कोरोना का आतंक और स्टॉकहोम सिंड्रम

कोरोना के इतिहास को देखें तो वर्ल्ड हेल्थ ऑरगेनाइज़ेशन के अनुसार चीन के वुहान नगर में ३१ दिसम्बर, २०१९ को पहला केस सामने आया था और इसे नुमोनिया समझा गया था। इसका अर्थ यह है कि इसे पैदा हुए पाँच महीने हो चुके हैं। १२ जनवरी को चीन ने इसे कोविड-१९ घोषित किया और १३ जनवरी, २०२० को थाईलैंड में पहला मरीज़, चीन से बाहर किसी अन्य देश में पाया गया। इसके बाद की कहानी तो पूरा विश्व जानता है।

प्रायः अनदेखी वस्तु, अनदेखी परिस्थिति भय उत्पन्न करती है। आरम्भिक दिनों में तो यह भी समझ पाना कठिन था कि यह व्याधि किन परिस्थितियों में फैलती है। यह तो ज्ञात था कि यह संक्रामक रोग है परन्तु कितनी आसानी या कठिनाई से फैलता है यह अभी प्रकाश में नहीं आया था।

पिछले पाँच महीनों में जग बहुत कुछ जान गया है; जाग गया है।

किसी भी आपदा को स्वीकार करने में समय लगता है। मानुष की मानसिकता ही उसे स्वीकार नहीं करने देती। क्योंकि वह प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति है - उसे कुछ हो ही नहीं सकता। इसी मुग़ालते में वह प्रकृति को ही बाँधने में लगा हुआ है। जब मानव को वास्तविकता का आभास होता है तब उसे अपनी बेबसी समझ आने लगती है। अपनी विवशता को स्वीकार करने के लिए व्यक्ति कई चरणों से गुज़रता है - जो हम जी चुके हैं। हताशा, छटपटाहट, एकाकी जीवन, उकताहट, ऊबाऊपन... सभी हम सब सह चुके हैं। हम इसलिए सह जाते हैं क्योंकि मानव सामाजिक प्राणी है, उत्सवधर्मी है, उद्यमी है, इसीलिए अपनी मानसिकता की कमज़ोरियों को अँधेरे कोनों में सहेज कर रखता है। मानव समाज में अपनी पहचान को बनाए रखने के लिए नए मार्ग खोज लेता है। कहा जाता है ख़ाली दिमाग़, शैतान का घर। यह सब हम फ़ेसबुक और सोशलमीडिया पर समझदार तथाकथित प्रबुद्ध जनों की हरकतों में देख चुके हैं।

पिछले दो-तीन सप्ताहों से देखने में आ रहा है कि लोगों ने इस एकाकीपन को दूर करने का माध्यम इंटरनेट को बना लिया है। “ज़ूम” की लोकप्रियता को देखते हुए “गूगल मीट” की शुरुआत हो गई। व्यवसायिक जगत से लेकर, साहित्यिक जगत तक इसका भरपूर उपयोग हो रहा है। पारिवारिक दूरियाँ कम होने लगी हैं। “वर्क फ़्रॉम होम” पहले एक बंधन लगता था अब सुविधा लगने लगा है। एक नई जीवन पद्धिति विकसित हो रही है। जो युवतियाँ जो सज-धज कर काम पर जाती थीं वह अब केवल ज़ूम पर गप्पबाज़ी के लिए सजती हैं (?)। कल तो मेरी पत्नी नीरा मास्क लगाते हुए हँस कर बोली, “अब तो लिपस्टिक लगाने की आवश्यकता ही नहीं।” साहित्यिक दृष्टिकोण से देखा जाए “मास्क” का अर्थ मुखौटा है जो कि नकारात्मक प्रतीक माना जाता है। इन परिस्थितियों में “मास्क”/मुखौटा जीवन रक्षक सिद्ध हो रहा है। यानी प्रतिमान भी बदल दिए कोविड-१९ ने।

लगता है कि मैं अब कोविड – १९ से प्यार करने लगा हूँ।

स्टॉकहोम सिंड्रम इसे ही तो कहते हैं - जब अपहृत व्यक्ति अपने अपहरणकर्ता को प्यार करने लगता है, उसके साथ सुहानूभूति करने लगता है। अपहृत व्यक्ति अपने अपहरणकर्ता की बुराई में अच्छाई खोजने लगता है। सारी मानवता अपहृत है, विडम्बना है कि मानवता उत्सवधर्मी है। इसीलिए अगर भारत में बालकनी में थाली बजाई जाती है, शंखनाद किए जाते हैं तो इटली में “टकिला” की संगती लहरियाँ ज़ोर-ज़ोर से बालकनियों से गूँजती हैं। व्यंग्यकार इसमें व्यंग्य खोज लेता है; पन्नों के पन्ने रच देता है। समाचारपत्र इनको प्रकाशित करके प्रसन्न होते हैं। राजनीति के फ़ेसबुकिया विशेषज्ञ सरकार की निष्क्रियता की आलोचना कर के अपने मन भी भड़ास निकाल कर चैन की साँस लेते हैं। सरकार समर्थक इन विशेषज्ञों को गालियाँ निकाल उतनी चैन से सोते हैं, जितनी चैन से विशेषज्ञ।  इस आपदा के समय में कोई तो विषय मिला सब सृजनधर्मियों को! कितने व्यस्त है! लोग मर रह हैं और यह लोग उनकी चिताओं पर अपनी रोटियाँ सेंक रहे हैं। दुनिया की कौन सी सरकार होगी जो इन परिस्थितियों जान बूझ कर हाथ पर हाथ धर कर बैठेगी? फिर यह आलोचना कैसी और सरकार का बचाव कैसे? 

गंभीर साहित्यकार, या साहित्यिक आयोजक भी बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। काव्य गोष्ठियाँ अब अंतरराष्ट्रीय हो गई हैं। परिचर्चाएँ, साक्षात्कार आदि में भी कोविड-१९ ने नव-प्राण फूँक दिए हैं। साहित्य-जगत की जिन हस्तियों के केवल हम लोग नाम ही सुनते थे अब वो साक्षात हमारे साथ मंच नहीं स्क्रीन साझा कर रहे हैं। अब मैं भी छाती ठोंक कर / पीट कर कह सकता हूँ कि मैंने फलाँ साहित्यकार से एक ही स्क्रीन पर काव्य-पाठ किया है। 

साहित्यकार इस काल का सबसे ईमानदार प्राणी पुनः प्रमाणित हो रहा है। कोरोना से आक्रांत स्वर शब्दों का रूप ले रहे हैं। यह ऐतिहासिक काल है। रचनाओं में पीड़ा है, बेबसी है, बदहवासी है- कोविड का भय स्याही बन कर बह रहा है। मनुष्य दुःखद परिस्थितियों में भी सुख की अनुभूति खोज लेता है और जीवित रहता है। मेरा यह संपादकीय अपने विषय से बिल्कुल भी भटका नहीं है। पिछले ही सप्ताह एक परिचित वृद्धा की मृत्यु कोविड-१९ से हुई है। पीड़ा से परिचित हूँ - पर उत्सवधर्मी हूँ। दुःख की ओर पीठ करके सुख को देख रहा हूँ। कोविड ने मृत्यु दी है तो मानव को झकझोर कर उसे उसकी औक़ात भी दिखा दी है। घरों में बंद कर पारिवारिक रिश्तों की याद दिला दी है। भय के साथ जीना सिखा दिया है। जीवन की निरर्थक प्रतिस्पर्धा को रोक दिया है। उपभोक्तावाद पर विराम लगा हुआ है। मित्रों की मित्रता का मूल्य अब इन्सान जान रहा है। असहाय व्यक्तियों की सहायता करने का भाव अंकुरित होने लगा है। 

मैं कोविड – १९ से प्यार करने लगा हूँ। मृत्यु तो निश्चित है- भयभीत होकर नहीं सावधानी से जिया जाए। शायद स्टॉकहोम सिंड्रम से पीड़ित हूँ।

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