वेदना का पक्ष
संजय वर्मा 'दृष्टि’स्त्री की उत्पीड़न की
आवाज़ टकराती पहाड़ों पर
और आवाज़ लौट आती
साँझ की तरह
नव कोंपले वसंत मूक बना
कोयल फिजूल मीठा राग अलापे
ढलता सूरज मुँह छुपाता
उत्पीड़न कौन रोके
मौन हुए बादल
चुप सी हवाएँ
नदियों व् मेड़ों के पत्थर
हुए मौन
जैसे साँप सूँघ गया
झड़ी पत्तियाँ मानो रो रहीं
पहाड़ और जंगल कटते गए
विकास की राह बदली
किन्तु उत्पीड़न की आवाज़ें
कम नहीं हुईं स्त्री के पक्ष में
वासन्तिक छटा में टेसू को
मानों आ रहा हो ग़ुस्सा
वो सुर्ख लाल आँखें दिखा
उत्पीड़न के उन्मूलन हेतू
रख रहा हो दुनिया के समक्ष
वेदना का पक्ष
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