हलधर नाग का काव्य संसार (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
अछूत – (1-100)
जुहार-जुहार, गुरु महाप्रभु
कवि, ओ तुलसीदास
तुम्हारे लेखन के किस कोने से
करूँ मैं लिखने की आश॥1॥
स्वर्ग से झरा दो पद-छंद
जैसे झरते पेड़ों से फूल
संबलपुरी में गूँथ दूँगा
तुम्हारे फूलों की माल॥2॥
तुम्हारे क़लम से उतरी
रामचरित की गार
क़लम की गार नहीं, ओ गुरु
भावामृत की धार॥3॥
विद्वान सज्जनों के कथन सुन
चखा था अमृत
मीठी खीर से भी बढ़कर
स्वादिष्ट ख़ूबसूरत॥4॥
आजीवन अमृत
हज़म नहीं हुआ मेरे उदर
ऊर्ध्व-वायु बन निकला
मुख-द्वार॥5॥
भील राजा को आराम कहाँ?
बेटी शबरी के विवाह के तमाम काम
नाच रहे थे नर-नारी
अदा कर मदिरापान की रस्म॥5॥
कल होगी मडुआ के नीचे
भैंस की दावत वहाँ
सब शबर खाएँगे भरपेट
कुछ वराह भी कटेंगे वहाँ॥6॥
शबरी की आँखों में नींद नहीं, पूरी रात
बिस्तर पर करवट बदलती रही सोच
आँखों के आगे देखकर, जानकर भी
क्यों लगे मुझे पाप की मोच?॥7॥
कुटुंब जंजाल जाल महाजाल
फँसा जो एकबार
निकल न पाए नरक से जीव
मर-मर गया शरीर॥8॥
मैं ख़ुद जीव मेरे ख़ातिर
बीस जीवों का संहार
हे प्रभु! मेरे सिर पर पाप
भाड़ में जाए घर-संसार॥9॥
उपाय दिख रहा है, समय भी है
भाग जाऊँगी कहीं
जहाँ नहीं होंगे हिंसा-अहंकार
जाकर रहूँगी वहीं॥10॥
निष्कंप रात निस्तब्ध सभी
निद्रावती की कॉल
घोड़े बेच सोए सभी
प्रगाढ़ नींद में डोल॥11॥
काला भीत-भीत अंधकार
नहीं सूझती बाँह को बाँह
दरवाज़ा खोल निकली दबे पाँव
निकली वह दूसरी राह॥12॥
बाहर से शबरी भीतर आई
छुप गई सूअर-बल
एक-एककर बीस सूअर
डंगिया से दे दी खोल॥13॥
सूअर भागे इधर-उधर
उलझी शबरी लड़खड़ाती
रास्ता अनजान, भागी जहाँ-तहाँ
कँटीली झाड़ियों से टकराती॥14॥
जगह-जगह गिरती-पड़ती
पाँवों में लताओं की बेड़ी
फूट गए घुटने, फूट गई कोहनी
जाँघें गई रगड़-रगड़ी॥15॥
चट्टानों पर लड़खड़ाई, पेड़ों से टकराई
चेहरे, कान, गर्दन पर घाव
ख़ून से सनी काया
टपकता रक्त बूँद-बूँद पाँव॥16॥
भागती गई नाक की सीध
न थकी, न रुकी
सअं सअं फअं फअं
साँसें फूली उसकी॥17॥
कोई हिसाब नहीं कितने काँटे
घुसे गहरे पग
शिकारी के डर से जैसे हिरण ने
लगाई ऊँची छलाँग॥18॥
खिसक पड़ी पहाड़ी से फिसल
लुढ़कते-लुढ़कते धरातल
आँखों के आगे तारे, खो गई चेतना
दिख रहा अतल-वितल॥19॥
सुबह का तारा उदय होते ही
देने लगा बाँग मुर्ग़ा
सावधान रहना कहता जैसे
चौकीदार है गुर्गा॥20॥
पक्षी-चुड़ैलें अपनी-अपनी भाषा में
करती आवाज़
उठो उठो, सुबह हो गई
सुनाई दे रहे ऐसे अल्फ़ाज़॥21॥
खिले जंगली फूल लगे महकने
सुगंधित हवा के झोंके
सूँघ-सूँघकर भागे भौरें
अमृत-पान के भूखे॥22॥
रक्ताभ सूरज देवता
उदय हुआ पूर्व दिग
किरणों से चमकते ऊँचे-ऊँचे
कोऊ सरगी के तुंग॥23॥
उस जंगल में था योगसिद्ध मुनि
मातंग का आश्रम
पानी-पवन, राम-राम नाम
प्रतिध्वनि हरदम॥24॥
डालियों पर तोता-मैना की
हे राम, हे राम वाणी
निडर हो, छोटे-बड़े हिरण
विचरते जैसे पालतू प्राणी॥25॥
बीमारी-सीमारी दुख-दर्द
नहीं आ सकते पास
फल-फूलों से भरे पेड़ सभी
आठ-काल बारहमास॥26॥
चमकता पंपा झील का पानी
आश्रम के थोड़ी दूर आगे
पाप हरने सुरंग से प्रस्फुटित
पावन गंगे॥27॥
स्नान-ध्यान कर लौट रहे थे गुरु
साँसें उखड़ी-उखड़ी
पीछे-पीछे शिष्यों की टोली जैसे
चींटियों की झड़ी॥28॥
सब ज्ञान था शबरी के बारे में
आकर हो गए खड़े
शिष्यों से कहा, “जाओ, देखो
वहाँ कौन है पड़ा?” ॥29॥
तुलसी-पत्र की तरह पवित्र
महान आत्मा कोई
भयानक गंदगी से निकलकर
चंदनवन में आई॥30॥
चारों तरफ़ फैल गए शिष्य जंगल में
खोजने लगे निर्निमेष नयन
झाड़ी के उस तरफ़ पड़ी शबरी
झुकाए एक तरफ़ गर्दन॥31॥
सारे शरीर पर खरोंचें ही खरोंचे
लहू से लथपथ लाल-लाल
कालिका पड़ी हो पहने जैसे
रक्तिम मंदार की माल॥32॥
क्या पता वन-दुर्गा
परख रही मुनि-मन
गुरु को सपने में आई हो कल
अब कह रहे कथन॥33॥
राम-लक्ष्मण ने मारी ताड़का
मिथिला गामी स्थल
क्या वह दानवी जीवित है
छिपकर इस डंगर तल॥34॥
क्या नकटी, कनकटी शूर्पणखा
खुर्राटे ले रही उनींद
या राम-लक्ष्मण की प्रतीक्षा में
सो गई गहरी नींद॥35॥
खोंस दिए बालों में गिद्ध-पंख
गले में रंग-बिरंगे बीजों की माल
कलाई-टखनों पर सस्ती चूड़ियाँ
और शरीर पर पेड़ों की छाल॥36॥
शिष्यों ने पहचाना, छिः! छिः!
नीच जात की शबरन
नाक-भौं सिकोड़ गुरु से बोले
चलो, जल्दी करो निगमन॥37॥
कोई अछूत शबरन
पड़ी कहीं से अधम
किसी ने मार फेंक दिया
शायद की हो दुष्कर्म॥38॥
गुरु ने कहा, वह शबरन नहीं है
श्वेत-धवल क्षीर समंदर
जिस समुद्र में रहते भगवान विष्णु
बनाकर अपना घर॥39॥
धन्य हम आश्रम-वासी
मिले जो उनके दर्शन
जिसका अंतर परम उज्जवल
निष्कलंक ज़ेहन॥40॥
कहते-कहते गुरु भागे
शबरी के पास तत्पर
उसे उठाकर झाड़झूड़ कर
साफ़ किया समधुर॥41॥
कमंडल तिरछाकर पिलाया पानी
और छिड़का कुछ सिर पर
चेतना लौट आई शबरी की
बैठकर लगी देखने इधर-उधर॥42॥
बड़े प्यार से कहा गुरु ने, “हे देवी
मेरे आश्रम में स्वागत
मन जान फल देता है भगवान
चिंता ना कर किसी बात”॥43॥
सुन मुनि के सुखद वचन जागा
शबरी का बल
आगे मुनि, बीच में शबरी
पीछे शिष्यों का दल॥44॥
सात समुद्र के मंथन के बाद
जैसे माँ लक्ष्मी को लेकर
विष्णु से मिलाने जा रहे ब्रह्मा
साथ लिए सूरेश्वर॥45॥
ऋषि आश्रम में जैसे ही पड़े
अछूत शबरी के पाद
पेड़ों पर पत्तियाँ निकलकर
जैसे दे रही आशीर्वाद॥46॥
बुगबुगा फूल बरसा दिए
शबरी के सिर जितने
हवा के झोंके में नाचे
सारे फल-फूल उतने॥47॥
पानी की बूँदें बरसी धरातल
सात जल-बहनों का दल
शबरी से भेंट कर देने आई हो
लेकर मुक्ता-थाल॥48॥
कितने उत्साह से वन देवता ने
लिया उसे अपनी कोल
रही शबरी मन धीरज धर
मान गुरु के बोल॥49॥
गर्मी में कद्दू के पत्ते
जिस तरह जाते मुरझा
और पहली बारिश के साथ
फिर से जाते खिलखिला॥50॥
इसलिए शबरी ख़ुश थी
मन में दुख नहीं लेश
उसका आचरण ऋषियों की तरह
नाम का शबरन वेश॥51॥
सभी की बातों का सम्मान करती
क्या गुरु क्या चेला
गुरु के सौ पुत्रों में
वह दुलारी अकेली चंचला॥52॥
मुर्ग़े के बाँग सुन शुरू कर देती लेपन
होमकुंड के चारों ओर
बरामदे, चबूतरे के भीतर-बाँहर
छिड़कती गोबर नीर॥53॥
गाय के गोबर को थेपती
साफ़ करती गुहाल
गाय-बछड़ा जो भी मिलते
लगा लेती गले॥54॥
मटके भर-भर पानी लाती
फूल-पौधों को पिलाती
जैसे माँ अपने बच्चों को
पेट भर-भर खिलाती॥55॥
जंगल-जंगल खोज-खोजकर
लाती सूखी समिधा
स्नान कर गुरु के करती दर्शन
साष्टांग अभिधा॥56॥
गुरु का मन होता उत्फुलित
शबरी को देखकर
आँगन में मात्र एक हाँड़ी
अमृत से जाती भर॥57॥
फूल-फल, पत्ते और पेड़
सारे जीव-जंतु, खलिहान
शबरी के आने के दिन से दोगुना
बढ़ा आश्रम का सम्मान॥58॥
दिन महीने बीतते गए
पूरा होने को आया वर्ष
शुरू हुई कानाफूसी
मुनि शिष्यों के बीच॥59॥
पहले की तरह गुरु नहीं
नहीं करते हमें स्नेह बिल्कुल भी
निर्लज्ज शबरी किस तरह
गुरु के नज़दीक बैठती भी॥60॥
जिसके छूने से होते अपवित्र
यहाँ रखकर गुरु ने क्या ठानी?
आश्रम सारा हुआ प्रदूषित
हमारी इज़्ज़त में हुई हानि॥61॥
ब्रह्मचारी-आश्रम में कोई
किसी लड़की से क्या लेना-देना
अगर वह स्वर्ग की नर्तकी बन जाए
तो कौन करेगा उसे मना?॥62॥
शिष्यों के मन की उलझन
समझ गए गुरु महान
शबरी को बुलाकर अलग से
कहा, मेरी एक बात मान॥63॥
पोखरी के उस पार निर्जन जगह
बना देता हूँ तुम्हारा सदन
निश्चिंत तुम रहो वहाँ
इतना वचन मेरा मान॥64॥
ख़ुशी से स्वीकार किए शबरी ने
मान गुरु के वचन सही
गुरु का आदेश स्वर्ग-सम
दूध से ही बनता दही॥65॥
खंभे और ढालू शिखर खड़ा कर
दीवारों से बनाया आवास
मज़बूती से बाँस बाँधकर
ऊपर डाल दी घास॥66॥
गुरु महामेरू है, चाहे दूब हो या देवदार
गुरु है ज्ञान का आधार
गुरु के वचन मान ख़ुशी से
शबरी रहने लगी उस घर॥67॥
सोते, बैठते, जहाँ भी जाने से
गुरु चरणों का वंदन
मन में सोचती सदैव गुरु का संग
न कोई डर, न क्रंदन॥68॥
मिट्टी-घोल से बनाए मटके
बाँस की पत्तियों से टोकरी
मएसेना घास बुनकर बना दी
सोने की कोठरी॥69॥
भूख में खाती जंगली फल-फूल
जो भी आता उसे पसंद
प्यास लगने पर पंपा-पानी
रहा गुरु का सदैव आशीर्वाद॥70॥
हँसता सूरज छिप रहा था
अपने माँ की क्रोड
पंपा झील से जल-मुर्गी और
राजहंस चल गए उड़़॥71॥
कोलाहाल करती चिड़िया, चुड़ैल
लौटे अपने घर निकले
बाँहर निकले निशाचर, उल्लू
कस अपनी कमर॥72॥
दूर-दूर पहाड़ी हवा का झोंका
खिले फूल गिरे झड़कर
गुफाओं के भीतर जंगली जानवरों ने
दहाड़ना कर दिया बंद डरकर॥73॥
झिलमिलाते सितारे खिले कमलों की तरह
काले बादलों के मर्म
निर्मल झिलमिल घाट का जल
स्वच्छ हिमसम॥74॥
सही घड़ी, चक्रनुमा चाँद
उदय हुआ गगन
पंपा झील चंद्र-दर्शन के लिए
बन गई दर्पण॥75॥
निचले तट के बड़े बरगद की छाया
दिखाई दे रही थी जल
जैसे सात फनों वाले साँप ने
कुंडली मार बाँध दी झील॥76॥
मटकी लेकर आई शबरी
भरने के लिए पानी
डर से सिकुड़ी, मटकी फेंककर
हड़बड़ाकर भागी मस्तानी॥77॥
चुपके-चुपके देखकर शिष्य
उसे कहते अछूत
गुरु डर से अगर नहीं कह पाते
मगर मन में क्रोधाभिभूत॥78॥
अचानक ढेले पत्थरों की वर्षा हुई
शबरी के शरीर
मदद करो, हे गुरु! मैं मर रही हूँ
किया उसने चीत्कार॥79॥
एक पत्थर लगा उसकी ठुड्डी पर
सिर खाने लगा चक्कर
होने लगा ख़ूनी वमन
शबरी हो गई वही ढेर॥80॥
तुरंत-तुरंत गुरु हाज़िर
सुन शबरी की चीत्कार
कहा, “तुम्हारी इस दशा का दोषी
मातंग ऋषि का सत्कार”॥81॥
नाग के बचपन से तोड़ दिए जाते दाँत
नाग में नहीं होता विष
भोग रहा हूँ अपनी ग़लती
निकालूँ किस पर रिस॥82॥
चोर, डकैत, धोखेबाज़ बेटे का
पिता ही ज़िम्मेदार
ज्ञानी-ध्यानी मुनि आश्रम में
अज्ञानियों जैसा कारोबार॥83॥
गुरु ने उसे कंधे से ठोकर
सुलाया उसे अपने कुटीर
जड़ी-बूटी पीसकर किया लेपन
पीने को दिया नीर॥84॥
शबरी के ख़ून से पंपा-जल
हो गया लाल
मुरझाए खरपतवार, कुलबुलाए कीड़े
भृंग हुए चेला॥85॥
गुरु ने कहा, “नष्ट होता है मनुष्य
हमेशा अपने स्वभाव से, भाई
मुनि शिष्य से होकर भी किया अधर्म
दुखी है गंगा माई”॥86॥
एक दिन उन्होंने शबरी को बुलाकर
कहा कानों-कान
“हे शबरी, सुनो हमेशा याद रखना
बता रहा हूँ गुप्त ज्ञान”॥87॥
जितने भी दुख आए सुख मानकर
सिर झुकाकर बनना विजयी
धैर्यवान व्यक्ति जैसा कोई नहीं
यश रहता उसका कालजयी॥88॥
दूसरों के दोष दिल पर मत लेना
कर देना हमेशा माफ़
क्रोध-घृणा खदेड़ बाहर
दिल को रखना साफ़॥89॥
सत्य ईश्वर है, सत्य नारायण,
सत्य ही ब्रह्म, शिव
सत्य ही लक्ष्मी, सत्य सरस्वती
सत्य ही मुक्त-जीव॥90॥
और कितने दिन रहूँगा इस संसार
धरकर यह शरीर
समय आ गया, नहीं रहूँगा मैं
जाऊँगा सब छोड़कर॥91॥
मूँद लूँगा आँखें योग-ज्योति में
जल जाएगा मेरा वपु
शरीर से बाँहर अपने रास्ते
उड़ जायेगा प्राणवायु॥92॥
सिसक-सिसककर बोली शबरी
पकड़ गुरु के चरण
“अगर छोड़कर चले गए गुरु,
कौन देगा मुझे शरण?” ॥93॥
पूर्वजन्म के पापों से जन्म लिया
मैंने अछूत घर
दौड़ा-दौड़ा कर मारते यहाँ-वहाँ
जैसे मैं जानवर॥94॥
अछूत होने से आश्रम में
मुझे नहीं मिला है स्थान
आदेश दे गुरु के साथ
तज दूँगी प्राण॥95॥
“मरने की बात मत करो, शबरी,”
गुरु बोले, “ज़िंदा रहो”
काले बादलों के नीचे घर बनाई हो
भले ही पत्थर गिरे, मगर सहो॥96॥
“सहती रहो, मिलेगा तुम्हें
जैसे मैंने कहा पहले भी कहीं पर
दुख नहीं यह है, सुख का सूचक
दुखी को एक हाथ में रखकर”॥97॥
“जन्म तुम्हारा सफल होगा
मत गवाँ देना जीवन
दुख के बादल छटेंगे धीरे-धीरे
नया सूरज उदय होगा गगन॥98॥
“तुझे शबरी जीवित रहना होगा
पाने को असल धन
कहता हूँ आज, इस देह में तुझे
राम देंगे दर्शन॥99॥
शबरी बोली, “बताओ, गुरु!
कौन है यह राम?”
गुरु ने कहा, “चौदह भुवन का
कर्ता-धर्ता है राम”॥100॥
विषय सूची
- समर्पित
- भूमिका
- अभिमत
- अनुवादक की क़लम से . . .
- प्रथम सर्ग
- श्री समेलई
- पहला सर्ग
- दूसरा सर्ग
- तीसरा सर्ग
- चौथा सर्ग
- हमारे गाँव का श्मशान-घाट
- लाभ
- एक मुट्ठी चावल के लिए
- कुंजल पारा
- चैत (मार्च) की सुबह
- नर्तकी
- भ्रम का बाज़ार
- कामधेनु
- ज़रा सोचो
- दुखी हमेशा अहंकार
- रंग लगे बूढ़े का अंतिम संस्कार
- पशु और मनुष्य
- चेतावनी
- स्वच्छ भारत
- तितली
- कहानी ख़त्म
- छोटे भाई का साहस
- संचार धुन में गीत
- मिट्टी का आदर
- अछूत – (1-100)
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
-
- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- इंसानियत तलाशता अनवर सुहैल का उपन्यास ’पहचान’
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत और नीदरलैंड की लोक-कथाओं का तुलनात्मक विवेचन
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- मुकम्मल इश्क़ की अधूरी दास्तान: एक सम्यक विवेचन
- मुस्लिम परिवार की दुर्दशा को दर्शाता अनवर सुहैल का उपन्यास ‘मेरे दुःख की दवा करे कोई’
- मेरी नज़रों में ‘राजस्थान के साहित्य साधक’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- व्यक्ति चित्र
- पुस्तक समीक्षा
-
- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- मानव-मनोविज्ञान के महासागर से मोती चुनते उपन्यासकार प्रदीप श्रीवास्तव
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
- अनूदित कहानी
- बात-चीत
- ऐतिहासिक
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
-
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
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