ये महिमामय प्रमाणपत्र

01-06-2020

ये महिमामय प्रमाणपत्र

विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’ (अंक: 157, जून प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

अभी-अभी एक सज्जन मुझसे अपने दस प्रमाणपत्रों की प्रतिलिपियाँ प्रमाणित करा कर ले गये हैं। उन्होंने ’बहुत बहुत धन्यवाद’ दिया है मुझे इस कृपा (?) के लिए, कारण यदि आज यह काम न होता तो निर्धारित अन्तिम तिथि तक उनका आवेदनपत्र अपने गन्तव्य स्थान तक न पहुँच पाता। ज़ाहिर है, बेचारे बड़े प्रसन्नचित्त गये हैं। पर मैं प्रसन्न नहीं हूँ – उनके प्रमाणपत्रों के कतिपय वाक्य बार-बार मेरे मानस-पट पर उभर रहे हैं और मेरी मनोदशा बिगड़ती जा रही है। यदि उनके प्रमाणपत्रों को उनके भावी नियोजकों ने अक्षरशः सत्य मान लिया, तो क्या उन्हें साक्षात्कार के लिए भी बुलाया जाएगा? शायद नहीं। जो काग़ज़  के टुकड़े उन्हें ख़ुशामद-मिन्नत करने पर मिले होंगे और जिन्हें वे अपनी प्रशंसा समझ कर बड़े उत्साह से आवेदनपत्र के साथ भेज रहे हैं, वही उनका बेड़ा गर्क कर देंगे।

उनके सभी प्रमाणपत्रों से मुझे शिक़ायत नहीं है। उनमें से तीन – मैट्रिक्युलेशन, इण्टरमीडियेट और बी. ए. के प्रमाणपत्र – ठीक थे; शायद इसीलिए कि उनकी भाषा बड़ी सरल और वर्षों पुरानी थी, उनमें किसी आधुनिक भाषाशास्त्री को अपनी विद्वत्ता का चमत्कार दिखाने का अवसर नहीं मिला था। पर शेष सात प्रमाणपत्र दिमाग़निचोड़ और कलमतोड़ भाषा के, जिसे अंग्रेज़ी में फ़्लावरी लैंग्वेज कहते हैं, अनुपम उदाहरण थे। और, मेरा ख़याल है, समाज में सम्मानित स्थान रखनेवाले उन्हीं सज्जनों की बहुमूल्य लेखनी से उद्भूत सद्भाव-कुसुम उस सरलहृदय इन्सान की छाती का बोझ असह्य रूप से बढ़ा देंगे।

उन सात प्रमाणपत्रों में से तीन अंग्रेज़ी में थे। पहले उन्हीं का उल्लेख कर दूँ, फिर हिन्दी प्रमाणपत्रों से आपका परिचय कराऊँगा।

अंग्रेज़ी में लिखा उनका पहला प्रमाणपत्र हिन्दी के एक स्वनामधन्य कवि महोदय का दिया हुआ है। उसमें और बातें तो, ख़ैर, ठीक थीं, पर एक वाक्य इस प्रकार था - "ही हैज़ ए लॉन्ग एक्सपीरियेंस ऑफ़ रनिंग पब्लिक हाउसेज़ ऐज़ वेल" (उन्होने एक दीर्घ अवधि तक मदिरालय भी चलाये हैं)। भला बताइये, मदिरालय या मधुशाला चलानेवाले को कौन देगा सरकारी नौकरी? फिर, सचाई यह है कि उन बेचारे ने मदिरालय कभी नहीं चलाया – वे एक नौजवान पत्रकार हैं, बी. ए. करने के बाद पिछले पाँच साल से पत्रकारिता में ही हैं। जहाँ तक मैं समझता हूँ, कविवर की भी यह मंशा कदापि नहीं रही होगी – वे उनके सार्वजनिक संस्थाएँ चलाने के अनुभव का ज़िक्र करना चाहते होंगे, पर लिखते समय ’इंस्टीट्यूशन्स’ सूझा नहीं होगा और ’हाउसेज़’ लिख गये होंगे। काश, उन्होंने यह प्रमाणपत्र हिन्दी में दिया होता। लेकिन तब लोग यह कैसे समझते कि वे अंग्रेज़ी के भी अच्छे ज्ञाता हैं, सिर्फ़ ’हिन्दीवाला’ नहीं हैं।

उनका अंग्रेज़ी का दूसरा प्रमाणपत्र भी कुछ कम मारक नहीं था। यह प्रमाणपत्र उस दैनिक पत्र के प्रधान सम्पादक का था, जिसमें अभी वे काम कर रहे हैं। प्रमाणपत्र में उनकी कर्तव्यपरायणता का उल्लेख करते हुए लिखा गया था - "ही कैन पास ऑन ऑल सॉर्ट्स ऑफ़ रिस्पॉन्सिबिलिटीज़ विदाउट मच एफ़र्ट्स" (वे सभी तरह की ज़िम्मेदारियाँ बिना किसी विशेष प्रयत्न के टाल सकते हैं)। अब है कि नहीं सोचने की बात! ज़िम्मेदारियाँ टालनेवाले व्यक्ति के लिए कहाँ मिलेगा स्थान! नौकरी मिल जाने के बाद चाहे जितनी टल्लमबाज़ी कीजिए, पर यह घोषणा करके कि मैं टल्लीबाज़ हूँ, आप नौकरी तो नहीं पा सकते। पता नहीं, सम्पादकजी को क्या सूझी कि उन्होंने यह मधुर वाक्य लिख दिया उन भले आदमी की प्रशंसा में। सम्भव है, उनकी मंशा यह रही हो कि "वे सभी तरह की ज़िम्मेदारियाँ आसानी से निभा सकते हैं"। पर यह बात समझाने के लिए सम्पादकजी को दिल्ली थोड़े ही बुलाया जाएगा सरकारी ख़र्चे पर!

तीसरा अंग्रेज़ी-प्रमाणपत्र एक सांस्कृतिक संस्था के सचिव महोदय ने बड़े ख़ूबसूरत नीले काग़ज़ पर टाइप करके दिया था। इसमें उन सज्जन के चरित्र और कर्मठता की भूरि-भूरि प्रशंसा करने के बाद लिखा गया था – "ही वेरी सेल्डम टेक्स पार्ट इन कल्चरल ऐक्टिविटीज़ ऐण्ड दस डज़ ग्रेट सर्विस टू द आर्ट वर्ल्ड" (वे शायद ही कभी सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेते हैं और इस प्रकार कला-जगत् की महती सेवा करते हैं)। यह वाक्य देख कर मुझे बरबस उस पापी चीनी राजा की याद आ गयी, जिसे एक महात्मा ने पूजा-पाठ करने के बजाय ज़्यादा-से-ज़्यादा सोने का उपदेश दिया था, क्योंकि उसके जागृत रहने पर पुण्यकर्मों के मुक़ाबले पापकर्मों की ही अधिक सम्भावना थी। लेकिन तब यह प्रमाणपत्र देने की क्या ज़रूरत थी! निश्चय ही, सचिव महोदय उन नौजवान को कला-जगत् का शत्रु नहीं मानते थे। बस, गड़बड़ी थी, तो इतनी कि ’सेल्डम’ का अर्थ उन्होंने ’अक्सर’ लगाया था।

ये तो, ख़ैर, अंग्रेज़ी में दिये गये प्रमाणपत्र थे – एक ऐसी भाषा में दिये गये प्रमाणपत्र, जिसमें सैंकड़ों वर्षों के प्रयत्नों के बावजूद दशमलव शून्य एक प्रतिशत भारतीय भी शुद्ध नहीं लिख पाते, पर हिन्दी में जो चार प्रमाणपत्र थे, वे भी कुछ कम करामाती न थे – सब गुड़ गोबर करनेवाले प्रमाणपत्र!

हिन्दी में एक प्रमाणपत्र उस पत्र के संचालक महोदय का था, जिसमें वे पहले काम करते थे। उन संचालक महोदय ने बड़े गर्व के साथ लिखा था – "विविध विषयों का इनका ज्ञान इतना अच्छा है कि इन्हें ’अज्ञराज’ कहा जाए, तो अतिशयोक्ति न होगी।" अब उन संचालक महोदय को कौन बताता कि ’अज्ञ’ और ’विज्ञ’ का सम्बन्ध छत्तीस के तीन और छः का है। वे तो परम विद्वान राजनीतिज्ञ हैं, राज्य विधानसभा के सदस्य हैं – राजनीतिक, सामाजिक और श्रमिक समारोहों के साथ-साथ साहित्यिक और सांस्कृतिक समारोहों का भी अक्सर उद्घाटन या अध्यक्षता करते रहते हैं। ’अज्ञ’ और ’विज्ञ’ का अर्थ समझाने के बाद भी क्या कोई उनसे प्रमाणपत्र ले सकता था! सो, ये बेचारे हर आवेदनपत्र के साथ अपने ’मूर्खराज’ होने का भी प्रमाणपत्र भेजते रहते हैं। सोचते हैं, ’अज्ञ’ और ’विज्ञ’ का भेद समझ ही कितने लोग पाएँगे।

हिन्दी में दूसरा प्रमाणपत्र एक सरकारी प्रचार-अधिकारी का दिया हुआ था। इसमें भी उनकी योग्यता की बड़ी ज़बर्दस्त तारीफ़ की गयी थी, पर एक सुनहला वाक्य ऐसा भी था, जो ज़रा ग़ौर से देखने पर घोर काला दिखाई पड़ता था। वह वाक्य था – "शायद ही कोई नौजवान पत्रकार होगा, जिसमें इतने-सारे गुण एकसाथ उपलब्ध न होंगे।" सोचिए ज़रा, कितना ज़बर्दस्त ’न’ बिठा दिया उन्होंने! और, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, आज भी उन अधिकारी महोदय को यह वाक्य पढ़ने को दिया जाए, तो वे अपनी भूल नहीं पहचान सकेंगे। ज़िन्दगी-भर न तो साहित्य से उनका कोई वास्ता रहा और न हिन्दी से और अन्त में किसी तरह टिप्पस भिड़ा कर वे सरकारी प्रचार अधिकारी बन गये। हिन्दीभाषी राज्य होने के कारण हिन्दी में उन्हें काम करना पड़ रहा है, सो अब कभी-कभार उनके लेख भी पत्रों में देखने को मिल जाते हैं। मुझे उनका वह लेख आज भी याद है, जिसकी शुरुआत ही इस प्रकार थी – "संसार में अनेकों देशों ने आज़ादी हासिल की है, लेकिन शायद ही कोई ऐसा देश होगा, जिसने भारत की तरह बिना ख़ून-ख़राबे के आज़ादी हासिल न की हो!" यह प्रमाणपत्र भी उसी परम्परा में था। बस, अन्तर इतना है कि उस लेख से किसी का कुछ न बिगड़ा, इस प्रमाणपत्र से एक आदमी की ज़िन्दगी बिगड़ती है।

तीसरा हिन्दी-प्रमाणपत्र एक बहुत ऊँचे प्रशासनिक अधिकारी का था, जो हिन्दीभाषी प्रदेश के होते हुए भी हिन्दी के अपने अज्ञान पर सदैव गर्व अनुभव करते रहे – "हम जाता है, खाता है" बोलते रहे। पर आज हिन्दी के प्रति उनका प्रेम अकस्मात् प्रबल हो उठा है, शायद इस कारण कि उनके विभाग के नये मन्त्री महोदय हिन्दी में ही बातचीत करना पसन्द करते हैं। फलतः अब वे हिन्दी में केवल बातचीत ही नहीं करते, लिखते भी हैं, इसका प्रमाण स्वयं यह प्रमाणपत्र था। वैसे, मानना पड़ेगा, हिन्दी वे अच्छी लिख लेते हैं। बस, शब्दाडम्बर से थोड़ा बचें, तो काम चल जाए। अब इसी प्रमाणपत्र में उन्होंने लिखा है – "अपनी प्रबल अकर्मण्यता के प्रमाण-स्वरूप इन्होंने सर्वतोमुखी दिशा में प्रचण्ड लोकप्रियता प्राप्त की है।" अब देखना है, उन सज्जन के भावी नियोजक ’अकर्मण्यता’ का क्या अर्थ लेते हैं; ’प्रमाण’ को भी वे ’प्रमाण’ ही पढ़ते हैं या ’परिणाम’।
                          
अन्तिम प्रमाणपत्र एक लब्धप्रतिष्ठ समाज-सुधारक का था। उसमें इन सज्जन की समाज-सेवाओं की भरपूर प्रशंसा की गयी थी और अन्त में बड़ी निष्ठापूर्वक यह आशा व्यक्त की गयी थी कि "ये अपनी विनम्रता, चरित्रबल, परमार्थ-भाव, परिश्रम और आत्मश्लाघा के सहारे जीवन में अवश्य ही सफलता प्राप्त करेंगे।" विनम्रता, चरित्रबल, परमार्थ-भाव और परिश्रम तो ठीक, यह ’आत्मश्लाघा’ शब्द क्यों घुसेड़ दिया गया अन्त में! फिर, विनम्रता और आत्मश्लाघा का क्या मेल! विनम्र और चरित्रवान व्यक्ति अपनी डींग हाँकता फिरे – ऐसा कम-से-कम मैंने नहीं देखा कहीं। कह नहीं सकता, उन समाज-सुधारक महोदय का क्या अभिप्राय था ’आत्मश्लाघा’ शब्द से। कहीं ’आत्मबल’ या ’आत्मविश्वास’ की बात तो नहीं थी उनके मन में!

जो भी हो, इन समस्त प्रमाणपत्रों को देखने के बाद जो एक स्वाभाविक प्रश्न उठा मेरे मन में, वह यह कि उक्त सज्जन इन प्रमाणपत्रों की प्रतिलिपियाँ भेजते ही क्यों हैं नौकरी के लिए आवेदनपत्र के साथ, दूसरे प्रमाणपत्र क्यों नहीं प्राप्त कर लेते। इसी कारण सब प्रतिलिपियों को प्रमाणित करने के बाद मैंने उनसे कहा भी – "इनमें तो बहुत ग़लतियाँ हैं।" उत्तर में वे हँसने लगे, बोले – "देखता ही कौन है इन्हें! ये तो केवल ’एन्क्लोज़र्स’ की संख्या बढ़ाने के लिए हैं। फिर, यदि कोई देखता भी है, तो सुधार कर पढ़ लेता है – बहुतों की समझ में तो ग़लतियाँ आती ही नहीं।" और "बहुत-बहुत धन्यवाद" देकर वे चले गये।

पर मुझे, न-जाने क्यों, शान्ति नहीं है। मैं सोचता हूँ, प्रमाणपत्रों के नमूनों की भी कोई तड़क-भड़कवाली सुन्दर पुस्तक निकलनी चाहिए, जिसे प्रमाणपत्र लेने के लिए जाते समय प्रार्थी साथ लेता जाए और अपने इच्छित प्रमाणपत्रवाला पृष्ठ उस महापुरुष के सामने खोल कर कहे – "हुज़ूर, आपकी शान के लायक़ प्रमाणपत्र यही है!"     

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