ज़िन्दगी के उत्सव में छिपी विडंबनाओं का सशक्त चित्रण - "दौड़"

29-04-2015

ज़िन्दगी के उत्सव में छिपी विडंबनाओं का सशक्त चित्रण - "दौड़"

दीप्ति शर्मा

वर्तमान वैश्वीकरण के दौर में बाज़ारवाद के चलते अर्थ पर आधारित भौतिकवादी सभ्यता का विकास तीव्र गति से हो रहा है। आज गलाकाट प्रतियोगिता के बीच अधिकाधिक सुख सुविधा का भोग करना ही जीवन का लक्ष्य बन गया है। फलत: मनुष्य एक वस्तु बनकर रह गया है। इस बाज़ारवाद में रुपयों के साथ-साथ मनुष्य का भी अवमूल्यन हो गया है। यही है इस बाज़ारवाद के पीछे छिपी भयावहता। वर्तमान दौर में अर्थ ने सभी स्नेहिल संबंधों को कुचल सा दिया है। रिश्ते जिल्दबंद किताब न रहकर आलपिन लगे पन्नों से बन गये है जो हवा के हल्के झोकें से ही फड़फड़ा कर आल्पिन से अलग हो जाते हैं। अत: मनुष्य "सर्व" से सिमटकर "स्व" में केन्द्रित होकर रह गया है। इस स्थिति में रिश्ते तो वही हैं अर्थात् रिश्तों के बोझ को ढोने वाले शब्द तो वही हैं किन्तु अर्थ के मायने बदल गये हैं। इससे स्वयं को निर्दोष साबित करने के लिए आज का युवा "कैरियररिज़्म" का छद्म आवरण ओढ़े हुए है। साथ ही इन स्थितियों के दुष्परिणामों से अनजान है। "ममता कालिया का अधुनातन उपन्यास "दौड़" जीवन के उत्सव में छिपी इन्हीं विडंबनाओं का अत्यंत बारीकी से जायज़ा लेने वाला सशक्त उपन्यास है। ममता कालिया ने राकेश-रेखा, पवन-स्टैला, अभिषेक-राजुल एवं सघन के इर्द गिर्द ऐसी कथा बुनी है जो शहरों की तेज़ दौड़ती ज़िन्दगी में सामान्य होती जा रही है। माता-पिता पहले तो अपने बच्चों को इस दौड़ में धकेल देते हैं उन्हें सबसे आगे देखना चाहते हैं, लेकिन इस दौड़ में जब वे इतने आगे निकल जाते हैं कि उन्हें पहचान पाना मुश्किल हो जाता है तो उनकी व्यथा बढ़ जाती है।"

राकेश अपने बड़े बेटे को अपनें जैसा "आदर्शवादी" नहीं बनाना चाहते हैं इसीलिए उसे एम.बी.ए.करवाते हैं। पवन भी कैरियररिज़्म की अंधी दौड़ में शामिल हो अभिमन्यु बन जाता है। जिसे इन कंपनियों के चक्र में प्रवेश की विधि तो ज्ञात है किन्तु पुन: निकल पाना उसके लिए असंभव है। वही दूसरी ओर राकेश के मन में अपनें छोटे बेटे सघन को पवन से भी आधिक कामयाब देखने की ख़्वाहिश है। सघन भी विदेशी वायरल की चपेट में आकर ताईवान चला जाता है। हद तो तब हो जाती है जब उसके पिता उससे वहाँ की गन्दी राजनीति के चक्कर को छोड़कर अपने मुल्क वापस आने को कहते हैं किन्तु सघन तो इसके बदले भी पिता से 30-40 लाख रुपयों की माँग करता है। पिता इतनी भारी राशि देने में जब अपनी असमर्थता जताते है तो सघन अपने ही पिता से उनके जीवन में किये गये व्ययों का हिसाब माँगने में किंचित भी नहीं हिचकिचाता। दूसरी ओर शरद है जिसे कंपनी में मिलने वाली हर प्रकार की फजीहत बर्दाश्त है किन्तु अपने पिता द्वारा की कही गयी छोटी सी बात भी उसके स्वाभिमान को चोट पहुँचाती है। जिसे शरद कभी भी बर्दाश्त नहीं कर सकता।

आज के इस करियररिज़्म के कुरुक्षेत्र में माता- पिता की अवस्था भीष्म के समान हो गयी है। ये उन लोगों द्वारा ही उपेक्षा के पात्र बन गये हैं, जिन पर इनका सर्वाधिक स्नेह है। युवा पीढ़ी भौतिकतावादी संस्कृति के चलते अपने परिजनों को समस्त संसाधन उपलब्ध करा कर अपने कर्तव्यों की इति श्री कर देती है। लेकिन वास्तव में जिस प्यार, सौहार्द, अपनेपन कि उन्हें सर्वाधिक आवश्यकता होती है उसी से उन्हें वंचित कर आजीवन अकेलापन दे दिया जाता है। कॉलोनी के सोनी जी की मृत्यु की सूचना जब उनके इकलौते सुपुत्र सिद्धार्थ को दी जाती है तो वह कैरियर ओरिएण्टल युवक अपनी माँ से फोन पर कहता है किब "हम सब तो आज लुट गये ममा। आप ऐसा कीजिये इस किसी को बेटा बनाकर दाह संस्कार करवा दीजिये। और घर को अनजान लोगों के लिए खुला मत छोड़ियेगा।"1

भारतीय समाज एक पुत्र की लालसा इसीलिये रखता है ताकि एक दिन वह अपने माता पिता को मुखाग्नि देकर उन्हें मोक्ष प्रदान करे। कितु सिद्धार्थ जैसे सुपुत्र माता-पिता के जीवित रहते तो दूर मरने के पश्चात् भी अपने पुत्र धर्म का पालन नहीं कर सकते। ऐसे मार्मिक क्षणों में माँ को हिम्मत दिलाने की बजाये बेटा किराये पे लेने और घर का ध्यान रखने के लिए कहा जाता है। यहाँ तो मानवीय संवेदनाओं का ह्रास अपने चरम पर पहुँच जाता है। भविष्य में इसके स्वरूप की कल्पना मात्र से ही रूह काँप उठती है। उपभोक्तावाद, बाज़ारवाद, व्यवसायीकरण की चकाचौंध में उलझ कर आज का युवा वर्ग उस अमूल्य निधि को नष्ट करने पर तुला है जिसे वह किसी भी मायने में प्राप्त नहीं कर सकता। क्या सिद्धार्थ अपने पिता को पुन: लौटा सकता है? क्या वह अपनी माँ के दिल पर दिये गये घावों पर किसी भी प्रकार का कोई मरहम लगा सकता है? यदि इसी "कैरियरिज़्म" की आड़ लेकर परिजन भी अपनें कर्तव्यों से मुँह मोड़ लें तो क्या सिद्धार्थ जैसे लोगों का कुछ अस्तित्व रह जाएगा? इस वाकये से अकेले रह रहे कॉलोनी के लोग इतने भयभीत हैं कि अपनी मृत्युपरांत काम आने वाले सामान की शॉपिंग स्वयं ही करने को विवश हो जाते हैं, यहाँ तक की गौ-दान भी वे स्वयं अपने जीवित रहते ही करते है ताकि उनके जाने के बाद किसी को भी कोई परशानी ना हो। ये कैसी विडम्बना है? क्योंकि उन सभी लोगों के मन में अपने ही बच्चों के प्रति विश्वास के स्थान पर शंका घर कर गयी है। उन्होंने तो इस बात की उम्मीद भी छोड़ दी है कि मृत्यु के समय उनके बच्चें पहुँच भी पाएँगे या नहीं? यदि पहुँच भी गये तो उनका क्रिया-कर्म विधिवत पूर्ण करेंगें भी या नहीं? क्या आज का युवा वर्ग इस अंधी दौड़ में इस खोये हुए विश्वास को पुन: प्राप्त करने की क्षमता रखता है? क्या यह युवा वर्ग भविष्य में अपने बच्चों से किसी भी प्रकार की उम्मीद लगाने का हक़दार है?

उपभोक्तावादी संस्कृति के बहाव में युवा वर्ग इतना आगे बह चुका है कि पैसों से लेकर रिश्तों तक और मानवीय संवेदना से लेकर अध्यात्म तक कुछ भी अछूता नहीं रह गया है। भारतीय संस्कृति ही नहीं इस बात को सम्पूर्ण विश्व की सभ्यताएँ स्वीकारती हैं कि "जननि जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसे" किन्तु पवन को यह सब कोरा आदर्शवाद लगता है। उसके लिये वहीं उसका शहर है जहाँ से उसे पैसा प्राप्त हो जहाँ से सफलता के एक पायदान को पार किया जा सके। पवन अपनें शहर में नौकरी करना ही नहीं चाहता क्योंकि "यहाँ उसके लायक नौकरी है कहाँ"2। उसके लिए संस्कृति कोई मायने नहीं रखती उसे तो कंज़्य़ूमर-कल्चर चाहिये।

पवन अपने शहर इलाहाबाद आता है तो अपनी माँ से वहाँ के पानी के लिए कहता है कि " तब से अब तक गंगाजी में न जाने कितना मल-मूत्र विसर्जित हो चुका है। मै यों कहूँगा यह पानी आपके लिए भी घातक है। एक्वागार्ड क्यों नहीं लगाते"3

पवन के लिए अपने ही शहर का पानी विषतुल्य हो गया है जिसे पीकर ही वह इतना बड़ा हुआ और जिस पानी को उसकी माँ गंगाजल मानती है। पवन अपने देश में ही परदेसी हो गया। इस नवीन हवा ने रिश्तों की परिभाषा ही बदल दी है। आज माँ का अपने बच्चों के प्रति प्रेम उसके आशीष से नहीं बल्कि ग्रीटिंग कार्ड के सामान्य कागज़ के टुकड़े से जाना जाता है।

उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते समस्त मानवीय संवेदनाओं का निरंतर ह्रास होता जा रहा है। पवन विवाह के पश्चात् अपनी पुरानी नौकरी छोड़कर चेन्नई जा रहा है और उसकी नवविवाहिता पत्नी स्टैला अहमदाबाद में रहकर अपना व्यवसाय सँभालेगी। इस पर उसके पिता राकेश कहते हैं कि "तुम अपनी तरक्की के लिए अपनी पत्नी और कंपनी दोनों को छोड़ दोगे?" किन्तु पवन कहता है- "वह कम्पनी तो मेरे लायक रही ही नहीं है, और रही बात स्टैला की तो यह इन्टरनेट या फोन पर ही मुझसे बात करने का समय निकाल ले वही बहुत है।"4 आज किसी से किसी भी प्रकार की आत्मीयता नहीं रही है चाहे वह कम्पनी हो या पत्नी। सभी को केवल और केवल उपयोगिता की दृष्टि से देखा जाता है। स्टैला का चुनाव भी पवन इसीलिये करता है क्योकि वह स्वयं आर्थिक रूप से स्वतंत्र है और वह कभी भी उसकी सफलता के मार्ग में बाधा नहीं बनेगी अपितु उसकी मदद ही करेगी। वहीँ पुरानी कंपनी जिसने उसे एक आधार प्रदान किया अब वह घाटे में चल रही है तो उसे बीच में ही छोड़ कर जाना पवन को अधिक उपयुक्त लगता है। यदि पवन के स्थान पर उसके पिता राकेश होते तो शायद ही वे कंपनी को छोड़ पाते। किन्तु आज तो सभी, चाहें वह रिश्ते हो या कंपनी केवल सीढ़ी मात्र रह गये है।

इस बाज़ारवाद, भौतिकतावाद एवं उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते सभी रिश्तों का मर्म ही समाप्त हो गया है। आज रिश्ते केवल नाममात्र के रह गये है, जिन्हें प्रत्येक व्यक्ति निभाता नहीं केवल ढोता है। वे जिम्मेदारी या मज़बूरीवश ऐसा करने को बाध्य है। सघन जब पराये मुल्क में जाकर गन्दी राजनीति में फंस जाता है तो पवन इसकी सूचना अपने परिजनों को देकर अपने बड़े भाई होने की औपचारिकता पूर्ण करता है। वहीं सघन को तो इस औपचारिकता से भी परहेज़ है। वह तो वोपस अपने ही मुल्क लौट आने के लिये पिता से पैसों की माँग करता है किन्तु जब पिता इतनी भारी राशि दे पाने में अपनी असमर्थता बताते है तो सघन उनसे पाई-पाई का हिसाब माँगने से भी पीछे नही हटता है। यही है आज के रिश्तों की खोखली बुनियाद जो ताश के पत्तों के महल के समान है, जिसे हवा का हल्का सा झोंका ही धूल में मिलाने के लिए काफी है। वास्तव में यही आज के जीवन की कटु सच्चाई है, जिसमें व्यक्ति अपनी सफलता हेतु "सर्व" का होम करता है और अंत में वह स्वयं भी उसकी समिधा बन जाता है।

बदलते परिवेश में केवल माता-पिता,भाई-बहनों के रिश्तों में ही परिवर्तन नहीं आया है अपितु इसने पति पत्नी जैसे मधुर संबंधों की कसौटी को भी पलटकर रख दिया है। दाम्पत्य जीवन का केंद्र बिंदु हो गया है "आर्थिक आत्मनिर्भरता"। जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है उसी के पास समस्त अधिकार सुरक्षित है। किसी भी सफल दाम्पत्य जीवन के मूल में निहित जो सिद्धांत है वह है- "समझौता"। किन्तु यह समाज केवल स्त्री से ही समझौता, त्याग, ममता, धैर्य, सहनशीलता और समर्पण की माँग करता है। राजुल जैसी नौकरीपेशा स्त्री इस समझौतावादी दृष्टिकोण के चलते न केवल अपनी नौकरी छोडती है अपितु अपना अस्तित्व भी खो देती है और अंत में उसे पश्चाताप ही होता है। आज के दौर में स्त्री आर्थिक रूप से स्वावलम्बी है और उसका स्वयं का अपना पृथक अस्तित्व है। यदि वह भारतीय समाज की अपेक्षाओं को पूर्ण भी करती है तो सिवाय पश्चाताप, उपेक्षा एवं असुरक्षा की भावना के कुछ भी हासिल नहीं हो पायेगा। इस उपन्यास में अभिषेक और राजुल के माध्यम से लेखिका इसी भावना को स्पष्ट करने का प्रयास करती है। यदि समन्वय की बात भी करें तो आज का समन्वय "पवन और स्टैला" की भाँती एक दूसरे से दूर रहकर ही किया जा सकता है। दाम्पत्य जीवन में कोई एक पक्ष प्रधान नहीं होता, दोनों पक्षों (स्त्री-पुरुष) के समन्वित रूप को ही दाम्पत्य जीवन कहा जायेगा। किन्तु आज इस भाग-दौड़ भरे जीवन में "स्वयं" को पहचानने, समझने का समय नहीं है ऐसें में समन्वय तो कोसों दूर की बात हो जाती है। आज आध्यात्म को भी उपयोगिता की दृष्टि से देखा जाता है। पवन सरल मार्ग को को केवल इसलिए उपयुक्त समझता है कि उसे कुछ दिनों के लिए अपने काम से कुछ आराम मिल सके और उसकी पहचान प्रतिष्ठित व्यक्तियों के बीच स्थापित हो सके। क्योंकि सरल मार्ग में आने वाले व्यक्ति सामान्य लोग नहीं थे बल्कि इंजिनीयर, डॉक्टर आदि प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं।

लेखिका ने इस उपन्यास में दो पीढ़ियों के माध्यम से आज की कटु वस्तविकता को बहुत ही सहज ढंग से प्रस्तुत किया है। राकेश ऐसा व्यक्ति है जो स्वयं ही खोखली परम्पराओं एवं मान्यताओं की श्रृंखला को तोड़ता हुआ प्रेम विवाह करता है। उसकी पत्नी रेखा भी घर व स्कूल दोनों दायित्वों का निर्वाह सफलतापूर्वक करती है। दोनों ही आधुनिक हैं किन्तु अपनी नींव से जुड़े हुए हैं। वे कोई भी ऐसा मूल्य अपनी सफलता के लिए नहीं चुकाना चाहते जिसकी आजीवन भरपाई न की जा सके।

दूसरी पीढ़ी आती है पवन और सघन की जो नयी एवं विकासशील संस्कृति को तो आत्मसात करते हैं, किन्तु अपनी जड़ों से पृथक होकर। वे सभी को उपयोगिता की दृष्टि से ही देखते हैं। जो वस्तु उनके उपयोग की नहीं है वे उससे अलग हो जाता है। इसिलिये वह अपने पिताजी से कहता है- "हर पुरानी चीज आपको श्रेष्ठ लगती है, यह आपकी दृष्टि का दोष है पापा।"6 "चीजों को नई नजर से देखना सीखिए नहीं तो आप पुराने अख़बार की तरह रद्दी की टोकरी में फेंक दिए जाओगे।"7

सघन का बचपन से ही रिश्तों, आध्यात्म, दर्शन, संवेदनाओं से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। इसी पृथकतावादी दृष्टिकोण के चलते देश के भविष्य की ओर संकेत करते हुए राकेश कहते है कि "ये अपनी जड़ों से कटकर जीने वाले लड़के समाज की कैसी तस्वीर पेश करेंगे।"8 इस प्रकार निरंतर आधुनिक से उत्तर-आधुनिक बनने के चक्कर में आज का युवा अपना अस्तित्व ही खोता चला जा रहा है।

अब एक बड़ा ही कठिन प्रश्न उठ खड़ा होता है नैतिकता का। जिसे आज बहुत ही दयनीय और हेय दृष्टि से देखा जाता है। विज्ञापनों एवं मार्केटिंग के दौर में नैतिकता के प्रश्न पर अभिषेक राजुल से कहता है- "मैने आई.आए.एम. में दो साल भाड़ नहीं झोंका। आई कैन सेल ए डेड रैट। ये सच्चाई और नैतिकता सब मै दर्जा चार तक मोरल साइन्स में पढ़कर भूल चुका हूँ।"9 आज नैतिकता केवल छोटी कक्षाओं की किताबों तक ही सीमित रह गयी है, जिसे केवल परीक्षा तक ही याद रखा जाता है। इसी का परिणाम है कि आज सभी एक अंधी दौड़ में शामिल हुए जा रहे हैं, जो आज युवा हैं वह भी उनके बच्चों के सामने पिछड़ जायेंगे और केवल उनके निशां खोजते रह जायेंगें।

ममता कालिया ने "दौड़" उपन्यास में समाज के उन रिश्तों का जायज़ा लिया है जो टूटन की कगार पर है।

आज का युवा वर्ग भूमंडलीकरण की वास्तविक अवधारणाओं से परे व्यापारवाद, बाज़ारवाद की चकाचौंध में सब कुछ विस्मृत करता चला जा रहा है। सह्रदयता, संवेदना, प्रेम, रिश्तों की महत्ता इत्यादि उनके लिए कोरा आदर्शवाद बनकर रह गया है जो आज के सन्दर्भ में फलीभूत नही हो सकता। आज प्रत्येक व्यक्ति "स्व" तक सिमटकर रह गया है किन्तु अंत में वह "स्वयं" से भी वंचित रह जाता है। प्रत्येक रिश्ता एक सीढी या पड़ाव है, जिसे निरंतर पार करते जाना और पलटकर भी न देखना यही सफलता की कुंजी बन गया है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में पृथक है। इस पृथकता की अवधारणा के चलते समाज की कल्पना करना भी मूर्खता प्रतीत होती है। इस उपन्यास में पृथकता के जरिये वर्तमान एवं भविष्य के मर्म को समझाने का प्रयास किया है। निश्चित ही ऐसा प्रतीत होता है कि यह रचना जीवन के उत्सव में छिपी विडंबनाओं का सशक्त चित्रण करती है।

सन्दर्भ सूची:

1. ममता कालिया, दौड़ उपन्यास, पृष्ट संख्या- 81
2. वही, पृष्ट संख्या- 40
3. वही, पृष्ट स. – 44
4. वही, पृष्ट स. – 65
5. वही, पृष्ट स. - 45
6. वही, पृष्ट स. – 66
7. वही, पृष्ट स. – 42
8. वही, पृष्ट स. - 37

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