वक़्त के दरिया में

15-04-2021

वक़्त के दरिया में

बृजेश सिंह (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

(आंचलिक नवगीत)   

वक़्त के दरिया में

उड़ रह्यो छप्पर
बहती हुई रे छानी
वक़्त के दरिया में
सभी रे पानी-पानी ।
 
कबहूँ लें पांछे
कबहूँ कहें गंगनोयें1
कबहूँ लें पूरब
कबहूँ कहें जमुनोंयें
 
मडैयां उठाने की
लिखी रे कहानी
वक़्त के दरिया में…
 
गहली दिवालें
टूटी रे टटिया
गीलो भयो आटा
भींजी रे चकिया
 
घर-घर के पहाडे़
याद हुए मुंह जबानी
वक़्त के दरिया में …
 
चुन कें धान सब
उड़ गये पखेरू
कितनों ने बदला 
अपना चोला गेरू
 
चाट गये दीमक 
नोट की रे कॉलोनी
वक़्त के दरिया में…॥ 

टिप्पणी

( पांछे-पीछे, गंगनोयें-उत्तर, जमुनोंयें- दक्षिण, गहली-गीली होकर बहना, टटिया- फूस से बनी दीवार, भींजी -भींगी ) 

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