वीर अभिमन्यु

01-06-2021

वीर अभिमन्यु

डॉ. नितिन सेठी (अंक: 182, जून प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

मूल लेखिकाः डॉ. पामेला लोथस्पिच
अनुवादकः डॉ. नितिन सेठी

 

(प्रस्तुत आलेख डॉ. पामेला लोथस्पिच की प्रसिद्ध पुस्तक ‘द एपिक नेशनः रिमेजनिंग द महाभारत इन द एज ऑफ़ द ऐम्पायर’ के एक अध्याय पर आधारित है। ‘द एपिक नेशन’ ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित हुई है। डॉ. पामेला अमेरिका में एशियन स्टडीज़ की प्रोफ़ेसर हैं। पामेला जी ने प्रस्तुत पुस्तक में महाभारत के सम्बंध में महत्वपूर्ण विचार किए हैं। इसी में एक अंश पंडित राधेश्याम रामायण कथावाचक के प्रसिद्ध नाटक ‘वीर अभिमन्यु’ पर भी आधारित है, जिसका नाम है ‘वीर अभिमन्यु एंड द फ़ैबुलस पारसी थियेटर’। प्रस्तुत अध्याय का अँग्रेज़ी से हिंदी भाषा में भावानुवाद हिंदी और अँग्रेज़ी साहित्य के प्रख्यात् अध्येता डॉ. नितिन सेठी प्रस्तुत किया है, जिसके लिए डॉ. नितिन सेठी के हम आभारी हैं —सम्पादक)

मैथिलीशरण गुप्त का जयद्रथ वध जब सन्‌ 1910 में प्रकाशित हुआ था, अनेक हिंदी कवियों और नाटककारों ने अभिमन्यु विषय को आधार बनाकर अपनी रचनाएँ लिखीं। तब कम से कम 11 कृतियाँ वीर अभिमन्यु के जीवन और पाँच कृतियाँ अभिमन्यु वध पर आधारित रही थीं। एक हिंदी नाटक ‘वीर अभिमन्यु’ परिपूर्णानंद वर्मा द्वारा कुल पाँच बार सन् 1926 से 1937 के बीच में प्रकाशित किया गया। राधेश्याम कथावाचक का वीर अभिमन्यु नाटक जो सन् 1916 में मंचित हुआ था, वह भी बड़ा प्रसिद्ध रहा। इस प्रकार अभिमन्यु का चरित्र उत्तर भारत की साहित्य परंपरा में एक महत्वपूर्ण विषय बनकर उभरा। अंतर केवल इतना ही था कि मैथिलीशरण गुप्त, महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनकी पत्रिका ‘सरस्वती’ की परंपरा से निकले थे जबकि राधेश्याम कथावाचक पारसी थियेटर की परंपरा से संबंधित रहे थे। दोनों रचनाकारों का लक्ष्य एक ही था—महाभारत पर आधारित कथा का शब्दांकन। कथावाचक भी वीर अभिमन्यु जैसे हिंदू चरित्रों को मंच पर लाते थे और इस तरीक़े से देशवासियों में हिंदुत्व का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। दोनों ही लेखक खड़ी बोली हिंदी का स्तर भी उठाना चाहते थे। परंतु यहाँ एक महत्वपूर्ण अंतर था। गुप्तजी ने ब्रजभाषा कविता को अपना माध्यम नहीं बनाया जबकि कथावाचक ने ब्रजभाषा साहित्य से बहुत सारी सामग्री अपने सृजन के लिए प्राप्त की। कथावाचक ने महाभारत से अनेक विषयों को स्टेज के हिसाब से परिवर्तित भी किया था। उनके सामने सामाजिक प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण थे, जिस कारण पंडित राधेश्याम ने अपने लेखन में अपेक्षित परिवर्तन भी किए थे।

पंडित जी ने उस समय की अभिमन्यु आधारित अनेक कृतियों का अध्ययन किया था परंतु उन्हें अनुभव हुआ कि इनमें से अधिकांश मंच के लिए उपयुक्त नहीं थीं। इसीलिए वह महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा अनूदित सचित्र महाभारत ख़रीद कर लाए और इसके आधार पर अपना अभिमन्यु नाटक लिखा। कथावाचक न्यू अल्फ़्रेड थिएट्रिकल कंपनी मुंबई के सोराब जी फरामजी ओगरा के कहने पर इसके कथ्य पर काम कर रहे थे। कथावाचक की स्क्रिप्ट से प्रभावित होकर उन्होंने उनके इस नाटक के मंचीय प्रस्तुतिकरण की हामी भर दी। उल्लेखनीय यह भी है कि आगा हश्र कश्मीरी द्वारा लिखित ‘सूरदास’ के मंचन को भी उन्होंने राधेश्याम के इस अभिमन्यु नाटक के कारण रोक दिया। वीर अभिमन्यु का प्रथम नाट्यमंचन 4 फरवरी सन् 1916 को दिल्ली के संगम थियेटर में हुआ। हॉल खचाखच भरा था। सभी लोग सोच रहे थे कि छः घंटे लंबा यह नाटक दर्शकों को पसंद भी आ पाएगा या नहीं। अनेक उहापोहों के बीच जब इस नाटक का मंचन किया गया, अप्रत्याशित परिणाम मिले। ‘सरस्वती’, ‘विजय’, ‘ब्रह्मचारी’, ‘सनातन धर्म पताका’, ‘प्रताप’, ‘प्रतिभा’ आदि पत्र-पत्रिकाओं ने वीर अभिमन्यु की सर्वांग प्रशंसा प्रकाशित की। महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा प्रशंसा मिलने पर कथावाचक लिखते हैं, “मैं फूला नहीं समाया। देश के कोने-कोने में वीर अभिमन्यु का मंचन किया गया।” अपने प्रथम नाटक वीर अभिमन्यु के बाद कथावाचक जी ने और भी अनेक नाटक लिखे, जो हिंदू चरित्रों पर आधारित थे। ‘श्री कृष्ण अवतार’ नाटक के अभिनेता भोगीलाल के चित्र की तो लोग अपने-अपने घरों पर पूजा किया करते थे। इसी प्रकार ‘परमभक्त प्रहलाद’ और ‘श्रवण कुमार’ भी व्यावसायिक रूप से सफल नाटक थे। ‘श्रवण कुमार’ सन् 1967 तक चौदह बार प्रकाशित किया गया। कथावाचक ने ‘परिवर्तन’ नाम का एक सामाजिक नाटक भी लिखा, वह भी ओबरा जी के कहने पर। उन्होंने ‘परिवर्तन’, ‘मशरीकी हूर’, ‘श्री कृष्ण अवतार’ ‘रुक्मणी मंगल’, ‘श्रवण कुमार’, ‘ईश्वर भक्ति’ और ‘द्रौपदी स्वयंवर’ नामक कुल सात नाटकों का निर्देशन भी किया। ‘वीर अभिमन्यु’ की प्रसिद्धि के बाद की सफलता के बाद पंडित राधेश्याम न्यू अलफ़्रेड कंपनी के स्टाफ़ लेखक बन गए। यद्यपि उन्होंने बहुत सारे नाटक इस कंपनी के लिए लिखे, साथ ही साथ कुछ नाटक अन्य कंपनियों के लिए भी उन्होंने लिखे। इनमें ‘सूर्य विजय समाज’ और कोलकाता की ‘मदन थिएटर’ नाटक कम्पनियाँ प्रमुख हैं। न्यू अलफ़्रेड से उन्होंने सन् 1930 में इस्तीफ़ा दे दिया और मदन थियेटर में काम करने लगे। कथावाचक जी ने ’शकुंतला’ नाम की फ़िल्म के संवाद और गाने भी लिखे। उन्होंने इस फ़िल्म का निर्देशन भी किया और यह बड़ी प्रसिद्ध हुई। ‘श्री सत्यनारायण’ और ‘झांसी की रानी’ फ़िल्म की कहानियाँ भी कथावाचक जी ने लिखीं। कथावाचक जी न केवल नाटकों और फ़िल्म कहानी के प्रसिद्ध लेखक थे बल्कि अपने समय के प्रसिद्ध कवि भी थे। उन्होंने न केवल अपने नाटकों को गीतों में ढाला, बल्कि ‘कृष्णायन’ और ‘रामायण’ जैसे महाकाव्यों की रचना भी की। इसके अतिरिक्त भी उनके अनेक गीत, भजन, छंद आदि धार्मिक और ऐतिहासिक चरित्रों पर आधारित मिलते हैं। मुख्यतः उन्हें ‘राधेश्याम रामायण’ नामक ग्रंथ से काफ़ी प्रसिद्धि मिली थी। उल्लेखनीय बात  यह भी है कि रामानंद सागर द्वारा निर्मित ‘रामायण’ धारावाहिक के बहुत सारे स्रोत राधेश्याम रामायण से ही लिए गए हैं। अपने समय में कथावाचक जी भारत भर में प्रसिद्ध थे। राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू, पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, विशंभरनाथ कौशिक आदि सभी ने राधेश्याम जी की प्रशंसा मुक्त कंठ से की है। नेपाल सरकार ने तो उन्हें ‘कथा वाचस्पति’ की उपाधि प्रदान की थी। उत्तर प्रदेश सरकार ने मेरा नाटक काल पर उन्हें सम्मानित किया था। सन् 1927 में ‘हिंदी नाट्य परिषद्’ और ‘बजरंग परिषद्’ ने भी उनके सम्मान में आयोजन किए थे। अपने जीवनकाल में ही पंडित राधेश्याम को नाम और नामा दोनों ही पर्याप्त मात्रा में मिले । आश्चर्य की बात है इसके बाद के अनेक आलोचकों ने पंडित राधेश्याम के सृजन को उतनी मान्यता नहीं प्रदान की।

अपने लेखन काल के आरंभ में कथावाचक जी को अपने नाटकों को प्रकाशित करवाने का एकाधिकार नहीं प्राप्त था। इसका वर्णन वे अपनी पुस्तक ‘मेरा नाटक काल’ में करते हैं। वे बताते हैं कि न्यू अलफ़्रेड कंपनी के प्रबंधक गौरीशंकर मिश्रा द्वारा अँग्रेज़ी में दिए गए कांट्रेक्ट पर उन्होंने कितने बेमन से हस्ताक्षर किए थे। इसमें न्यू अलफ़्रेड कंपनी ने ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक का एकाधिकार पंडित राधेश्याम से माँगा था। कथावाचक जी आगे भी बताते हैं कि वैसे दो या तीन वर्षों बाद ‘वीर अभिमन्यु’ को प्रकाशित करने का अधिकार कंपनी ने उन्हें दे दिया था। ‘श्रवण कुमार’ के सन् 1916 के संस्मरण में भी वे कंपनी प्रबंधन का इस बात का धन्यवाद ज्ञापित करते हैं कि कंपनी ने उन्हें नाटक प्रकाशित करने और बेचने का अधिकार प्रदान किए। सन्‌ 1924 में न्यू अलफ़्रेड कंपनी के साथ पंडित जी ने एक कांट्रेक्ट किया, जिसमें उन्हें अपने नाटकों को प्रकाशित करने का अधिकार मिल गया परंतु वे इन्हें तभी प्रकाशित कर सकते थे, जब वे उस नाटक के बाद एक अगला नाटक लिख लें। तब भी सन् 1943 तक कथावाचक जी के कुछ नाटक कॉपीराइट के झगड़े के कारण प्रकाशित नहीं हो पाए थे। कथावाचक जी ने सन 1917 में अपनी प्रैस ‘राधेश्याम पुस्तकालय’ खोली थी। उस समय भी साहित्य चोरी की प्रथा थी। इस कारण अपना फोटो और हस्ताक्षर वे इन पुस्तकों पर छापा करते थे। तभी उन्होंने देखा कि बरेली के ही पास की एक प्रैस ने वीर अभिमन्यु की दो हजार कॉपी धोखाधड़ी से छाप ली हैं। आश्चर्य यह भी था कि उसमें उनका फोटो और हस्ताक्षर भी थे। परंतु उनके पुत्र ने इन सब पुस्तकों को बाजार में जाने से पहले ही जब्त करवा लिया था। इसी अंतराल में एक लेखक थे वेणीराम त्रिपाठी, जिनके तीन नाटक ‘वीर अभिमन्यु’, ‘श्रवण कुमार’ और ‘भक्तवर प्रह्लाद’; पंडित राधेश्याम कथावाचक के नाटकों से बहुत ज़्यादा साम्य रखते थे। वैसे वेणीराम त्रिपाठी के नाटक अपने कथ्य और प्रस्तुतीकरण में राधेश्याम जी के नाटकों से बहुत हल्के भी थे। न ही उनकी कविता में वह भावतत्व था, जो राधेश्याम जी की क़लम से उपजता था। त्रिपाठी जी के भावहीन और रसहीन वर्णन कथावाचक जी के नाटकों के सामने कहीं नहीं ठहर पाए। त्रिपाठी जी ने बड़ी संख्या में धार्मिक और ऐतिहासिक विषयवस्तु के नाटकों की रचना की ।उनकी अधिकांश रचनाएँ कम गुणवत्ता के काग़ज़ पर छपती थीं। यही अंतर दोनों की पुस्तकों के मुख्यपृष्ठों में भी रहता था।

पंडित राधेश्याम कथावाचक के ‘वीर अभिमन्यु’ का मुख्य प्लॉट महाभारत की एक कथा है। यह नाटक तीन अंकों में विभाजित है। उस समय के व्यवसायिक नाटकों की तरह ही इसमें भी प्रत्येक अंक के बाद पर्दा गिरता है और कुछ भावुकता भरे संवाद आते हैं। प्रथम अंक में कौरवों द्वारा चक्रव्यूह बनाना और अभिमन्यु की निर्मम हत्या के दृश्य रखे गए हैं। दूसरे अंक में अभिमन्यु की मृत्यु का बदला और अर्जुन द्वारा जयद्रथ के वध की शपथ दिखाई गई है। तृतीय अंक में श्रीकृष्ण की सहायता से अर्जुन जयद्रथ का वध कर देते हैं। नाटक की गति तीनों अंकों में समान है। अधिकांश सम्वाद गीतों या कविताओं में रखे गए हैं। कथावाचक जी ने महाभारत के समानांतर ही वीर अभिमन्यु की कथा भी चलाई है। यद्यपि मैथिलीशरण गुप्त के ‘जयद्रथ वध’ की भाँति ही कुछ आवश्यक परिवर्तन नाटक में किए गए हैं। उदाहरण के लिए ‘वीर अभिमन्यु’ का आरंभ कथावाचक जी कुछ सुधारवादी उत्साह से करते हैं। इसमें वे भाषा का प्रश्न भी उठाते हैं। नाटक का आरंभ मंगलाचरण से होता है। सूत्रधार, नट और नटी का आपसी संवाद भी है; जिसमें वे मंच पर खेले जाने वाले नाटक का आपस में वर्णन करते हैं। वे यह भी दर्शाते हैं कि यह ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक पारसी रंगमंच पर दिखाए जाने वाले वध दृश्यों से किस प्रकार अलग है। कथावाचक जी का सदैव यह प्रयास रहा कि वे कुछ ऐसा दिखाएँ जिसमें मनोरंजन के साथ-साथ हमारे देश और समाज का भी कल्याण हो। नाटक के अभिनेता से राधेश्याम जी कहलवाते हैं, “और सुनो यह एक हिंदू नाटक है। हिंदी भाषा का इसमें प्रयोग है। सभी अभिनेताओं को समझा दिया जाए कि वे हिंदी और हिंदू दोनों का ही आदर और सम्मान, अपने चरित्रों और प्रदर्शन में और अपने संवादों में बनाए रखेंगे क्योंकि हमें आर्य सभ्यता का गौरवपूर्ण इतिहास जनता तक पहुँचाना है। वास्तव में यह शुरुआती संवाद कुछ राजनैतिक विचार लिए हुए रहते थे। एक प्रकार से राधेश्याम दर्शाना चाहते थे कि समय की माँग है। देश की संस्कृति भी हिंदी और हिंदुत्व के कारण ही बची रह सकेगी। ये सब बातें हिंदुत्व के प्रति कथावाचक जी का समर्पण दिखलाती हैं। उल्लेखनीय है कि अपने नाटकों की विषयवस्तु और भाषा-शैली, दोनों ही पंडित जी ने भारतीय भूभाग से सम्बंधित रखें। 

धार्मिक-राजनैतिक एजेंडे का अंतर्गुंफन यहाँ स्पष्ट दर्शनीय है।

वीर रस और शृंगार रस में भाषा प्रयोग—

‘वीर अभिमन्यु’ में कथावाचक ने अभिमन्यु का उत्तरा से संपर्क दिखलाया है। गुप्त जी की तरह ही राधेश्याम दिखलाते हैं कि वीर अभिमन्यु अपनी पत्नी उत्तरा के पास जाता है और उसे अपनी जीत का आश्वासन देता है। उत्तरा तक पहुँचने से पहले अभिमन्यु अपने हृदय में एक अंतर्द्वंद्व महसूस करता है, “मेरी वीरता कह रही हो, जाओ! जाओ! जाओ और अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करो। जाओ शत्रुओं को नष्ट कर दो। जबकि मेरा प्रेम कहता है युद्ध के मैदान में जाने से पहले प्रेम के मैदान में जाओ। अपनी उत्तरा को बाँहों में भर लो और मुरझाती हुई माधुरीलता को रसवंती बना दो। अभिमन्यु सोचता है जितना वह वीरता का निवेदन माँगता है, उतना ही प्रेम का तत्व उसको अपने मोहपाश में लेता जाता है। यहाँ राधेश्याम जी एक कविता भी रखते हैं–

देखो, प्रेम का पंथ निराला।
नैना थके प्रेम-रस भरत न प्यास-पियाला॥ 
क्षीर उठत है महावेग से, जब लागत है ज्वाला॥
बैठ जात है वाही छिन, जब जल का छींटा डाला॥
देखो प्रेम का पंथ निराला॥ 

द्रष्टव्य है, यहाँ कथावाचक जी ने ब्रजभाषा का प्रयोग भी किया है। प्रेम के आवेगों को दर्शाने के लिए कथावाचक जी ब्रजभाषा का आश्रय लेते हैं। जबकि अधिकांश नाटक का हिस्सा खड़ी बोली हिंदी में ही रचा गया है। इस कविता में अभिमन्यु प्रेम का कराल पंथ दर्शाता है। जिस प्रकार उफनते हुए दूध पर पानी का छींटा डालें तो दूध का उबलना शांत हो जाता है। अभिमन्यु की स्थिति भी ठीक इसी प्रकार की है। अभिमन्यु सोचता है जिस क्षण मैं उत्तरा से मिलूँगा, उसके प्रेम की भावना शांत हो जाएगी। इस समय अभिमन्यु प्रेम और कर्तव्य के भँवर में फँसा हुआ है। पंडित राधेश्याम कथावाचक यहाँ ब्रजभाषा के विरह वर्णन का शाब्दिक चित्र उत्पन्न कर देते हैं। इसी प्रकार वे उत्तरा के विरह वर्णन को दर्शाते हैं। उत्तरा भी वर्षा का एक गीत गाती है और अपने अनुपस्थित पति को याद करती है। उत्तरा का विरह होली की बरसात में दिखाया गया है, जिसमें श्लेष अलंकार के द्वारा कथावाचक लिखते हैं, “वर साथ नहीं अर्थात बरसात नहीं”। ये दो दिन उसे दो वर्षों के समान दुखदाई लगते हैं। राधा और शकुंतला की तरह ही वह भी विरह से व्यथित है और उसकी सखियाँ उसके स्वास्थ्य की चिंता करती हैं। जब अभिमन्यु पहुँचता है, उत्तरा प्रसन्न होती है; परंतु जल्दी ही युद्ध के बारे में सुनकर वह दुःख के सागर में डूब जाती है। अभिमन्यु उसे समझाता है और कहता है कि मैं अपने वीर रस के उद्यान को तुम्हारे प्रेम जल से सींचने आया हूँ। वह कहता है, “तुम्हारे चेहरे पर ये आँसू ऐसे लग रहे हैं, मानो सूरजमुखी के पुष्प पर ओस के कण।" उत्तरा का हृदय अभी भी व्यथित है और वह अपशकुन देखती है। अभिमन्यु अभी भी युद्ध में जाने की ज़िद करता है और उत्तरा उसको न जाने के लिए कहती है। ध्यान से देखा जाए तो पंडित राधेश्याम कथावाचक अभिमन्यु और उत्तरा के चरित्रों का मानवीय स्वभाव यहाँ दर्शाते हैं। वीर रस के आगे शृंगार रस हार जाता है। यह सत्य भी है। देश के लिए लोग स्वयं का और अपने परिवार का बलिदान करने में नहीं हिचकते।

चक्रव्यूह में जाने से पहले अभिमन्यु प्रण करता है कि वह चक्रव्यूह को भंग करके दिखाएगा। युद्ध में अभिमन्यु पराक्रम दिखाते हुए कौरवों द्वारा निहत्था मारा जाता है। यहाँ प्रथम दृश्य का समापन हो जाता है। पंडित जी ने वीर और करुण रस का सुंदर समन्वय किया है। अभिमन्यु और उत्तरा के दैवीय संबंधों में  शृंगार रस है। कथावाचक जी के नाटकों में व्यवसायिकता और रंगमंचीयता की दृष्टि से कुछ दृश्य अवश्य जोड़े जाते थे। सामान्य सी बात है जनता भी कुछ ऐसे काल्पनिक चित्र  देखना चाहती थी। इसीलिए भावुकता के कुछ बिंदु इस प्रकार जोड़े जाते थे कि जनता की भावनाएँ नाटकों के साथ जुड़ सकें। उदाहरण के लिए जब अर्जुन जयद्रथ और उसके पिता का वध करते हैं, तब व्याकुल भारत नाम की कंपनी में दर्शाया गया है कि भयंकर तूफ़ान आता है, बिजली कड़कती है और बारिश होने लगती है। तारे आकाश से ग़ायब हो जाते हैं। बड़े-बड़े राक्षस दिखाई देते हैं, जिनके मुँह से आग और साँप निकल रहे हैं।आकाश में तीर चलने लगते हैं। कुछ निर्धारित दृश्य तो पारसी थियेटर में निर्धारित ही रहते थे, जो जनता की उत्तेजना भी बढ़ाया करते थे। वैसे तो इस प्रकार के दृश्य इन नाटकों की सत्यता में एक प्रकार की बाधा थे परंतु व्यवसायिक बुद्धि इन बातों को नहीं सोचती थी। अभिमन्यु का शरीर जब जीवनहीन होकर मंच पर पड़ा है, देवता उन्हें स्वर्ग की ओर ले जाते हैं। जब अर्जुन जयद्रथ का वध करते हैं और जब विजयी पांडव अपने उत्तराधिकारी परीक्षित को राज्य सौंप देते हैं, तब इस प्रकार के दृश्यों का आना आम बात है। कथावाचक लिखते हैं, “अभिमन्यु चक्रव्यूह के दृश्य में मैं भी भाव विह्वल हो गया था। जब देवता उसको स्वर्ग में ले जाते हैं और पुष्प वर्षा करते हैं जनता ने अनेक बार पर्दा उठाने का और यह दृश्य दिखाए जाने का आग्रह किया। ’वंस मोर-वंस मोर’ की आवाज़ों ने मुझे भी भुला दिया।” उस समय के पारसी थिएटर का यह भी गुण था कि बीच-बीच में हास्यप्रधान दृश्य रखे जाते थे। बेताब की ‘महाभारत’ और अन्य पारसी नाटकों में यह परंपरा मिलती है। पुरुष कॉमिक का किरदार स्वयं ओबरा जी निभाते थे। विदूषक राजबहादुर वीर पांडवों के बिल्कुल ऑपोज़िट रूप में था। राजबहादुर दिशाहीन और लक्ष्यहीन है। वह दुर्योधन की चापलूसी करता है और राजबहादुर की पदवी प्राप्त करता है। दर्शकों को भी वह समझाता है, “यदि जीवन का आनंद लेना चाहते हो तो चापलूसी करना सीखो। यदि धनी होना चाहते हो, बड़ा आदमी बनना चाहते हो तो तलवे चाटना सीखो। तुम्हें किसी विद्यालय जाने की आवश्यकता नहीं है, चापलूसी सीखने के लिए। सबसे अच्छे गुरू तो भद्रपुरुष हैं, धनी नौकर, वेश्याएँ, अभिनेता और दरबारी लोग हैं। एक सामान्य से व्यापारी का बेटा भी जागीरदार बन सकता है।” राजबहादुर को गाने गाते भी दिखाया गया है। वास्तव में इस प्रकार के चापलूस चरित्र रखने के पीछे पंडित राधेश्याम कथावाचक का एक दृष्टिकोण था। वे ज़मींदार वर्ग पर प्रहार करना चाहते थे। ब्रिटिश सरकार कोई न कोई उपाधि, जागीरें, धनराशि आदि देकर अनेक ज़मींदारों को अपना ग़ुलाम बना लेती थी। इसी क्रम में आगे दिखाया गया है कि राजबहादुर अंतरात्मा की आवाज़ पर युद्ध में भाग लेने से मना कर देता है, जो दर्शाता था कि अनेक ज़मींदारों ने स्वतंत्रता सेनानियों से प्रेरित होकर ब्रिटिश सरकार की ग़ुलामी करना छोड़ दिया था। राजबहादुर उर्दू भाषा का प्रयोग करता है। पंडित राधेश्याम उसकी सामाजिकता पर भी व्यंग्य करते हैं। पर्दा-प्रथा का पालन, स्त्री शिक्षा के विरोध और विधवा विवाह के विरोध पर पंडित जी इन चरित्रों की जमकर खिंचाई करते हैं। राजबहादुर की चिंता है कि उसकी नई-नवेली पत्नी सुंदरी को ख़ूब सारी आज़ादी चाहिए। इसका कारण वह स्त्री शिक्षा को ही दर्शाता है। वह डरता भी है कि उसकी पत्नी सुंदरी उसकी मृत्यु के बाद पुनः विवाह कर लेगी। सुंदरी को यहाँ उत्तरा के विपरीत चरित्र में दर्शाया गया है। अपनी मज़ाकिया प्रवृत्तियों के बावजूद भी ‘वीर अभिमन्यु’ का यह चरित्र धार्मिक उन्माद, महिलाओं की सामाजिक स्थिति और ज़मींदारी व्यवस्था को भली-भाँति सामने लाता है।

यह मात्र संयोग नहीं है कि ‘अभिमन्यु’ जहाँ एक ओर पारसी थियेटर में धार्मिक चरित्र बनकर आया, वहीं आधुनिक हिंदी में प्रबंधकाव्य का प्रसिद्ध चरित्र बनकर भी आया। एक ओर राधेश्याम जी का ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक था, तो दूसरी ओर कविवर मैथिलीशरण गुप्त का ‘जयद्रथ वध’ था। इनमें और इस प्रकार की अन्य कृतियों में अभिमन्यु को अनेक मानवीय गुणों से युक्त दिखाया गया है। अभिमन्यु आज्ञाकारी पुत्र, समर्पित पिता, वीर और शौर्यवान क्षत्रिय है। परतंत्रता के समय हिंदी साहित्यकारों ने अभिमन्यु की कथा अन्योक्तिपूर्ण ढंग से सुनाई; जिसमें भारतवर्ष ब्रिटिश राज के चक्रव्यूह में फँस जाता है और जिस से निकलना न केवल राजनैतिक रूप से बल्कि नैतिक सुधारों के लिए और अपनी संस्कृति को बचाए रखने के लिए भी ज़रूरी था। अभिमन्यु जहाँ एक ओर महान योद्धा था, वहीं दूसरी ओर देश पर प्राण न्यौछावर करने वाला एक स्वतंत्रता सेनानी भी था।  अपने कुल, देश और धर्म के नाम पर कथावाचक जी का अभिमन्यु अपना  जीवन क़ुर्बान कर देता है। अभिमन्यु ने अपने प्राण सोलह वर्ष की की अल्पायु में ही देश के लिए न्यौछावर कर दिए। ठीक इसी समय भारत के अन्य अनेक राज्यों में न जाने कितने नामी-अनामी स्वतंत्रता सेनानी अपने और अपने परिवारों का होम देश की रक्षा कर रहे थे। ये सब स्वतंत्रता सेनानी हमारे क्षेत्रीय गीतों में आज भी याद किए जाते हैं और इनका नाम आज भी अमर है। राधेश्याम कथावाचक ने शब्दों में भी इन्हें जीवित रखा।

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