विराम- अविराम

डॉ. प्रतिभा सक्सेना (अंक: 164, सितम्बर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

मेरे कंप्यूटर का हिन्दीवाला कुंजी-पटल विराम-चिह्न लगाने में गड़बड़ करने लगा है, कितना ही खटखटाओ प्रश्न-चिह्न और विस्मयादिबोधक तो तशरीफ़ लाते ही नहीं - लेकिन अंग्रेज़ी का हो तो चट् हाज़िर। लगता है इनमें भी हिन्दी-कांप्लेक्स आ गया!

एक वाक्य भी पूरा नहीं कर पाई थी कि बाहर की घंटी बजी। सोचा, पूरा ही कर चलूँ। अंग्रेज़ी का ऑन किया, ज़रा सा इशारा मिलते ही प्रश्नू (प्रश्नचिह्न) आ विराजे। ओह, हड़बड़ी में चूक हो गई, यहाँ तो विस्मया (विस्मयादि प्रदर्शिका) की ज़रूरत थी। फिर खटकाया, विस्मया भी हाज़िर।

मैंने लिखा था - वाह, क्या ज़ोरदार बारिश हो रही है?!

और लिखते ही ध्यान आया पड़ोस की लड़की को बताया गया है कि जहाँ, क्या, कैसे, कहाँ, कौन जैसे शब्द आयें समझ लो प्रश्न-चिह्न लगेगा।

बच्चों को कितनी अधूरी जानकारी देते हैं लोग, सोचते-सोचते हड़बड़ी में ख़ुद गलत चिह्न लगा बैठी।

अब एक साथ खड़े थे दोनों, प्रश्नू और विस्मया - एक दूसरे को घूरते हुए।

एक को हटाना पड़ेगा, पर बाहर जाने की जल्दी थी अभी तो।

बहुत दिनों बाद चित्रा आई थी।

चाय-पानी और गप्पबाज़ी में ढाई घंटा निकल गया।

आज तो काम पूरा होने से रहा, सो उसके जाते ही वहीं कुर्सी पर पाँव पसार लिये। अलसाई लेटी थी आँखें मूँदे। अचानक कानों में कुछ आवाज़े लगीं –

'कैसी ख़राब आदत है, हर जगह मुँह बाये खड़े हो जाते हो, ज़रूरत हो चाहे न हो।'

'बिना बुलाये नहीं आता। बड़ी छम्मकछल्लो बनी घूमती है।'

'बे-ध्यान में खटका दिया तुम्हें, भागते चले आये। यहाँ तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं, सोच-समझ कर मुझे बुलाया गया है।'

'अपने को जाने क्या समझती है, भाव दिखाने से कभी मन नहीं भरता तेरा!'

अरे, ये कैसा झगड़ा हो रहा है। झाँक कर देखा सँड़ासी जैसा मुँह बनाए प्रश्न-चिह्न और बड़ी अदा से हाई हील पर सधी, कमर पर हाथ धरे विस्मयादि-प्रदर्शिका की तू-तू मैं-मैं चल रही है।

इन दोनों की तो जैसे छठी-आठैं है। बिलकुल नहीं पटती। एक दूसरे पर हमेशा खौखियाये रहते हैं।

प्रश्नू को लगता है जहाँ क्या, कैसा, कहाँ हो, वहाँ उसे होना चाहिये।

विस्मया भी चौकन्नी रहती है। तुरंत बहस करती चली आती है - 'चलो हटो वहाँ से, भाव व्यक्त हुआ है प्रश्न नहीं पूछा किसी ने…'

'तू काहे को बहस कर रही है, लिखनेवाला तय करेगा न।’

'हमारे भी कुछ अक़्ल है,' कमर पर हाथ धरे विस्मया कहाँ चुप रहनेवाली।

कोलाहल सुनकर लगा कुछ और लोग भी हैं वहाँ।

उफ़, चैन से बैठना मुश्किल कर दिया। पलट कर देखा – अर्ध और अल्प विराम, योजक, उक्ति, विवरण आदि लोग मजमा लगाये खड़े हैं। दोनों का तमाशा देख रहे हैं।

ये लोग भी कम थोड़े ही हैं। अल्पू और अर्धू दोनों विराम छोटे हैं तो क्या खोटे भी हो जाते हैं कभी-कभी। आपस में नहीं बनती। अल्पू छोटा -सा है पर बड़ा तेज़ और बहुधंधी है, फ़ुर्तीला भी बहुत है। ख़ूब सोशल है, हर जगह दिखाई दे जाता है। सामान्यतया से लोग इसे 'कामा' के नाम से जानते हैं। यही इसका ओरिजिनल नाम है भी - अंग्रेज़ी से आया है न!

उक्ति, और कोष्टक में भी दाँव-पेंच चलते रहते हैं।

योजक और विवरण-चिह्न अक़्सर कनफ़्यूजिया जाते हैं, पर हल्ला नहीं मचाते।

पूर्ण विराम सबसे बड़ा ठहरा उसके सामने सब रुक जाते हैं, पूरण दा आ गये। ज़रा, रुको भाई।

पूर्ण-विराम पूछ रहा था–

'क्यों रे अल्पू, तू छोटा है, कहीं भी दुबक कर बैठ जाता है, तुझे पता होगा बात क्या है।'

मैं भी उधर चली मेरी आहट सुन कर प्रश्नू और विस्मया चुप हो गये बाक़ी सारे हड़बड़ा कर की-बोर्ड में जा घुसे (बिना बुलाये आ गये थे न)।

जैसी उदार हमारी संस्कृति है, वैसी ही वर्णमाला (मुझे लगता है विरामचिह्न लोग वर्णमाला के अंतर्गत होने चाहियें।) सबको धारण कर लेनेवाला विशाल-हृदय है उसका।

ये सब लोग पश्चिमी जगत से हिन्दी में आये हैं। संस्कृत की पूर्वभाषा थी छन्दस्, जिसमें वेदों की रचना हुई, वह श्रुत परम्परा में रही थी। उसमें आशय को स्पष्ट करती विराम योजना मुखोच्चार से अनायास सम्पन्न हो जाती थी। (श्रुत परंपरा चली ही इसलिये थी कि उच्चारण, अपने पूरे उतार-चढ़ाव और भंगिमाओं सहित वांछित और संपूर्ण हों। लिखित रूप में संकेतों के अनुसार बोलने में आरोह-अवरोह ठहराव, भंगिमा और शब्दों के उच्चार में वही पूर्णता लाना संभव नहीं)।

आगतों ने भाषा के सहायक-उपकरण के रूप में प्रवेश किया था।

पहले बराबर का चिह्न धीरे से चला आया, चलो ठीक है रहने दो भाई। फिर तो घुस-पैठ बढ़ती गई, धड़ल्ले से लोग आने लगे। 

विवरण चिह्न, देख रहे हो न, ये दो रूप धरता है।

दो बिन्दु लगा कर आगे पढ़ने का संकेत देता है, जब लोगों ने चिढ़ाना शुरू किया कि कैसा लदा है पीठ पर, अपने से खड़ा नहीं हुआ जाता – तो दोनों बिन्दुओं के बीच छोटी सी रेखा खींच नया रूप बना लिया।

अब एक नया ढंग चला है एक तीर लगा कर बताता है, 'इधर देखो।'

पूरी लंबाई वाले पूरण दादा (पूर्ण-विराम) की गिनती के हमारे बूढ़-पुरनियों में हैं। पता नहीं कब से विराज रहे हैं। लंबे इतने हैं, अक्सर ही टेढ़े हो जाते हैं। गिरें तो कहीं फ़्रैक्चर न हो जाय सो लोग इन्हें आराम करने की सलाह देते हैं। बहुतों ने इनकी जगह बिन्दु को तैनात कर दिया है। रोड़े जैसे अड़ कर रास्ता रोक लेने में माहिर हैं न। रुकना ही पड़ेगा सबको। पुरातनपंथी हल्ला मचाते हैं, अरे पूर्ण विराम ही तो एक हमारा है। उसे रहने दो बाक़ी सब तो नई दुनिया से आए हैं।

अरे भाई, अब तो सब अपने हैं सब के सब तत्पर रहते हैं, अपना-पराया मत करो - वसुधैव कुटुम्बकम्। और सच तो यह है, जिस खड़ी रेखा को पूर्ण-विराम बताया जा रहा है वह अपने में ही संदिग्ध है। ग्रंथों में देख लीजिये वहाँ अर्ध-विराम के रूप में भी प्रयुक्त है। किसी भी धार्मिक ग्रंथ को उठा लीजिये, अर्धाली पूरी होने पर एक खड़ी रेखा पूरा होने पर दो रेखायें, अर्थात् पूर्ण विराम। कभी-कभी तो उनसे भी काम नहीं चलता, छंद संख्या देने बाद फिर वही दो लकीरें। अब हम क्या कहें - प्रमाण सामने है, तो फिर हम एक खड़ी पाई को कैसे प्रामाणिक पूर्ण-विराम मान लें?

अब उक्ति चिह्न - उक्ति को जब कहीं से लाया जाता है तो सबसे पहले अपनी सुरक्षा के लिये दोनों ओर सीमाओं का अंकन करवा लेती है। उसे कहीं से उठा कर लाया जाता है सो अच्छी तरह समझती है। अकेली महिला को देख लोगों की अतिक्रम (मर्यादा का) करने की आदतें जग-विदित हैं। वह सावधानी रख कर पहले ही पूरा प्रबंध कर लेती है।

रेखा हमेशा की उतावली, हाई लाइट करती, अपनी धाक जमाती चलती चली जाती है- कर लो, कोई क्या कर लेगा।

कोष्ठक तीनों जेलर टाइप के हैं। मूल रूप से गणित के वासी हैं। जनता की सुविधा सरलता के लिये कुछ लोगों को अंदर बंद कर लेते हैं। ये लोग तीन भाई हैं। बड़ा वाला गंभीर व्यक्ति है, मँझला भी अधिकतर अपने में ही रहता है। ये छोटावाला अधिक तत्पर है,और सबको स्पष्टीकरण देता रहता है।

बाक़ी बची लोपामुद्रा, लोप होने की मुद्रा है न इसकी। छोटा नाम इस पर अधिक जँचता, है सो घर में लोपा कहते हैं हम।

प्रतिशत, डालर, पाउंड, अपना विदेशीपन कायम रखे हैं। 

कंप्यूटर के आने के बाद तमाम लोग बाउंड्री पार कर कूद आये। कितने अंग्रेज़ी के रास्ते आये लेटिन से अल्फ़ा, बेटा, डेल्टा आदि प्रविष्ट हो गये &*^3@,और भी जाने कौन-कौन।

परिवार है आबादी बढ़ेगी ही।

देखो भाई, ज्ञान-विज्ञान की शाखाएँ चल निकली हैं। उनकी अपनी गति-मति, सब फलती-फूलती बढ़ेंगी वांछित दिशाओं में।

आगे का हाल - अब पूछो मत, देखे जाओ।

आगे-आगे देखिये होता है क्या!

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
बाल साहित्य कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कविता
ललित निबन्ध
साहित्यिक आलेख
किशोर साहित्य कविता
बाल साहित्य कहानी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में