यादों के झरोखे से तालाब : एक विलुप्त होती सभ्यता

15-07-2020

यादों के झरोखे से तालाब : एक विलुप्त होती सभ्यता

सुभाष चंद्र (अंक: 160, जुलाई द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

आज मैं उस तालाब के मुहाने पे बैठा अपनी आँखों से उस तालाब को देख रहा हूँ जहाँ से अनेकों संस्कृति और सभ्यताएँ गुज़र गईं। प्राचीन काल से ही मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएँ रोटी कपड़ा और मकान रहीं हैं लेकिन साथ ही साथ मनुष्य के जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए हवा और पानी भी आवश्यक है। पानी के कई स्त्रोत हैं जो अप्राकृतिक/कृत्रिम हैं लेकिन जुड़े प्रकृति से हैं। मूलतः पानी के प्राकृतिक स्त्रोत नदी, झरने, बरसात और इन सबमें उपयुक्त स्त्रोत जो आदिकाल से ही बहुतयात में उपलब्ध होता रहा है वह है- तालाब। जी हाँ! तालाब मनुष्य जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए एक आवश्यक अंग रहा है। तालाबों का इतिहास, तालाबों की परंपरा और तालाबों की संस्कृति- सभी सदैव से ही मनुष्य जीवन के अभिन्न अंग रहे हैं। दुनिया का पहला तालाब किसने बनाया या कहाँ बना? यह कहना या खोजना तो मुमकिन नहीं है लेकिन तालाबों का अस्तित्व मानव जाति के पृथ्वी पर उपजने के साथ या इससे पहले पृथ्वी के ग्रह बनने के साथ से है। मानव जब पहली बार इस पृथ्वी पर जन्मा होगा तो उसने रहने, खाने के साथ-साथ पानी की व्यवस्था को भी ध्यान में रखा होगा और उसने अपने घर/मकान इत्यादि के आसपास तालाबों का निर्माण किया होगा। तालाबों के अस्तित्व का प्रश्न बहुत बड़ा है। यह कहना कठिन है कि दुनिया का पहला तालाब कौन सा है? लेकिन तालाबों का महत्व बहुत ही ज़्यादा है। तालाबों में जो कमलपुष्प खिलते हैं उनमें कई देवी-देवताओं का वास होता है। ऐसा कई दंतकथाओं में प्रचलित है। 

हम विकसित मनुष्यों की कई पुरानी सभ्यताओं में तालाबों का वर्णन मिलता है। चाहे वो हड़प्पा सभ्यता हो या सिंधु सभ्यता। कई सभ्यताओं के वर्णन में और उनका अध्ययन करने पर पता चलता है कि उस प्राचीन काल में मानव ने तालाबों को कितने मन से सुदृढ़, सुरक्षित और सुन्दर बनाया क्योंकि मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से ये एक महत्वपूर्ण आवश्यकता थी। तालाबों को सुदृढ़ और सुरक्षित बनाने के साथ-साथ उनके सौंदर्यीकरण का भी ध्यान रखा और तालाबों के किनारे फलदार, छायादार वृक्ष और सुगंधित पुष्प देने वाले पौधों को रोपित किया। 

धीरे-धीरे जैसे-जैसे मनुष्य का मस्तिष्क विकसित होता गया, वह तालाबों को भी विकसित करता गया। तालाबों का अस्तित्व हमारी संस्कृति से भी मिलता है। रामायण, महाभारत काल में भी तालाबों का वर्णन मिलता है। रामायण काल की एक महत्वपूर्ण घटना एक तालाब के किनारे घटी। जब रावण पुत्र इंद्रजीत द्वारा दशरथ नंदन और श्रीराम प्रभु के प्रिय भ्राता लक्ष्मण को प्राणघातिनी शक्ति द्वारा प्रहार किए जाने के बाद, उनको पुनर्जीवित करने के लिए पवन पुत्र हनुमान जी द्वारा संजीवनी लेने जाते समय, उनको प्यास लगने पर उन्होंने अपनी प्यास एक तालाब के पानी से ही शांत की थी। महाभारत काल की महत्वपूर्ण घटना तालाब के किनारे घटी। जब पांडव अपने अज्ञातवास में थे तो पानी की खोज में जंगलों में भटक रहे थे तब महाबली भीम ने तालाब खोजा और पानी पिया। वहीं उसी तालाब के किनारे यक्ष ने धर्मात्मा युधिष्ठिर से प्रश्न पूछे और उनके अचेत भाइयों की चेतना लौटाई। महाभारत काल की एक और घटना तालाब के किनारे ही घटी जब अज्ञातवास के समय पांचाली द्रौपदी का, राजा विराट के नगर में, कीचक द्वारा अभद्र व्यवहार करने पर महाबली भीम द्वारा उसका वध धुपकली अर्थात धूप की कली या धूप में खिलने वाली कली नामक तालाब के किनारे किया गया। 

आदिकाल में तो तालाबों के निर्माण ने एक मुहिम कर तौर पर ज़ोर पकड़ा और चन्देलवंशीय राजाओं कीर्तिवर्मन, मदनवर्मन और परमाल देव आदि ने तालाबों कीर्तिसागर, मदनसागर और दीपसागर नाम से इनका निर्माण करवाया। तालाबों के सौंदर्यीकरण का विशेष ध्यान रखते हुए तालाबों के किनारे-किनारे घाटों का निर्माण करवाया जिनमें लोग पानी का उपयोग दैनिक जीवन के लिए करते थे तथा राजसी उपयोग के लिए भी इनका प्रयोग होता था। परमाल रासो के आल्हा खंड में आदिकालीन कवि जगनिक ने कीर्तिसागर तालाब के किनारे पृथ्वीराज चौहान III और आल्हा-ऊदल के मध्य हुए युद्ध का वर्णन भी बहुत सुंदर ढंग से किया है। इसी तरह भारत के जितने भी क़िले चाहे वो आदिकाल के हों या आधुनिक काल के, सभी में तालाब/जलाशय/बावड़ियों का निर्माण क़िलों के अंदर और बाहर करवाया गया है। 

तालाबों के अस्तित्व के साथ ही साथ इनके अंदर हम अपनी संस्कृति और इतिहास को खोज सकते हैं। तालाबों के अस्तित्व के संदर्भ में कई महत्वपूर्ण प्रश्न जो उसी सभ्यता से जुड़े हुए हैं, ज़ेहन में उभरकर आते हैं जिनमें  "जिसकी जितनी भागीदारी उनकी उतनी हिस्सेदारी" वाला बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आता है। उपर्युक्त नियम का पालन शायद न तो उस समय हुआ और न इस समय होता है। क्योंकि तालाबों की खुदाई और उनका सौंदर्यीकरण जिस निम्न वर्ग द्वारा किया जाता था उसके बाद भी उनको तालाबों के पूर्ण रूप से तैयार हो जाने के बाद, उसी तालाब से पानी नहीं पीने दिया जाता था। उनको उन्हीं तालाबों की सुविधाओं से वंचित रखा जाता था। उनके द्वारा जब तक तालाबों का निर्माण होता था, तब तक वह उनके छूने योग्य होता था। लेकिन जैसे ही निर्माणकार्य पूर्ण हो जाता था, उनके लिए तालाब और उससे मिलने वाली सुविधाएँ अछूत हो जाती थीं। तालाबों के निर्माण के बाद उन पर सिर्फ़ उच्च वर्ग का एकाधिकार हो जाता था और तालाबों के किनारे शायद कहीं-कहीं निम्न वर्ग को पानी पीने की छूट अगर थी तो उसमें व्यवस्थाएँ और नियम बहुत कड़े थीं कि किस घाट पर किस जाति के लोग पानी पियेंगे आदि आदि। मुझे लगता है कि शायद उस समय से लेकर आज तक भी उपर्युक्त वाक्य "जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी" एक जुमला साबित होकर रह गया है या यूँ कहें ये वाक्य सिर्फ़ किताबों के पन्नों में लिखकर दफ़न हो कर रह गया है। 

तालाबों के अस्तित्व में हम अपने दलित इतिहास को भी खोज सकते हैं। हमारे कई महापुरुषों ने पानी पीने को लेकर संघर्ष किया है। बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे हमारे महापुरुषों ने तालाबों से पानी पीने को लेकर संघर्ष किया। 

आज वही तालाबों की सभ्यता और उनका अस्तित्व ख़तरे में है। आज तालाबों का विकास के नाम पर दोहन हो रहा है उन पर भू-माफ़िया अधिकरण कर रहे हैं। उनको पाटा जा रहा है। लोग उच्चतम न्यायालय के द्वारा बनाये गए नियमों को ताक़ पर रखकर तालाबों को ग़ैरकानूनी तरीक़े से अधिकृत कर रहे हैं। तालाबों को दूषित किया जा रहा है। तालाबों के दूषित होने से जल प्रदूषण का ख़तरा भी बढ़ रहा है। लोग स्वयं को विकसित करने या दिखाने के चक्कर में उनको विभिन्न प्रकार से प्रदूषित कर रहे हैं। इस सब में सबसे ज़्यादा ख़तरा मानव जाति को तो है ही कई पशुओं और पक्षियों की प्रजातियाँ भी विलुप्त होती जा रही हैं और कई विलुप्त भी हो गईं हैं जिनमें एक सोन चिरैया चिड़िया की प्रजाति भी शामिल है। इससे कई प्राकृतिक घटनाएँ असमय घट रहीं हैं। 

तालाबों के अस्तित्व हमारे पूर्वजों की कई पीढ़ियों से है लेकिन इनके ख़त्म होने से हमारे पूर्वजों की यादें और हमारे बचपन की यादें भी ख़त्म होती जा रही हैं जो बचपन हमने बड़े ही शान से बिताया है। आज सब नष्ट होने की कगार पर है। आज इन तालाबों को बचाने की आवश्यकता है ताकि हम आने वाली पीढ़ी को एक सुनहरा भविष्य प्रदान कर सकें। आज तालाबों का परिवर्तन स्वीमिंगपूलों के रूप में हो रहा है जो कि हमारी संस्कृति के ऊपर एक दाग़ के रूप में उभर रहा है। यदि तालाबों का परिवर्तन स्वीमिंगपूलों के रूप में हो गया तो परिवर्तन हो जाएगा या यूँ कहें अंत हो जाएगा एक सभ्यता का, एक संस्कृति का और एक युग का। 

तालाब एक पानी का स्रोत ही नहीं बल्कि एक परंपरा, संस्कृति, एक युग, एक सभ्यता है। जो हमारी ऐतिहासिक संपत्ति है। आज ज़रूरत है सरकारों को एक प्रकार से कड़े नियमों का बनाने और उन्हें कड़ाई से लागू करने की ताकि हमारी इस विलुप्त होती तालाब संस्कृति, परंपरा, युग और सभ्यता को बचाया जा सके। जिससे हम अपनी आने वाली पीढ़ी को एक स्वर्णिम भविष्य प्रदान कर सकें और इस बहुमूल्य प्रकृति को बचाने में अपना योगदान दे सकें क्योंकि यदि तालाबों का अंत हो गया तो अंत हो जाएगा हमारे उस स्वर्णिम इतिहास का, हमारी परंपरा का, हमारी संस्कृति का, एक सुनहरे युग का और हमारी सभ्यता का। हड़प्पा और सिंधु सभ्यता की तरह तालाब सभ्यता भी एक काग़ज़ी सभ्यता बनकर रह जायेगी जो आने वाली पीढ़ी के द्वारा सिर्फ़ इतिहास की पुस्तकों तक ही सीमित रह जाएगी। 

गिरधर कवि ने अपनी एक कुण्डलिया छंद में तालाब की महिमा का वर्णन करते हुए कहा भी है कि यदि पानी का आदर ना हो तो इस से हंस रूपी सभी संस्कृति, परंपरा और सभ्यताएँ उड़ जातीं है या यूँ कहें नष्ट हो जाती हैं। 

हंसा यहाँ रहिए नहीं, सरोवर गए सुखाय। 
काल हमारी पीठ पर, बगुला धार गए पाँय॥ 
बगुला धार गए पाँय, यहाँ आदर न हुईहै। 
जिन कीन्ही बहुत बड़ाई, तिन बहुत पछतइहै॥ 
कहे गिरधर कविराय, सुनहु मन की शंसा। 
अब यहाँ कुछ नहीं, उड़ चलिहौ रे हंसा॥ 

सुभाष चन्द्र 
शोध छात्र 
हिन्दी विभाग 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय 
प्रयागराज-211002. 
संपर्क : 6392798774, 9532188761
ईमेल : subhashgautam711@gmail.com

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