वो छम-छम बरसा करती थी

01-09-2020

वो छम-छम बरसा करती थी

भावना सक्सैना  (अंक: 163, सितम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

वर्षा... जलधारा... जीवनदायिनी!!!

सौभाग्यशाली हैं हम कि हमें बरस दर बरस पावस का यह रूप देखने को मिलता है जब धरती आनंदमय हो जाती है और धरती का हर जीव उल्लसित हो हर्ष से भर जाता है। वैसे तो आज यह कहना भी अतिश्योक्ति लगती है कि वर्षा में हर जीव हर्षित हो जाता है क्योंकि आज कहीं अतिवृष्टि है तो कहीं सूखा है। कोई वर्षा होने से त्रस्त है तो कोई वर्षा न होने से। मन व्यथित होता है यह सोचकर कि मनुष्य की अति से यह कैसा असंतुलन उत्पन्न हो गया है। एक मानव ही तो ऐसा प्राणी है जो अपने जीवनकाल में सबसे अधिक वर्षा चक्र देखता है... और विडंबना ये कि पर्यावरण को सबसे अधिक क्षति भी वही पहुँचाता है। 

यह भी सच है कि ऋतु की यह करवट हर जीवन में अनेक अनुभव और स्मृतियाँ दे जाती है, हम तो साधरण मानव हैं सहज ही प्रभावित हो जाते हैं, वर्षा तो प्रभु श्रीराम को भी प्रभावित कर देती है और वह कह उठते हैं – 

“वर्षा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए”।

कुछ तिक्त तो कुछ मधुर, वर्षा अनेक अनुभव सहेज जाती है, जिन्हें हम अपने अंतस में छिपाए समृद्ध हुए रहते हैं और हर वर्षा ऋतु में उन्हें पुनः जीते हैं। मेरे मन में भी वर्षा के जल से जुड़ी कुछ स्मृतियाँ हैं जो बरस दर बरस मन को हरा किए रहती हैं। 

बरखा सींचती है स्मृतियों को... बारिश के बारे में सोचती हूँ तो उभरते हैं कुछ दृश्य… कुछ बचपन के, कुछ यौवन के, कुछ पिछले बरस के, तो कुछ बरसों बरस पहले के। मनस-पटल पर उभरते हैं कुछ बचपन के चित्र तो कुछ यौवन की अल्हड़ावस्था के। इन सब को लिखूँ तो पन्ने कम पड़ जाएँ। कोई चालीस बरस पहले की बात होगी कि बरखा बेरोक बरसा करती थी उन दिनों। एक बड़ा सा ईंटों से बिछा आँगन था जिसका एक छोर क्यारियों से सुशोभित था। घर पक्का था, एक ओर लाइन से तीन कमरे थे तो दूसरे छोर पर एक अकेला कमरा था जिसका एक दरवाज़ा आँगन के भीतर तो दूसरा बाहर चबूतरे पर खुलता था। ये बैठक थी जिसकी छत भीतर से पक्की थी किंतु किन्हीं कारणों से उसके ऊपर की ओर पलस्तर नहीं हो पाया था। उस पर जाने के लिए सीढ़ियाँ भी नहीं थी। एक किनारे पर सीढ़ी लगाने की जगह छोड़कर चारों ओर चौड़ी मुँडेर थी। बाँस की सीढ़ी लगाकर उस पर चढ़ना उतना आसान नहीं था लेकिन एक बार ऊपर पहुँच जाते तो बिलकुल किसी सम्राट जैसा अनुभव होता था। एक रोज़ जम कर बरसात हुई थी, लेकिन जिस परनाले से बैठक की छत का पानी बाहर गिरता था उसमें से काफ़ी कम पानी गिरा तो बाबा को अंदाज़ा हुआ कि शायद उसमें कुछ फँसा तो नहीं… छत पर पानी भर जाने का अर्थ था सीलन जिसको सूखने में बहुत समय लगता और दीवारें ख़राब होतीं सो अलग। मामले की जाँच करने के लिए छोटी बुआ को ऊपर चढ़ने को कहा गया, तो भला हम पीछे कैसे रहते। बुआ के पीछे-पीछे आधी सीढ़ी चढ़ गई, बरसात में गीली सीढ़ी पर घर की दुलारी का पैर न फिसल जाए तो मँझली बुआ को मजबूरन पीछे चढ़कर सँभालना और अंततः ऊपर चढ़ाना पड़ा। सीढ़ी से ऊपर की आधी यात्रा तो जैसे हुई सो हुई होगी, मुझे याद है ऊपर का नज़ारा। छोटी बुआ ने हाथ पकड़कर ऊपर खींचा और फिर हम सीधे उतरे घुटने तक भरे पानी में… अहा! स्वर्ग का आनंद था वह! क्या ही स्विमिंग पूल में आज वह आनंद मिलता होगा… जी भर छपाक-छपाक करने के बाद परनाले को खोला गया… तब तक एक बार फिर ज़ोरदार बारिश शुरू हो चुकी थी तो ढेर सारी हिदायतों के बाद सीढ़ी पर बहुत ध्यान से नीचे उतरे और देर तक आँगन में बूँदों को महसूसते रहे।

बारिश तेज़ होती तो घर के सामने की सड़क नदी हो जाती थी और मोहल्ले भर के बच्चे अपनी-अपनी नाव पर अपना नाम लिखकर छोड़ते। जिसकी नाव सबसे बाद में डूबती वह विजेता रहता। मज़ेदार बात यह थी कि जब घरों के आगे चबूतरा था तो किसी को पानी मे पाँव धरना नहीं पड़ता था, वैसे पानी में पाँव धरने से कोई परहेज़ भी नहीं था... आँख बचाकर कूद ही जाते थे।

मुझे बहुत अच्छे से याद है कि उन दिनों बारिश कईं-कईं दिन तक लगातार बरसती थी। मान्यता थी कि यदि शनिवार अथवा रविवार को बारिश होनी शुरू हुई तो सप्ताह भर बरसती रहेगी, इसे झड़ी लगना कहते थे। चौमासे में कई-कई दिन सूर्य भगवान दर्शन नहीं देते थे। कुछ ज़रूरी काम होते, किसी ने आना होता या परीक्षा होती तो उस झड़ी को तोड़ने के लिए विभिन्न टोटके भी किए जाते थे। उन्हीं में एक उपाय था सरसों का तेल लेकर आँगन के एक किनारे टपकाते हुए कहना “बादल तितर-बितर हो जा... बादल फाट-फाट हो जा”। इसके अलावा कभी तवा या कढ़ाई उलटा कर आँगन में रखे जाते तो कभी कुछ विशेष लोगों के नाम ले-लेकर रस्सी में सात या नौ गाँठें लगाकर आँगन में लगी खूँटी पर लटकाया जाता। ये उपाय कितने कारगर थे यह नहीं कह सकती… कभी काम कर जाते थे तो कभी सारे उपाय करके भी मींह बरसता ही रहता था।

एक वाक़्या स्कूल में दाख़िले से जुड़ा है। तब स्कूल का नया सत्र अप्रैल में नहीं जुलाई में आरंभ होता था... पहली कक्षा में नाम लिखाना था। उस छोटे से शहर में नया  अंग्रेज़ी मीडियम कॉन्वेंट स्कूल खुला था। पापा चाहते थे मेरा दाख़िला उसी स्कूल में कराया जाए। एडमिशन कराने के लिए 2 दिन की छुट्टी लेकर दिल्ली से आए थे। जिस रोज़ पहुँचे काफ़ी देर हो चुकी थी तो अगले दिन सुबह स्कूल जाना था। रात से ऐसी घनघोर बारिश शुरू हुई कि थमने का नाम ना लेती थी। अम्मा ने खूब उपाय किए, कुछ देर वर्षा थोड़ी देर रुकी तो पापा मुझे रिक्शे में बिठाकर स्कूल ले गए।

स्कूल के गेट से प्रिंसिपल के ऑफ़िस तक का रास्ता पानी से भरा था रास्ते को समतल करने के लिए फैलाई ताज़ी मिट्टी कीचड़ में तब्दील हो चुकी थी रिक्शेवाले ने कहा, “भैया जी यहीं उतरने को पड़ेगा नहीं तो रिक्शा धँस जाएगा।” उसकी बात सही थी पापा मुझे लेकर वहीं उतर गए। कीचड़ के बीच-बीच में ईंटें डालकर पाँव रखने की जगह बनाई गई थी। मेरे छोटे-छोटे पाँव एक ईंट से दूसरी पर नहीं पहुँच पा रहे थे। तब तक बरसात फिर शुरू हो चुकी थी और पानी ऐसे झमाझम बरस रहा था कि छाते के चारों ओर से आकर हमें भिगो देने पर आमादा था। तब पापा ने एक हाथ से छाता और दूसरे हाथ से मुझे उठाकर वो रास्ता पार कराया। पापा के अंक में सिमटी मैं उस आनंदमय पल को सोख रही थी। किसी के लिए भी वो बहुत परेशान कर देने वाला पल हो सकता था लेकिन मेरे लिए वो बहुत महफ़ूज़ और नेह-भरा पल था जो सदा के लिए मन-मस्तिष्क पर अंकित हो गया था। सँभल-सँभल कर ईंटों पर पाँव धरते दफ़्तर में पहुँचे तो वहाँ उपस्थित दोनों सिस्टर (ईसाई स्कूल में अध्यापिकाओं को सिस्टर कहा जाता है)  हमें देखकर बहुत हैरान हुई… ख़ैर काग़ज़ी कार्रवाई पूरी हुई और मेरा दाख़िला उस समय के शहर सबसे नामचीन स्कूल ‘सेंट मेरीज़ कॉन्वेंट स्कूल’ में हो गया।

इस प्रकार घनघोर वर्षा में जीवन में नया सूर्योदय हुआ जिसने जीवन की दिशा ही बदल दी। वर्षा से जुड़े क़िस्से तो अनंत हैं मन के सागर में लेकिन कभी और। अभी तो यही आग्रह करूँगी कि हम सब अपनी ओर से यथासंभव प्रयास करें पर्यावरण को संरक्षित करने का और उसमें संतुलन बनाए रखने का।

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