शब्दों और भाव-सम्प्रेषण की सीमा

प्रिय मित्रो,

दो सप्ताह का अंतराल कितना कुछ बदल देता है! आज का सम्पादकीय बहुत भारी मन से लिखने बैठा हूँ। कितना लिख पाऊँगा – मालूम नहीं। 

कोरोना की विभीषिका चरम पर है। प्रतिदिन सुबह कंप्यूटर पर व्हट्सएप या फ़ेसबुक को खोलते हुए सहम जाता हूँ कि आज न जाने किसके बिछुड़ने का समाचार मिलेगा। हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं के युगपुरुष इस महामारी की ज्वाला में विलीन हो रहे हैं। समय पर जाना तो सभी को है परन्तु इस तरह से लोगों का चले जाना विछोह की पीड़ा के साथ-साथ हताशा भी दे जाता है। अंततः प्रकृति के समक्ष मानव के बौनेपन की समझ आने लगती है। प्रायः ऐसे समय में मानव, विपदा का दोष किसी न किसी के माथे मढ़ना चाहता है। संभवतः यह स्व को सुरक्षित रखने की प्रक्रिया है या हमारी समझ की अक्षमता कि जो हमारे नियंत्रण में नहीं है, उसका होना ही अवश्य किसी का दोष होगा। इस अवस्था में पीड़ा, हताशा के साथ द्वेष, घृणा और क्रोध भी हमारी मानसिकता पर हावी होने लगता है। हमें इस काल में ऐसी भावनाओं से  बचना होगा। यह भाव सृजन को भी इस ज्वाला में स्वाह कर देगा। इससे बचने के लिए अध्यात्म ही एक मात्र शरण है। जो हुआ सो हुआ, पीड़ा है तो है, सहनशक्ति भी तो मानव के होने का अंश है। स्वीकार है प्रभु – सब स्वीकार है! तुमने जीवन का उपहार दिया है तो मृत्यु भी तुम्हारी ही रचना है। स्वयं को सुरक्षित रखने के साधन भी तुम्हारी देन हैं, और उनका सही उपयोग करना हमारा कर्तव्य है। इस युद्ध में विवेक ही हमारा कवच है। स्व और स्वजनों की सुरक्षा ही धर्म है। नियमों का पालन ही एक मात्र उपाय है। 

पिछले दिनों जिन साहित्यकारों को खोया है, उनको  विनम्र श्रद्धांजलि के साथ ही इस लघु-सम्पादकीय को विराम देता हूँ। शब्दों और भाव-सम्प्रेषण की भी एक सीमा होती है और संभवतः मैं वहाँ पहुँच चुका हूँ।

— सुमन कुमार घई

5 टिप्पणियाँ

  • 12 May, 2021 02:36 AM

    sach kaha. Bhay havi hai logon par.

  • 8 May, 2021 02:58 PM

    संवेदनशील, भावुक,एवं विचारणीय

  • समसामयिक संदर्भ में संक्षिप्त और सारगर्भित लेख

  • माननीय, इस अंक की लघु संपादकीय मुझे लगता है अन्य सभी अंकों के संपादकीय से बड़ी है। कहे गये शब्दों /वाक्यों से भी आभास हो जाता है कि लेखक कुछ और भी कहना चाहता था जो स्पष्ट कारणवश कहना जरुरी नहीं समझा या कहा नहीं गया। "प्रतिदिन सुबह कंप्यूटर पर व्हट्सएप या फ़ेसबुक को खोलते हुए सहम जाता हूँ कि आज न जाने किसके बिछुड़ने का समाचार मिलेगा। हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं के युगपुरुष इस महामारी की ज्वाला में विलीन हो रहे हैं।" इन दो हीं पंक्तियों में कोरोना त्रासदी का संपूर्ण दर्द समाहित है और वह सब कुछ कह दिया गया है जो कि एक बड़े से बड़े आलेख में भी कहा जा सकता था। सादर

  • 7 May, 2021 01:28 AM

    सच में समाचार बहुत दुखद मिल रहे हैं।

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