यज्ञ

डॉ. सुशील कुमार शर्मा (अंक: 180, मई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

छंद: कुण्डलिया 
(श्रीमद्भागवत गीता से)

1.
मेरे ही हेतार्थ हों, यज्ञ दान तप कर्म।
काम्य कर्मफल त्यागना, है संन्यासी धर्म।
है संन्यासी धर्म, फलों की इच्छा त्यागो।
मुझको करो निमित्त, नहीं कर्मों से भागो।
यज्ञ दान तप जाप, सुफल होंगे सब तेरे।
दम्भ आचरण त्याग, बनो तुम प्रियवर मेरे।

2.
गीता ज्ञान स्वरूप को, करता जो हृदयस्थ।
ज्ञान यज्ञ पूजित रहूँ, मैं उसके अंतस्थ।
मैं उसके अंतस्थ, करूँ मैं उसकी रक्षा।
सात्विक यज्ञ विधान, जगें उसकी अनुप्रेक्षा।
बिना यज्ञ जप ज्ञान, रहे मानव मन रीता।
लोक विहित संज्ञान, रूप है मेरा गीता।
 

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