विछोह का विष
डॉ. विवेक कुमारकल की तरह आज भी
नहीं नकारता मैं इस सच को कि
होती है कोई-न-कोई वजह
किसी के ख़ुश या उदास होने की...
दुःख और मुश्किलों के अंधकार के बीच
हमेशा ही कौंध जाती थी विश्वास से चमकती
तुम्हारी आँखें और ख़ुश हो जाता था मैं...
यह सच है कि कल तक
सभी बेड़ियों को तोड़कर
लहरों पर मचल कर निकल पड़ती थी
मेरी इच्छाओं-हसरतों की नाव
तुम्हारी स्मृतियों की दस्तक मात्रा से...
डसती तो थी तुम्हारी अनुपस्थिति सदैव ही
किसी चोटिल नागिन-सी
किंतु तुम्हारी वापसी की संजीवनी
फूँक जाती थी जान मुझमें हर बार ही...
वर्षों से बाट-जोहते
आज तुम्हारे आने की मनोवांछित ख़ुशी से भी
ख़ुश नहीं हो पा रहा हूँ मैं...
यह सोचकर अशांत हूँ मैं कि
तुम्हारे मिलन के बाद
कैसे पी सकूँगा विछोह का विष...