01-05-2016

मेरी प्राथमिकतायें

प्रिय मित्रो,

अप्रैल के महीने में साहित्य कुंज का एक भी अंक प्रकाशित नहीं कर पाया। इसके दो मुख्य कारण रहे। पहला गीता का सरल अँग्रेज़ी में अनुवाद और दूसरा आधे-अधूरे नाटक का मंचन। इन दोनों कारणों के लिए कैनेडा में पाँव जमाती और अपनी जड़ों को मज़बूत करती भारतीय संस्कृति को समझना अत्यंत आवश्यक है। हालाँकि कैनेडा के पश्चिमी तट पर भारतीय (पंजाबी) उन्नसवीं सदी के अंत में बसना शुरू हो चुके थे परन्तु ओंटेरियो प्रांत में भारतीयों का भारी संख्या में आगमन ७० के दशक के पूर्वार्द्ध हुआ। पहले दो दशक तो आर्थिक रूप से अपने आपको स्थापित करने में बीत गए और उससे अगला दशक धार्मिक स्थानों के निर्माण में। अब समय आया है संस्कृति को स्थापित करने का। यद्यपि संस्कृति की परिभाषा व्यक्तिगत होती है, यानी हर व्यक्ति इसे अपने अनुसार ही मानता है और इसे जीता है। परन्तु संस्कृति के साथ कलाओं और धर्म का गहरा संबंध सर्वमान्य है। यहाँ मैं भाषा को संस्कृति के साथ नहीं जोड़ता क्योंकि संस्कृति जीवन मूल्यों से संबंधित है और भाषा का जीवन मूल्यों से कोई संबंध नहीं है। कैनेडा में पिछले दशक में विभिन्न कलाओं की विभिन्न संस्थाएँ बनी और बहुत सी अभी भी कार्यरत हैं – एक सांस्कृतिक और कलात्मक पहचान बनाने के लिए। इन संस्थाओं की पृष्ठभूमि में, इनसे एक दशक पहले बनी धार्मिक संस्थाएँ हैं। कैनेडा में मंदिरों और गुरुद्वारों की भारतीय मंदिरों और गुरुद्वारों से तुलना करनी कठिन है। यहाँ पर इन संस्थानों का दायित्व केवल धार्मिक अनुष्ठानों पर ही समाप्त नहीं हो जाता। यह संस्थाएँ, हिन्दी, पंजाबी की कक्षाएँ, भारतीय (शास्त्रीय) संगीत, नृत्य शिक्षण, योगाभ्यास की कक्षाएँ, वरिष्ठ नागरिकों (सीनियर सिटिज़न्ज़) के क्लब, उनके मनोरंजन के लिए पर्यटन इत्यादि, उनके स्वास्थ्य के लिए व्यायाम की कक्षाएँ इत्यादि भी चलाते हैं।

बृहत टोरोंटो में एक भाग है स्कारबरो। यहाँ पर एक छोटा सा प्रगतिशील मंदिर है – राधा-कृष्ण मंदिर। यह मंदिर समृद्ध नहीं है। अधिकतर जो लोग इसमें आते हैं वह नए आप्रवासी भारतीय (अधिकतर गुजराती) हैं। मंदिर की आय कम है परन्तु फिर भी मंदिर में लोगों से चन्दा नहीं माँगा जाता, अगर कोई कुछ दे जाए उसी में संतोष कर, मंदिर का परिचालन होता है। पैसे के बिना तो कुछ होता नहीं है इसलिए मंदिर वर्ष में दो बार एक पत्रिका और एक बार कैलेन्डर का प्रकाशन करके विज्ञापनों से कमाई करता है। समय-समय पर धार्मिक पुस्तकों का प्रकाशन करने के लिए प्रायोजकों का सहारा भी मिल जाता है जिससे मंदिर को भी कुछ आर्थिक लाभ हो जाता है।

कुछ वर्ष पहले कैनेडा की लेखिका डॉ. सुशीला गुप्ता ने "छात्रोपयोगी गीता" लिखी थी। उन्होंने गीता के संदेश को कहानियों और कविताओं से रोचक बनाने का प्रयास किया था ताकि किशोर इसे पढ़ें और गीता से परिचित हो सकें। क्योंकि राधा-कृष्ण मंदिर ही अकेला ऐसा मंदिर है जो समाज के लिए उपयोगी पुस्तकों का प्रकाशन और वितरण करता है, उन्होंने मंदिर से संपर्क किया कि उनकी पुस्तक निःशुल्क वितरित हो परन्तु प्रकाशन का खर्च मंदिर को उठाना पड़ेगा। मंदिर की परिचालन समिति के अध्यक्ष और संस्थापक श्री मनोहर लाल शर्मा ने मुझसे सलाह माँगी। मैंने उनसे दो प्रश्न किए। पहला तो यह कि पुस्तक हिन्दी में है तो इसे पढ़ेगा कौन? कैनेडा में जन्मे या छोटी उम्र में आए बच्चे तो इसे पढ़ ही नहीं पाएँगे। दूसरा अगर इसका अनुवाद भारत से करवाएँगे तो भी कैनेडियन किशोर इसे नहीं पढ़ेंगे क्योंकि भारतीय अँग्रेज़ी अनुवादकों की भाषा यहाँ के अनुरूप नहीं होती; तो प्रश्न वही पढ़ेगा कौन? बात उन्हें जँची, उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि मैं इसका हिन्दी से ऐसी अँग्रेज़ी में अनुवाद करूँ जो यहाँ के किशोरों की भाषा हो। समय के अभाव के कारण मैंने मना कर दिया। कुछ महीनों के प्रयासों में असफलता से हताश हो कर उन्होंने जिस तरह मुझ से फिर संपर्क किया तो मैं मना नहीं कर पाया। अपने अपराधबोध और समाज के प्रति अपने दायित्व से कन्नी नहीं काट सका। २४९ पृष्ठों की पुस्तक को एक निश्चित समयावधि में अनुवाद करना आवश्यक था। कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हो गयीं कि अप्रैल के अंत तक मुझे पुस्तक उन्हें देनी थी। इसलिए मुझे अपनी दिनचर्या बदलनी पड़ी और मैं सुबह साढ़े तीन बजे उठने लगा ताकि चार बजे तक काम आरम्भ कर सकूँ। ख़ैर तीन दिन पहले यह काम समाप्त हो चुका है।

अंक न प्रकाशित करने का दूसरा कारण आधे-अधूरे नाटक का मंचन था। हिन्दी राइटर्स गिल्ड अपने आठ वर्ष के इतिहास में छह नाटकों का मंचन कर चुकी है। २००८ में जब डॉ. शैलजा सक्सेना, विजय विक्रान्त और मैंने इस संस्था की स्थापना की थी तो हमारे कई उद्देश्य थे। पहला तो कैनेडा में हिन्दी साहित्य सृजन को समृद्ध करना, कैनेडियन पृष्ठभूमि में साहित्य सृजन, जन-साधारण में साहित्य के प्रति रुचि पैदा करना और साहित्य प्रेम को प्रगाढ़ करना इत्यादि। हम लोगों ने अपने वार्षिक कार्यक्रमों में रश्मि रथी, अंधा युग जैसे गंभीर काव्य-नाटकों का मंचन किया और जिसे हिन्दी प्रेमी जनता ने बहुत सराहा। इन दर्शकों में "सावित्री थियेटर ग्रुप" की जास्मीन सावंत भी थीं। सावित्री थियेटर ग्रुप बहुत सक्रियता से अँग्रेज़ी, मराठी और गुजराती नाटकों का मंचन करता है। उन्होंने हिन्दी राइटर्स गिल्ड के सामने एक हिन्दी नाटक को बड़े मंच पर प्रस्तुत करने का प्रस्ताव रखा। यह हम लोगों के लिए महत्वपूर्ण था क्योंकि हम लोग लेखन के साथ नाटक भी करते थे परन्तु सावित्री ग्रुप केवल नाटक ही करता था। यानी उनकी विशेषज्ञता का हम लाभ उठाना चाहते थे। उन्होंने मराठी मंच के प्रसिद्ध निर्देशक श्री प्रकाश दाते से संपर्क किया और वह स्व. मोहन राकेश द्वारा लिखित नाटक आधे-अधूरे के निर्देशन के लिए मान गये। उनके लिए यह हिन्दी का पहला नाटक था। छह महीने पहले अभिनेताओं और अभिनेत्रियों का चयन हुआ और सप्ताह में तीन से चार बार रिहर्सल आरम्भ हो गयी। अब बात फिर कैनेडा में हमारे सीमित साधनों की आ जाती है। प्रकाश दाते नाटकों का मंचन भारत में होने वाले नाटकों के स्तर पर करते हैं। नाटक के लिए सेट बनाने के लिए लागत को सीमा रखने के लिए वह स्वयं सेट बनाते हैं। उन्होंने हम लोगों से एक सहायक माँगा, मेरा नाम प्रस्तावित किया गया और मैं तैयार हो गया। परन्तु नाटक के मंचन से दो सप्ताह पहले परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि प्रकाश जी ने कहा कि सेट केवल सुमन को ही बनाना पड़ेगा – प्रशिक्षण वह दे देंगे। अब मुझे सहायक की आवश्यकता हुई। कई सहायक स्वेच्छा से तैयार हुए। पर समस्या थी कि वह सभी युवा लोग नौकरियों में व्यस्त थे और केवल सप्ताहांत पर सहायता कर सकते थे। सेट के लिए प्रतिदिन काम करने की आवश्यकता थी। यह काम अकेले मैंने दस दिन, रोज़ दस घंटे काम करके पूरा कर दिया। इन परिस्थितियों में साहित्य कुंज एक बार फिर बलि की वेदी पर पहुँच गया।

यह थी मेरी व्यथा कथा। अब आप निर्णायक हैं कि क्या मेरी प्राथमिकताएँ ग़लत थीं?

- सादर
सुमन कुमार घई

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