ज़हर का पौधा
डॉ. कन्हैया त्रिपाठीपात्र-परिचय
मुस्ताक : एक लगभग 40 वर्षीय व्यक्ति
शांति : हिंदू, आयु-लगभग 32-35 वर्ष, पति मर चुका है
आदित्य : उपनाम- आदी, शांति का इकलौता पुत्र, आयु-लगभग 8 वर्ष
अन्य कुछ व्यक्ति : आयु- लगभग 35-45 वर्ष
नेताजी : राजनैतिक, आयु-लगभग- 65 वर्ष
मेहरूनिस्सा : मुस्ताक की बीवी, आयु-लगभग-35 वर्ष
अख़्तर : मुस्ताक का पुत्र, आयु-22 वर्ष
प्रथम दृश्य
(रात के आठ बजे हैं लेकिन शहर सुनसान है। रात की सुनसान में कोई आवाज़ नहीं है, बस अद्भुत सन्नाटा और अगर आवाज़ भी कोई आ रही है तो कुत्तों के भौकने की आवाज़। शांत, स्तब्ध शहर.........कर्फ़्यू सा वातावरण। इसी बीच शहर के एक ओर से बम विस्फोट होने की आवाज़ आती है, और उसी के साथ कुछ शोर, चीख और क्रंदन। कुछ लोगों के दौड़ने की आवाज़, कुछ आवाज़ - पकड़ लो, पकड़ लो ........ उसी बीच एक आदमी दौड़ते हुए आता है और दरवाज़ा खटखटाता है, पीटता है)
(खटखटाने, पीटने की आवाज़)
एक महिला की आवाज़:
कौन,........(दरवाज़े के भीतर से) कौन हो तुम?
(बाहर खड़ा आदमी दरवाज़ा पीटता हुआ, कुछ थर्राहट के साथ भयभीत आदमी की आवाज़)
दरवाज़े पर खड़ा आदमी :
मैं हूँ बहन, ......दरवाज़ा खोलो (हड़बड़ाया सा वह बोलता है).......मैं हूँ मुस्ताक।
महिला :
देखो मुस्ताक,.........अभी चले जाओ! नहीं तो .........
मुस्ताक :
नहीं शान्ति बहन, दरवाज़ा खोलो!...... नहीं तो ये लोग मार देंगे मुझे। दरवाज़ा खोलो बहन!.....खोलो।
शांति :
(दरवाज़ा खोलते हुए) ....... लेकिन कहीं तुम.....।
मुस्ताक :
बचा लो बहन......।
(बाहर दरवाज़ा खुलने पर...... मुस्ताक तेज़ी से अन्दर हो जाता है.....कुछ रोने की आवाज़...... दौड़ते हुए लोगों के पदचाप की ध्वनि)
मुस्ताक :
........वो लोग .......।
(शांति दरवाज़े पर खड़ी है...........तब तक कुछ लोग दौड़ते हुए यह कहते आ रहे हैं- इधर ही गया, उस घर पर पूछो।)
एक :
(शांति से) इधर कोई दाढ़ी वाला आया है?
शांति :
(कुछ अटपटाते हुए)
नऽऽ न...... नहीं तो।.........इधर कोई नहीं आया।
(भीड़ दौड़ते हुए आगे बढ़ जाती है)
अन्य व्यक्ति :
पकड़ लो.......जाने न पाये.........साला।
(कई लोगों के दौड़ने की आवाज़)
मुस्ताक :
आपने मुझे बचाकर एहसान किया है, उसका...........
शांति :
(बात छीनते हुए)
कोई बात नहीं, यह हमारा फ़र्ज़ था मुस्ताक भाई!......और अब क्या कहें, इन नासमझों को।
मुस्ताक :
फिर भी.........(मुस्ताक एक ओर बैठ जाता है)
शांति :
आदी, आदी बेटा! थोड़ा गिलास में पानी लाना।
आदित्य :
अच्छा माँ
(आदित्य गिलास में पानी लेकर आता है तथा शांति अपने किचन में जाकर टिफिन देखती है और वहीं से आवाज़ देते हुए आती हुई कुछ पल में)
शांति :
मुस्ताक भाई!.......ये लीजिए कुछ खाना बचा है, खा लीजिए।
मुस्ताक :
नहीं शांति बहन। बस आपने मेरी जान बचा ली इतना ही बहुत है।
आदित्य :
खा लो अंकल! थोड़ा सा खा लो।
शांति :
ये लीजिए रोटी, और ये ..... ओ क्या है न, कि आज सत्रह दिन से कर्फ़्यू लगा है। सब्जी वगैरह थी नहीं, बस यही चटनी बनायी थी।
मुस्ताक :
चटनी, रोटी भी अच्छी होती है शांति बहन! ख़ुदा आपको सलामत रखे।
शांति :
क्या सलामत की बात करते हो भाई, न जाने क्या हो गया है लोगों को, आज़ सत्रह दिन से पूरा शहर जल रहा है।..........न जाने लोग क्या चाहते हैं? अब तुम्हीं बताओ मुस्ताक भाई! ई खून ख़राबा करके क्या पायेंगे लोग?
मुस्ताक :
(जैसे रोटी भरी हो मुँह में और वह बात कर रहा हो)
सच कहती हो शांति बहन। गोबर भर गया है इनके दिमाग में। धर्म व मज़हब के नाम पर लड़़ रहे हैं। पता नहीं क्या मिल जाएगा इन्हें मन्दिर या मस्जिद बनाकर?
शांति :
(थोड़ा ऊपर आवाज़ में बिस्तर सहेजते हुए)
पानी गिलास में है मुस्ताक भाई, पी लीजिए और यहीं आकर सो जाइएगा। ये बिस्तर लगा देती हूँ।
मुस्ताक :
(मुस्ताक पानी पीता है और फिर चारपायी पर बैठते हुए)
.......हूँ,...... नींद तो आती नहीं।
शांति :
आदी! बेटा तुम भी सो जाओ। मैं भी सोती हूँ, अच्छा। मुस्ताक भाई! ........लैम्प बुझा लेना।
(कुछ ही पल में नींद की आगोश में, नाक बजने की आवाज़, आदित्य अचानक बोलता है।)
आदित्य :
...........मुझे नींद नहीं आती मम्मा।
शांति :
आएगी बेटा, सो जाओ।
(कुछ आवाज़, भगदड़ के साथ)
......जो मुझसे टकराएगा, चूर-चूर हो जाएगा। मारो, मारो सालों को
(गोली की आवाज़)।
आदित्य :
देखो मम्मा, कोई आ रहा है।
शांति :
नहीं बेटा, यहाँ नहीं कोई आ रहा है। (आदित्य का सिर सहलाते हुए) वो गोलू वाली गली में हैं लोग।
आदित्य :
मम्मा!.......ये लोग हिंदू और मुसलमान हैं इसलिए आपस में ये सब कर रहे हैं? क्या हिंदू और मुसलमान दोनों........
शांति :
चुप हो जा बेटा, सो जा।
(मुस्ताक के नाक की आवाज़ जैसे सुनाई दे रही हो)
देखो मुस्ताक भाई सो गये, तुम भी सो जाओ।
आदित्य :
मम्मी!.........
(डरा सा)
छुपा लो मुझे।.......मुझे डर लग रहा है। मम्मा जैसे मुझे लग रहा है............।
शांति :
(रूखी सी आवाज़)
चुपकर, सो जाओ अब। अच्छा लो, मैं तुम्हारा सिर सहला देती हूँ।
आदित्य :
........नहीं माँ मुझे डर लग रहा है।
शांति :
(आदित्य थोड़ा नींद में जैसे होता है ख़ुद से बड़बड़ाती है)
क्या हो गया है, इस लड़के को? अच्छा, लगता है सो गया। .......हूँ, अब मै भी सोती हूँ। हूँ....
(आदित्य और शांति के सोने के साथ, बाहर से कुछ लोगों के दौड़ते हुए जाने की आवाज़। एकाएक मुस्ताक की नींद खुलती है)
मुस्ताक :
(बाहर झाँककर ख़ुद से)
चाँद तो ढलने वाला है। लगता हैं कि बारह बज चुके हैं।
एक :
मैंने....... जला दिया...........मुस्ताक का..... साला आशियाना बनाते हैं यहाँ और.......
दूसरी आवाज़:
अच्छा किया, एक-एक को ख़ाक कर देना है।.........साले रहते हैं हिन्दुस्तान में और गाते हैं पाकिस्तान की।
मुस्ताक :
क्या, क्या मेरा आशियाना जला,
(बौखलाकर)
मेरा घर जला दिया, मेरी मेहरूनिस्सा, शबाना, अख़्तर को ...........।.......मैं भी नहीं छोड़ूँगा इन्हें। मैं भी असली मुसलमान हूँ...... नहीं छोड़ूँगा....मैं भी ........
(सामने रखा चाकू देखकर)
वो है चाकू, लो मैं यहीं से शुरू करूँगा। अल्लाह .........
(आदित्य के पेट में चाकू घोंप देता है। एक अजीब सी छटपटाहट और चीख के साथ)
आदित्य :
आह, माँ........ हूँ, हुंह।
(इसी के साथ दम तोड़ देता है आदित्य और चीख को सुन कर शान्ति दौड़कर आदित्य के पास पहुँचती है)
शान्ति :
आदी
(एक तीव्र चीख),
आदी मेरे बेटे, अभाऽऽऽगे ने ले ली मेरी आदित्य की जान (उं हुं हूं हू........-रोती है )। आदी, अरे रा.....म...ऽऽऽऽ, क्या बिगाड़ा था तेरा मेरे बेटे ने, आ हा ऽऽऽऽ। नहीं,..... । मार दिया जल्लाद ने। मेरे लाल ऽ..ऽऽ को (रोती है)।
दूसरा दृश्य
मुस्ताक :
(फूट-फूटकर रोता हुआ मुस्ताक)
जला दिया जाहिलों ने।....... मेरे ज़िगर के टुकड़ों ........और मेरी महबूबा को जला दिया।
(रोता है)
नहींऽऽऽ।
(कुछ लोगों की भीड़ जैसे घेर ले उसे एक कोलाहल)
........अब, अब मैं एक-एक को जला दूँगा। ये हिंदू लोगों का हमने क्या बिगाड़ा था......हमने? ये तो शबाना का कपड़ा है। ...और ये साड़ी, ये साड़ी तो........। जला दिया सबने
(रोता हुए बाहर निकलता है, अपनी बस्ती की ओर संकेत करके)।
.....और, और तुम सब! खड़े-खड़े देखते रहे। लानत है ऐसी कौम पर।......लानत है तुम्हारे मुसलमां.....होने पर। ......बरबाद हो गया मैं।
(बाहर जमा होती भीड़ से)
अरे खड़े-खड़े मेरा मुँह क्या देख रहे हो?.......अगर है तुम सबमें इस्लाम का खून तो कर दो सफ़ाया एक तरफ़ से ...............!
भीड़ से एक :
हाँ, मुस्ताक भाई सही कह रहे हैं।
दूसरा :
हाँ, इस तरह तो हम सबका यही हाल होना है।
तीसरा :
आप अकेले नहीं हो मुस्ताक भाई! हम सब आपके साथ हैं।
(इसी बीच एक नेताजी का आगमन, भीड़ नेताजी की ओर बढ़ती है कुछ बात करते हुए)
नेता :
साथियों! शांत हो जाइए। ......मैंने सब सुन लिया है। देखिए, तीन हफ्ते से जो माहौल है, वह अच्छा नहीं है। आप लोगों के सामने अमन-चैन के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। और आप लोग मिलकर.........
मुस्ताक :
.......क्या मिलकर.... ख़ाक, नेताजी! चले जाओ। देख लिया तुम्हारी भाईगिरी। तुम भी हिंदू हो! क्या बिगाड़ा था हमने जो.......
(रोता है)
जो मेरी हँसती-खेलती ज़िन्दगी में आग लगा दिया उन लोगों ने। चले जाओ .....नहीं तो...
.(मारने के लिए दौड़ता है)
एक सामूहिक स्वर:
........नहीं......।
(एक नवजवान का तेज़ी से आगमन)
अख़्तर :
चुप रहो सभी। मैं..........
मुस्ताक :
अरे .......अख़्तर बेटे! तुम ज़िन्दा हो?
मेहरूनिस्सा :
लेकिन तुम ज़िन्दा हो.....यह मेरे लिए शर्म की बात है। .......आई हेट यू! मै तुमसे नफ़रत करती हूँ, मुस्ताक मियां। तुम इस कदर गिर जाओगे, यह मुझे पता भी नहीं था।
मुस्ताक :
मेहरूनिऽऽऽ!
मेहरूनिस्सा :
चुपकर, मत लो अपनी नापाक ज़ुबां से मेरा नाम। ऐसे हत्यारों से नहीं कुछ रिश्ता हो सकता मेरा। और सभी सुन लो - तुम सभी इस्लाम के लिए कलंक हो।.......तुम सब इन्सान नहीं,..... हैवान हो। अब मैं जान चुकी हूँ कि सत्रह दिनों से क्या चल रहा है? क्यों हमारा जीवन अभिशाप बन गया है?.........तुम्हारे ही जैसे बिगाड़ते हैं माहौल। साम्प्रदायिकता की जड़ तुम हो, तुम!
अख़्तर :
सच बात है अब्बू! आख़िर क्या बिगाड़ा था तुम्हारा उस आठ बरस के आदी ने? तुम मेरे मरने के प्रतिशोध में, मेरे ख़ातिर मार दिए न, आदित्य को। तो लो, मैं भी......( चाकू से स्वयं को मारने की कोशिश करता है, लेकिन मेहरूनिस्सा उसे पकड़ लेती है)।
मेहरूनिस्सा :
नहीं अख़्तर! इन ज़हर बन गये लोगों का ज़वाब यह नहीं है। इन कट्टरपंथियों, ज़ाहिलों व मज़हब के नाम पर गिर चुके लोगों का ज़वाब यह कतई नहीं है। शरम और हया खो दिये हैं ये लोग,........पी गये हैं सब धोकर। मानवता के लिए इन कलंकियों का ज़वाब इस तरह........ख़ुद को चाकू से समाप्त कर लेना नहीं है अख़्तर!
नेता :
सच कहती हो मेहरूनिस्सा। आज......
मेहरूनिस्सा :
तुम भी उन्हीं में से एक हो नेताजी! तुम्हारी भी वज़ह से अभिशप्त हो चुकी है यह पृथ्वी।.........तुम लोगों ने जनता को गुमराह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। .....और, और ये इस्लाम के ठेकेदार
(दाँत पीसते हुए)!
इनको क्या कहें? खो दिये है ये लोग एक मुसलमान के वसूल को। देशभर में जो बार-बार धर्म के नाम पर होता रहा उसका यही सच है।........यही सच है कि ये शक्ति के पर्याय बन चुके मर्द कभी बच्चे को चाकू का निशाना बनाते हैं, तो कभी महिलाओं की लूटते हैं इज़्ज़त। अरे अगर अपनी मर्दानगी दिखानी ही है, तो गरीबों, भूखे को रोटी के लिए, दिखाओ। ख़त्म करो बेरोज़गारी का अभिशाप। अरे, नहीं देखी जाती, नहीं सही जाती तुम्हारी यह अभिशप्त नामर्दगी जिससे तुम देश का अमन-चैन छीनते हो। धिक्कार है तुम्हें, छिः।
नेताजी :
हम तुम्हारे बात का बुरा नहीं मान रहे हैं। भाइयों! ये गांधी....
मेहरूनिस्सा :
मत लो अपनी नापाक जुबां से गांधी और कबीर का भी नाम। तुम सब गांधी और कबीर के नाम पर राजनीति करते हो, और भुगतती है जनता। ये आग हमारे देश के नेता लगाते हैं और फिर चले आते हैं गांधी और कबीर का संदेश सुनाने। गांधी और कबीर के बारे में कुछ जानते हो? क्या यही है अहिंसा का मतलब? क्या यही है मोहम्मद साहब का संदेश? क्या यह है हमारी पहचान जो सत्रह दिन से हो रहा है? बताओ इन बुज़दिलों को, जो अपने आशियाने की आग को किसी के खून से सींचते हैं। इन सबको, जो खून-खराबे के प्यासे हैं।
तीसरा दृश्य
(पुनः रात का समय, एक पदचाप। किसी के दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़। अंदर से ही रोने की आवाज़)
शांति :
.....कौन है? ......नहीं खुले...गा दरवाज़ा।
(दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़।)
कौन ......
(दरवाज़ा जैसे ही खोलती है सामने मुस्ताक खड़ा मिलता है। शांति हैरान हो जाती है।)
अब क्या बाकी है तुमऽऽहारा?
(रोती है)
छीनकर मेरे आदी का नहीं भरा क्या तुम्हारा पेट?
(उसका हाथ पकड़कर खींचते हुए)
लो मुझे भी मार दो। अरे, .......एक ही तो मेरा चिराग था, ......उसे भी तुमने बुझा दिया। हे रामऽऽऽहऽह
(रोती है)
अब मैं किसके सहारे .......
(........ रोने की आवाज, मुस्ताक को झकझोरते हुए़)
आख़िर क्या बिगाड़ा था, बोलो, बोलो! आख़िर क्या पाया तुमने उसे मारकर? लो मुझे भी मार ऽ ऽ ऽ....!
मुस्ताक :
शांति बहन।
शांति :
मत लो मेरा नाम, मत कहो मुझे बहन। बताओ तुम्हें क्या मिला मेरे आदित्य को मारकर? बताओ........
मुस्ताक :
देखो शांति......
शांति :
(रोते हुए) नहीं.....ऽऽऽ .....मेरा आदी, मेरा लाल। भगवान, तुमने मेरे साथ क्यों अन्याय किया। अरे, क्या बिगाड़ा था मैंने ? कौन से जनम का पाप था जो मेरे हिस्से दिया (रोती है)?
मुस्ताक :
मैं जा रहा हूँ शांति बहन, लेकिन मुझे हो सके तो ............
शांति :
माफ कर दो, तुम यही कहोगे
(रोते हुए).....
मैं सब जानती हूँ। लेकिन...........
मुस्ताक :
हाँ बहन! मैं......
शांति :
छोड़ो, बंद करो ये बहन-भाई का नाटक। बहुत हो गया...
मुस्ताक :
(रोते हुए, घुटने के बल बैठा हुआ मुस्ताक)
माफ कर दो बहन! ख़ुदा के लिए माफ कर दो। मैं दोषी हूँ। आदित्य का कातिल हूँ। अब मुझे......
शांति :
चले जाओ.......तुम यहाँ से, मत दिखाना चेहरा, चले...........(रोते हुए)।
मुस्ताक :
जाता हूँ।......मैं जाता हूँ। अब नहीं दिखाऊँगा मैं तुम्हें.....।
चौथा दृश्य
(शांति का घर, रात का ही समय। शांति के सामने एक महिला)
मेहरूनिस्सा :
मैं मेहरूनिस्सा हूँ। मुसलमान हूँ। आपके पास आयी हूँ। अगर आप इज़ाज़त दें तो मैं कुछ बात......आपके सामने रखूँ।
शांति :
(रुंधी सी आवाज़ में)
तुम मुसलमान जरूर हो, मेहरूनिस्सा! लेकिन एक स्त्री भी हो।
मेहरूनिस्सा :
हाँ, मैं स्त्री हूँ। मैं एक स्त्री के दर्द को समझ सकती हूँ, शांति बहन! ....और एक माँ भी हूँ। मैं.....
शांति :
लेकिन.........आप ही बताओ......
मेहरूनिस्सा :
मुझे आप पर जो बीती है, सब पता है। मुझे यह बताते हुए शर्म आती है कि मैं उस क़ातिल की बीवी हूँ जिसने आदित्य का क़त्ल किया है। आदी के साथ जो कुछ हुआ वह ग़लत हुआ। मैं माफी चाहती हूँ। ऐसा मत समझिए कि मैं आपके जले पर ........। आदी मेरा भी बेटा था।
शांति :
नहीं मेहरूनिस्सा!
(बिल्कुल दुखी, रुंधी-रुंधी सी आवाज़, किन्तु स्पष्ट भाव से)
इसमें तुम केवल मुस्ताक की ग़लती मत समझो। इसमें मेरे धर्म के लोग भी उतने ही ज़ेम्मेदार हैं जितना मुस्ताक या मुसलमान भाई। ये तो ज़हर का बीज है बहन! बोए चाहे जो कोई भी असर तो सबके ऊपर करेगा।
मेहरूनिस्सा :
अगर इसी बात को हमारे बीच रहने वाले आवाम समझ लेते तो शायद...
शांति :
मैं भी वही बात कह रही हूँ मेहरूनिस्सा! गोधरा में जो कुछ हुआ, वह... क्या हुआ? अगर हम किसी एक को दोषी ठहराएँ तो नाइन्साफ़ी होगी। मेहरू! अब मुझे सब समझ में आ गया है। मेरे आदी को मारने वाले ग़लत नहीं हैं। मुझे अपना ख़ून होने के कारण पूरा-पूरा दुःख हो सकता है लेकिन, लेकिन क्या तब सही हुआ जब केवल मुसलमान होने के नाते एक नव जवान औरत के पेट में यही हमारे हिंदू भाई कटार से वार किए,..... और उस तड़पती हुई औरत के पेट से..... उस भ्रूण को एक हाथ में लेकर......दूसरे हाथ की कटार से.... सिर और धड़ को अलग-अलग कर दिए? क्या वह सही था? बिल्कुल नहीं मेहरूनिस्सा, बिल्कुल नहीं। अगर एक मुसलमान ने मेरे आदी के पेट में छूरा घोपकर उसे मौत के घाट उतार दिया, तो ग़लत नहीं है।
मेहरू बहन! यह आदी मरा नहीं है, बलिदान हुआ है। साम्प्रदायिकता की जकड़नों से जकड़े समाज को मुक्त करने के लिए ......वह बलिदान हुआ है। मेरा लड़का इस कुत्सित विचारधारा के दमन हेतु बलिदान हुआ है।.........बलिदान होना होगा मेहरू,....... बलिदान करना होगा। तभी यह समाज अमन व चैन, भाईचारगी के रस्ते पर वापस होगा।
मेहरूनिस्सा :
लेकिन.......
शांति :
लेकिन, वोकिन कुछ नहीं, बलिदान होना होगा! बलिदान करना होगा। धर्म और मज़हब के नाम पर हो रहे अत्याचार, अनाचार व पाप के ख़िलाफ़ जंग के लिए ...........।
मेहरूनिस्सा :
आप तो............
शांति :
इसमें कोई महानता नहीं। चोटें खाकर ही इन्सान सुधरता है।
मेहरूनिस्सा :
शांति बहन ! ......सचमुच।
शांति :
और अब तुम यह भी जानना चाहोगी, कि मैं कैसे पत्थर बन गयी?.... तो पहले यह जान लो किसी ने पत्थर से पूछा कि तुम कैसे पत्थर बन गये? तो क्या ज़बाब था पत्थर का, जानती हो? पत्थर ने कहा-हवा और पानी के थपेड़े सह-सहकर। और आज मैं भी जो पत्थर बनीं हूँ। इसकी भी एक कहानी है। मेरी भी कहानी पत्थर जैसी है।........मैं बचपन से झेलते आयी हूँ, इस समाज को। छोटी थी तभी मॉँ-बाप मर गये। बचपना जैसे गया इसी समाज के लोगों ने मेरे साथ क्या-क्या नहीं किया? पक चुकी हूँ मेहरूनिस्सा! पक चुकी हूँ, इस समाज से। .........इज़्ज़त लूटी गयी मेरी। इसी समाज के दरिंदों ने..... अपने हवस का शिकार बनाया। किसी तरह मेरे चाचा ने छुपते-छुपाते शादी की जो संयोग से एक ईमानदार व्यक्ति था। कुछ ही दिनों बाद वे नक्सली हिंसा के शिकार हो गये। बची थी मैं, और मेरा आदी।....... और अब वह भी......
(रुंधी आवाज़ और नम आँखों से आँसू पोंछती शांति)।
मेहरूनिस्सा :
....लेकिन, इसके ज़िम्मेदार हम नहीं हैं शांति बहन! ये मर्द हैं, ये मर्द। इनका यह सारा खेल है। ये हैं दंगे के असली ज़िम्मेदार। अपनी ख़ुशी के ख़ातिर ये मर्द लोग क्यों खेलते हैं ये खेल? ये हैं किसी भी जुर्म के जन्मदाता।
शांति :
दोषी ठहराना आसान है। लेकिन, उसको समाप्त करना........
अख्तर :
हम सबका काम है। हम तोड़ेंगे, इन जंज़ीरों को, हम।
एक भीड़ :
हम सब तोड़ेंगे इस नफ़रत को।
अख्तर :
इस काम में आप अकेले नहीं हैं। हम सभी इस नफ़रत की दीवार को तोड़ेंगे आण्टी!
नेताजी :
हम भी आपके साथ हैं।
(संयुक्त स्वर में)
तोड़ेंगे दीवार नफ़रत की हम सभी,
मजहब की दीवारें हम तोड़ेंगे
नहीं लड़ेगा मुल्क में अब कोई मज़हब के नाम पर
न मरेगा कोई आदी किसी का, देश में
हम करेंगे अब नई आज़ादी को रोशन
एक नया चिराग हम जलाएँगे
कोशिश तोड़ने की करेगा अगर कोई
तोड़ देंगे उनके हम मंसूबों को
गंगा-जमुनी भारतीय तहज़ीब से
हम सभी इक नया सबेरा लाएँगे
एक नया सूरज उगाएँगे।
विशेषः यह नाटक महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा-442001 (महाराष्ट्र) में लिखा गया था।