वो पुराना मकान
डॉ. शिवांगी श्रीवास्तवसड़क के उस पार
गली के अंत पर
एक पुराना सा
मकान खड़ा है
जर्जर जीर्ण मकान।
एक समय था
जब चमकती थीं दीवारें,
खिड़कियाँ और रोशनदान,
रौनक़ें लगी रहती थीं
बहू, बेटियों, बच्चों से,
आज वीरान किसी
नए उत्सव की उम्मीद
मन के किसी कोने में दबाये
जिए जा रहा है।
शिकायत करे भी तो किससे,
कोई नहीं आता जाता अब,
अकेला, सिसकता, तरसता
सुनसान खड़ा है।
बच्चे अब बड़े हो गए
घोंसले को छोड़ जाने कब
के उड़ गए,
उनकी हँसी, किलकारी,
जाने कहाँ खो गई।
बुढ़ापे की सूखी आँखों के
कोरों में हज़ार उम्मीदों
की नमी लिए
बस जिए जा रहा है।
मकान जो अब बस
ईंटों का ढाँचा मात्र है
सीलन, दरारें, दरकती दीवारें
उम्मीद की टकटकी लगाए
निहार रहीं हैं जंग लगे
दरवाज़े की ओर कि
कब एक दस्तक हो और
किवाड़ खुल जाए।