15-02-2017

नींव के पत्थर

प्रिय मित्रो,

 कभी-कभी जो विचार आपके मस्तिष्क में दिन-रात घूम रहा हो और उसी भाव को व्यक्त करती रचना पढ़ने को मिल जाए तब न केवल अच्छा ही लगता है बल्कि आपकी विचारधार को किसी अनजाने व्यक्ति का समर्थन पा कर एक प्रसन्नता भी अनुभव होती है। ऐसा ही कुछ अनुभव मुझे इस अंक में प्रकाशित डॉ. उषा त्यागी की लघुकथा "तमाशबीन" को पढ़ते हुए हुआ।

इस लघुकथा में उषा जी ने प्रकाशकों की सत्ता पर प्रश्न चिह्न लगाया है जो दोनों हाथों से पैसे बटोरते हैं। एक ओर, अपनी पुस्तक के प्रकाशन के लिए उत्सुक लेखकों से पैसे लेकर, दूसरी ओर उन्हीं पुस्तकों को अपने स्थायी ग्राहकों को बेच कर। लेखक का देय (रॉयल्टी) का यहाँ न तो कोई प्रश्न पैदा होता या उसका ज़िक्र ही आता है। ऐसी दशा में पुराने स्थापित लेखकों की पुस्तकों का आमतौर पर एक ही संस्करण छपता है। दूसरे संस्करण के लिए प्रकाशक प्रायः पुस्तक में थोड़े परिवर्तन करने की माँग करते हैं, जैसे कि – पुस्तक का नाम बदल दीजिये, पुस्तक की कुछ कहानियाँ बदल दीजिये इत्यादि। ऐसा वह क्यों कहते हैं यह मेरी समझ से बाहर है। अँग्रेज़ी साहित्य की पुस्तकों के प्रकाशक तो ऐसी शर्त नहीं रखते, तो हिन्दी साहित्य की पुस्तकों के प्रकाशक ऐसा क्यों करते हैं?

पिछले दिनों मिलने वाली रचनाओं को पढ़ने का बहुत ही सुखद अनुभव हुआ। रचनाएँ तकनीकी पक्ष से सही थीं और लेखकों द्वारा सही लिखने का प्रयास दिखायी दे रहा था। उर्दू के शब्दों की वर्तनी सही थी, हिन्दी रचनाओं में हिन्दी की ही व्याकरण थी, भोजपुरी की नहीं। नए विषय थे और नया दृष्टिकोण भी था। इन रचनाओं को पढ़ने के बाद मन में संतोष जागृत हुआ कि हिन्दी साहित्य सही दिशा की ओर जा रहा है। युवा लेखकों को भी अनुभव होने लगा है कि जैसी हिन्दी उन्होंने सीखी है; वह लेखन के लिए पर्याप्त नहीं है। एक लेखिका ने कुंठा व्यक्त की – "लिखना चाहती हूँ, परन्तु हिन्दी लिखनी नहीं आती (उसने रोमन में ही लिखा था), अंग्रेज़ी भाषा का पर्याप्त ज्ञान नहीं है कि उसमें लिख सकूँ"! सच कहता हूँ, एक उदासी की लहर छा गयी। परन्तु फिर ख़्याल आया कि यह जो तड़प इस लेखिका के मन है, उसका समाधान ही हिन्दी भाषा का भविष्य भी है। जब हिन्दी भाषी युवा यह अनुभव करने लगेगा कि इस समय वह भाषागत त्रिशंकु में लटका है तो निश्चित है कि वह भाषा के प्रति सजग होगा और हिन्दी का विकास स्वतः होने लगेगा। मेरा अनुरोध हिन्दी साहित्य की अन्य जालघरों के संपादकों से भी है। क्योंकि बहुत से युवा लेखक इंटरनेट को ही अपने लेखन के प्रकाशन का माध्यम चुन रहे हैं, इसलिए हम संपादकों का दायित्व है कि उन्हें सही हिन्दी लिखने के लिए प्रेरित करें ताकि आरम्भ से नए लेखकों सही तकनीक का प्रयोग करने की आदत हो जाए। लेखन एक शिल्प है। इसके लिए केवल सृजनात्मक भाव ही पर्याप्त नहीं, तकनीकी ज्ञान भी आवश्यक है; भाषा और व्याकरण इस कला की नींव के पहले दो पत्थर हैं। इनका मज़बूत होना अनिवार्य है।

 – सादर
सुमन कुमार घई

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

सम्पादकीय (पुराने अंक)

2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015