ज़िन्दगी है रुदन

15-06-2020

ज़िन्दगी है रुदन

अरुण कुमार प्रसाद (अंक: 158, जून द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

ज़िन्दगी है रुदन
प्रथमपात से अंत-प्रस्थान तक
रुदन ही रुदन।
जब हँसते हो आप
कोई रोता है तब
आपके हिस्से का रुदन।

 

जंगल चलने लगता है
तेरे हाथ में डालकर हाथ।
इस संसार के
उस पल का रुदन।
मुकुट पहनकर सूरज का;
वायदा करते हुए कि
तुम्हें भर दूँगा रोशनी से।
छीन लेते हो बच-खुचा,
मेरे हिस्से का सूरज।
उस पल का रुदन।

 

विस्तार के लिए
मेरे रक्त से लाल कर देते हो
जब असमान।
उस पल का रुदन।
हम खोजते हैं ईश्वर
गुफाओं में मृतवत।
तुम लेते हो हथिया,
उस पल का रुदन।

 

तुम्हारे मृत शरीर पर
चूड़ियाँ नहीं फोड़ना।
हम चाहते हैं बेपनाह हँसना।
किन्तु, सम्मोहित दिया जाता हूँ।
उस पल का रुदन।
विभाजन के समय
तुम्हें क्यों? मिल जाता है
बार-बार सिर,
मुझे चरण।
उस नद की अबाध धारा को
न रोक पाने के विवश षड्यंत्र।
उस पल का रुदन।

 

तुम्हारे स्वर्ण-दीपों में
दीवाली पर जो जलता है
वह स्नेह नहीं,
मेरे हड्डियों का फास्फोरस है।
जलन के
उस पल का रुदन।
मेरी मुस्कुराहट में
जीवन नहीं, झुँझलाहट है।
ज़िन्दगी के
उन पलों का है रुदन।

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