ज़रा उत्साह भर...
धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’इन्द्रधनुष से रंग हैं तुझमें,
फिर भी अँधेरे में है,
कोई लक्ष्य है? उद्देश्य है? जाग जा,
युक्ति ढूँढ़, मन में उमंग भर॥
तरु की जैसी देह है तेरी,
क्यों नभमंडल में देख रहा?
ख़ुद की एक पहचान बना,
आलस्य त्याग, स्मरण कर॥
आशीष पाकर स्वजनों का,
नव जीवन को प्रारंभ कर।
अधीरता के भाव को,
त्याग कर, हुंकार भर॥
हृदय तेरा उपवन सा है,
सुगंध तेरी बातों में है।
उज्ज्वल हो जीवन तेरा,
रोष त्याग, संकल्प कर॥
ख़ामोशी से, चंचल मन को,
चपला से चातुर्य भाव में।
खरा उतर अपने पथ पर,
उठ जा, ज़रा उत्साह भर॥