विविशता (पाराशर गौड़)

29-08-2007

विविशता (पाराशर गौड़)

पाराशर गौड़

मुझे - 
मेरी भूख और मेरी मजबूरी
दोनों .....
हाथ उठाने पर मजबूर करती हैं
विविश करती हैं मुझे
एक नये अत्याचार को 
जन्म देने के लिए ।


तुम्हारे उपदेश .. ..
बार बार मेरे आड़े 
क्यों आ जाते हैं
"अहिंसा परमो धर्म:"
जहाँ धर्म ही नहीं रहा
वहाँ, उसका अस्तित्व 
कहाँ है, बोलो?


धर्म तो .. ..
अब एक राजनैतिक 
हथकंडा बन गया है
जब चाहा, जिसने चाहा, 
जहाँ चाहा
इस्तेमाल कर दिया।


इसके नाम पर .. ..
देखते नहीं, रोज़,
लाशों के अंबार
सुनते नहीं.. मासूम 
बच्चों का रुदन
बेबस महिलाओं 
की चित्कारें
फिर भी कहते हो .. "शान्ति"


मुझे तो बस ..
उस दिन का इन्तज़ार है
जब मेरे साथ 
तुम्हारे भी हाथ उठेंगे
भले, दुआओं के लिए सही ..
तब... तब तुम्हारी विविशता
तुम से कहेगी, 
कि अत्याचार
मेरे, मेरे ही, 
साथ नहीं हुआ
बल्कि तुम्हारे 
साथ भी हो रहा है ।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें