिंग देख, शाम का सत्यानाश करना।
क्या करा जाए? अभी इस उधेड़-बुन में ही था कि कासिम की आवाज़ आई. “अब कहाँ चलें साहब?”
कासिम उस टैक्सी का चालक था जिसे सुबह से मैंने अपने इस्तेमाल के लिये किराये पर ले रखा था। सुबह से उसके साथ घूमते-घूमते मेरा और उसका एक दोस्ताना सम्बन्ध बन गया था। मेरे काम का हिस्सा था शहर-शहर घूमना और लोगों से मिलना। इस घूमने के लिये एक वाहन किराये पर लेना ही पड़ता था। ज़्यादातर टैक्सी चालकों से मैं दोस्ताना सम्बन्ध बना लेता था। इससे कई लाभ होते थे। एक तो अपरिचित शहर में एक ‘अपना’ हो जाता था। दूसरा, वो उस शहर से सम्बन्धित उन तमाम सूचनाओं का विश्वसनीय स्रोत होता था जिसमें से कछ मेरे काम आ ही जाती थी। मसलन सस्ता-स्वादिष्ट, साफ़-सुथरा, कम तेल–घी का खाना कहाँ मिलता है? इस शहर में क्या-क्या देखा जा सकता है? शहर में कौन-सी राजनीतिक पार्टी की हवा चल रही है आदि-आदि।
सुबह से, कासिम से मेरी इन तमाम विषयों पर चर्चा हो चुकी थी। वह दिन में मझे एक सामान्य से रेस्टोरेंट में सस्ता और बेहतरीन खाना खिलवा चुका था। गलियों में छुपे इस रेस्टोरेंट को मैं कभी इस शहर में कासिम के बिना खोज ही नहीं सकता था।
उसके प्रश्न के जवाब में मैंने कहा, “कासिम भाई, आज तो अब कोई काम बचा ही नहीं है, अब जो भी होगा वह कल ही होगा। अब बताओ, क्या किया जाए?”
कासिम ने पूछा, “होटल छोड़ दूँ?”
मैंने कहा, “अरे नहीं यार, अभी से होटल जा कर क्या करेंगे? चलो पहले कहीं चाय पी जाए, फिर तय करते हैं क्या करना है।”
उसने कहा, “छोटी दुकान है मगर चाय मस्त बनाता है, पूरा शहर उसकी कुल्हड़ की चाय पीने के लिये कहाँ-कहाँ से उमड़ पड़ता है, बोलिये, चलूँ?”
मैंने कहा, “अरे, तुरंत चलो।”
कई पतली-पतली तंग गलियों में घुमाता हुआ कासिम मुझे चाय की दुकान तक ले गया। मैं वहाँ का नज़ारा देख कर दंग रह गया। चारों तरफ़ ढेरों लोग कुल्हड़ में चाय पी रहे थे। समोसे खा रहे थे। दूर से दुकान तो कहीं नज़र ही नहीं आ रही थी। पास जाने पर वह छोटी-सी दुकान नज़र आई। एक ओर बड़े से कढ़ाव में सैकड़ों समोसे तले जा रहे थे, दूसरी ओर चाय छानी जा रही थी। कासिम भीड़ के बीच में घुस कर दो कुल्हड़ चाय ले आया। इलायची पड़ी हुई स्वादिष्ट चाय थी। शोर-गुल वाले माहौल में उस चाय को पीने का एक अलौकिक आनन्द था।
चाय पीते-पीते कासिम दुकान का इतिहास बताने लगा। उसे नहीं याद था कि कितनी पुरानी दुकान है मगर उसे ये याद था कि बचपन में भी वह दोस्तों के साथ यहाँ आया करता था और तब चाय एक रुपये में दो मिलती थी।
अचानक कासिम ने पूछा, “साहब, आप मन्दिर जाते हैं?”
मैं कासिम के इस सवाल से थोड़ा चौंका ज़रूर मगर चेहरे पर कोई भाव लाये बग़ैर मैंने कहा, “हाँ! कभी-कभी परिवार के लोगों के साथ चला भी जाता हूँ। क्यों?”
“क्या है कि यहाँ से कुछ बाइस-तेईस किलोमीटर की दूरी पर मेरा गाँव है, एकदम आख़िरी गाँव है उसके बाद बॉर्डर लग जाता है नेपाल का। वहाँ पर एक मन्दिर है शिव जी का। बड़ी मान्यता है उसकी। दूर-दूर से लोग आते हैं। आज तो ख़ास दिन है—सोमवार। बहुत भीड़ होगी। पूरी रात कीर्तन होगा। अगर आप कहें तो चलूँ?”
कासिम के मुँह से ये सब सुनना मुझे कछ अटपटा लग रहा था मगर मैंने ज़ाहिर नहीं होने दिया। मेरी उस गाँव के मन्दिर में कुछ ख़ास दिलचस्पी जगी नहीं। मैंने कहा, “और कोई जगह?”
कासिम ने थोड़ी देर सोचा और फिर कहा, “साहब और तो कोई जगह ध्यान में नहीं आ रही।”
मैं तुरंत होटल जाने का इच्छुक नहीं था। मैंने सोचा चलो दो-तीन घंटे मंन्दिर यात्रा में ही गुज़ार लिए जाएँ। थोड़ी देर बैठ-बाठ कर वापस आ जाएँगे।
मैंने कासिम से कहा, “चलो, फिर मन्दिर ही चलते हैं, देखते हैं कैसा है तुम्हारे गाँव का मन्दिर!”
कासिम ने गाड़ी घुमा ली और वह मुझे अपने गाँव की ओर ले चला। एक-दो किलोमीटर चलने के बाद ही शहरी इलाक़ा ख़त्म हो गया और गाड़ी उसने वहाँ से मोड़ कर कच्चे में उतार ली। क़रीब आधा घंटा अँधेरे में ऊँचे-नीचे बियाबान रास्ते पर चलने और एक बरसाती नदी और छोटे घने जंगल को पार करने के बाद मुझे हल्की-हल्की ढोलक-मंजीरे की आवाज़ सुनायी पड़ने लगीं।
गाँव आ चला था।
कासिम ने उत्साहित हो कर कहा, “लगता है कीर्तन शुरू हो गया।” मुझे कासिम के उत्साह से आश्चर्य हुआ, मगर इस बार फिर मैंने ज़ाहिर नहीं होने दिया। मैंने मन ही मन अपने को फटकार लगायी। समझते हो अपने-आप को प्रगतिशील मगर अंदर से ये खोखलापन।
कीर्तन की आवाज़ धीरे-धीरे पास आने लगी। एक जगह कासिम ने गाड़ी रोक कर खड़ी कर दी। उतर कर मुझसे कहा, “साहब थोड़ा पैदल चलना पड़ेगा।” मैं भी जोश का परिचय देता तपाक से उतर पड़ा और कासिम के साथ हल्के अँधेरे में चलने लगा। फिर एक मोड़ मुड़ कर हल्की रोशनी दिखाई देने लगी। वह रोशनी मन्दिर से ही आ रही थी।
छोटा-सा मन्दिर था मगर उसका अहाता बड़ा था। वहीं दरी बिछी थी। लोग उसी पर बैठ कर गा-बजा रहे थे। मन्दिर के आस-पास एक छोटा-सा बाज़ार भी सजा था। महिलाएँ-लड़कियाँ भीतर दीप जला कर पूजा कर रहीं थी। साथ ही साथ जले दीपों को जगह-जगह स्थापित भी कर रहीं थी। असंख्य दीपों के जलने से ही प्रकाश पैदा हो रहा था और चारों ओर फैल रहा था।
अहाते की कम ऊँची दीवार पर काफ़ी बुज़ुर्ग पुरुष बैठे थे। मुझे उन लोगों के बग़ल में दीवार पर बैठा कर, कासिम ने उन बुर्जुगों से मेरा परिचय कराया। कोई उसके अब्बू थे, कोई उसके ख़ालू, कोई उसके चचा-ज़ाद भाई थे, कोई मामू, कोई भाई-जान थे तो कोई फूफा। मेरी सबसे दुआ-सलाम हुई। फिर कासिम कीर्तन मंडली में शामिल हो गया। मुझे ऐसा लगा कि मंडली के लोग उसका इंतज़ार ही कर रहे थे। मेरे शंकालू मन ने सोचा कि अच्छा तो इसने अपने हित को साधने के लिए मेरे कंधे पर बंदूक रख कर चलायी है। कासिम ने ढोलक बजाने वाले से ढोलक ले ली और हुमक-हुमक कर बजाने लगा। मेरा शक ये सब देख यक़ीन में बदल चला।
मगर इस तरह उसका उस कीर्तन मंडली में घुल-मिल जाना मुझे अटपटा भी लग रहा था और आश्चर्य भी पैदा कर रहा था। बल्कि वह पूरा माहौल ही मेरी तार्किक बुद्धि को चुनौती दे रहा था।
मैंने अग़ल-बग़ल के बुज़ुर्गों की ओर देखा जिनसे अभी-अभी मेरा परिचय हुआ था। वह सभी मगन थे और तालियाँ बजा-बजा कर कीर्तन में भागीदारी कर रहे थे। कुछ तो कीर्तन के शब्दों को भी दुहरा रहे थे। मेरा संशकित मन अभी भी इस घटनाक्रम की सत्यता को स्वीकारने में हिचकिचा रहा था। मैंने बग़ल में बैठे बुज़ुर्गवार से बात-चीत शुरू कर सिरा पकड़ने की कोशिश की, “कितना पुराना है ये मंदिर?”
“जनाब, हम तो इसे अपने बचपने से देख रहे हैं, पहले कछ टूटा-फूटा था, फिर हम सब गाँववालों ने मिलकर इसकी मरम्मत कराकर ठीक करा दिया,” बग़ल में बैठे बुज़ुर्ग ने मेरी शंका का समाधान किया।
“आप कब से आ रहे हैं?” मैंने फिर कुरेदा।
“बचपने से। पहले हम अपने अब्बू की उँगली पकड़ कर आते थे। अब कासिम मियाँ के साहबज़ादे मेरी उँगली पकड़ कर आते हैं।”
उनके ये उत्तर मेरी बैचेनी को लगातार बढ़ा रहे थे। लोगो को परखने का बरसों का तजुर्बा, जीवन को पूरी तरह समझ लेने का अहम्, समाज शास्त्र का ज्ञाता होने का दंभ ये सब टूट-टूट कर बिखरे जा रहे थे। मैं इतना ग़लत कैसे हो सकता हूँ। मैं अभी भी हार मानने को तैयार नहीं था। मैंने फिर एक चोट की, “और आप लोगों के त्योहार?”
बुज़ुर्गवार हँसे, “अच्छा, आप ईद-बकरीद पूछ रहे हैं। वह भी सब गाँववाले मिल-जुल कर मनाते हैं।”
मैंने चुनाव लड़ने वाली पार्टियों की तरह जातिगत समीकरण समझने की कोशिश की। पूछा, “किस सम्प्रदाय के लोग ज़्यादा हैं यहाँ?”
बुज़ुर्गवार ने मुझे गंभीरता से देखा। ऐसा लगा उनकी भेदती हुई आँखें मुझे बौना बना रहीं हैं और मेरे अस्तित्व को जैसे कुचले डाल रही हैं।
“पता नहीं! ये जोड़-घटाव हम लोग नहीं जानते साहब! जनाब, हम लोग तो इंसानियत में यक़ीन रखते हैं और वही बरक़रार रखना चाहते हैं। सदियों से इस गाँव की छोटी सी आबादी ने उसे सहेज कर रखा है। आगे भी रखेंगे!”
मैंने अविश्वास से कहा, “मगर कैसे? क्या बाहरी दुनियाँ का हस्तक्षेप आपको ऐसा करने देगा?”
बुज़ुर्गवार ने पूरे विश्वास से कहा, “हमारे गाँव के मुखिया ही गाँव के हर परिवार के मुखिया हैं। उनके मुँह से निकली हर बात हमारे लिये नियम है, क़ानून है। और ऐसा अरसे से है। हमारे न तो घरों में ताले हैं न दिलों में। हमारी बाहरी दुनियाँ पर निर्भरता बहुत कम है। हम आत्म निर्भर है। बेहतरी को बाहर खोजने निकले कासिम जैसे बच्चों की भी नाल गड़ी तो गाँव में ही रहती है।”
मुझे यक़ीन ही नहीं हो रहा था उनकी बात पर। ऐसे जीवन कैसे चल सकता है?चमैं उनको अविश्वास से देख रहा था और मस्ती में झूम-झूम कर ढोलक बजाते कासिम को भी।
वह बोले जा रहे थे, “साहब, यहाँ ऐसी बात कोई नहीं बोलता जिसमें सच को तोड़ा-मरोड़ा गया हो या जिससे दो दिलों में दूरियाँ बढ़ती हों। हम ऐसी बातें कभी किसी से साझा नहीं करते जिस बात पर हमें ख़ुद पूरा भरोसा नहीं होता।”
मुझे अविश्वास से अपनी ओर देखता पाकर वह फिर बोले, “एक बात अच्छी तरह समझ लीजिये साहब, हम लोग अज्ञानी नहीं हैं, पिछड़े भी नहीं हैं। और सबसे बड़ी बात हम लोग बहुत ख़ुश हैं।”
अब मेरे तरकश में कोई तीर नहीं बचा था।
कासिम के साथ मैं वापस लौट रहा था।
मैं चुप था, स्तब्ध था, हारा हुआ था। सुदूर गाँव के उन लोगों ने जीवन का मर्म समझ लिया था और आत्मसात कर लिया था। हम सब, अपने-आप को बुद्धिजीवी मानने वाले, न मालूम किन ख़ुशियों को कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे ढूँढ़ रहे हैं? और ना मालूम कब तक ढूँढ़ते रहेंगे?