वे मेरे ‘घर’ से मिलने आये थे

12-01-2016

वे मेरे ‘घर’ से मिलने आये थे

दिविक रमेश

घर कितना खूबसूरत और कितनी अपनी चीज होता है यह तो हम सब जानते हैं पर घर की महिमा का एक खास पक्ष मुझे हिन्दी के एक बहुत बडे और लोकप्रिय कवि के द्वारा भी जानने को मिला था। उन्होंने बच्चों के लिए भी बहुत प्यारी-प्यारी कविताएँ लिखी हैं जो उनके तीन संकलनों ‘जन्मदिन की भेंट’, ‘बंदर बाँट’ और ‘नीली चिड़िया’ में संकलित हैं।

उनसे गहरा परिचय होने से पहले मेरा जरा भी व्यक्तिगत परिचय नहीं था। उन दिनों वे अपने अभिनेता-पुत्र के साथ बंबई में रह रहे थे और एक कविता संकलन संपादित करने में लगे हुए थे। उसी सिलसिले में उन्होंने मुझे भी एक पत्र लिखा था जो आज भी मेरे पास सुरक्षित है। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि कभी कोई इतना बड़ा लेखक आयु और लेखन में अपने से कहीं छोटे व्यक्ति को वैसा पत्र लिख सकता था। उनके पत्र की पहली ही पंक्ति यूँ थी - ‘बिना पूर्व परिचय के यह पत्र लिख रहा हूँ। क्षमा करेंगे।’ कितनी प्रेरणादायी पंक्ति थी।

एक बार वे दिल्ली की डिफेंस कॉलोनी में अपने एक मित्र के यहाँ ठहरे। जिस दिन उनसे मिलने को जाना था पत्नी और बच्चों ने भी उनसे मिलने के लिए आग्रह किया। मैंने यह बात उनको बतायी तो बोले, ‘बच्चे तो अभिनेता के पिता से मिलना चाहेंगे। सबको ले आओ।’ समय की पाबंदी में उनका बहुत विश्वास है। सो ठीक समय पर हम लोग उनसे मिलने पहुँच गये। नहीं तो शायद उन्हें अच्छा नहीं लगता।

वे बहुत ही आत्मीय ढंग से मिले। अच्छा-सा चाय-नाश्ता आ गया। बच्चों के लिए तो वो पूरी तैयारी किये हुए थे। मुझसे और पत्नी से थोड़ी देर बातें कर लेने के बाद उन्होंने सारा समय बच्चों के साथ बातें करते, उन्हें अभिनेता-पुत्र के किस्से सुनाते, गीतों के रिकार्ड बजाते ही बिताया। बच्चों को बहुत मजा आया। उन्होंने बच्चों को ‘शूटिंग’ दिखाने का भी वायदा किया था जिसे पूरा भी किया। समय हो चला था। सो हम चलने को उठ खड़े हुए। वे दो ही दिनों के बाद बंबई लौटने वाले थे। काफी व्यस्त थे। अभी और भी मिलने वालों को आना था।

विदा लेने से पूर्व हमने बहुत जोर दे कर घर आने का आग्रह किया। हमारा घर तब डिफेंस कॉलोनी से दूर भी नहीं था। पर उन्होंने अपनी व्यस्तता के कारण इस बार न आ कर अगली बार अवश्य आने का वायदा किया। साथ ही यह भी कहा, ‘यूँ भी इस बार तो आपके घर के सभी लोगों से भेंट हो ही गयी है।’ यह सुनकर मेरे मुँह से अचानक निकल गया, ‘लेकिन प्रतीक्षा तो घर को भी हुआ करती है।’ यह सुन कर तो वे गद्गद् हो उठे। मुझे गले से लगाते हुए बोले, ‘तुम सचमुच कवि हो। मैं तुम्हारे घर से मिलने अवश्य आऊँगा।’

अगली सुबह लगभग ६.३० बजे मैं घर के पास ही के स्टॉप से अपने बेटे को स्कूल बस में चढ़ाने गया हुआ था। स्कूल बस आयी। मैंने बेटे को चढ़ाया। बस अभी चली ही थी कि हमारे पड़ोस का एक लड़का दौड़ता हुआ आया, लगभग हाँफता हुआ। उसने बताया कि हमारे घर अभिनेता के पिता आये हैं और आंटी (मेरी पत्नी) ने आपको जल्दी से बुलाया है। मैं झटपट घर पर पहुँचा। दो छोटे-छोटे कमरों का एक किराये का घर था हमारा अमर कॉलोनी में। मैं महसूस कर रहा था कि मेरे सामने एक बड़ा कवि ही नहीं बल्कि बहुत बड़ा आदमी भी बैठा था। मेरी खुशी का ठिकाना न था। मेरी हैरानी पर पानी फेरते हुए उन्होंने बताया कि, तुम्हारी घर की प्रतीक्षावाली सूचना ने मुझे कल से ही बेचैन कर रखा था। नहीं रहा गया तो सुबह-सुबह टैक्सी ली और तुम्हारे घर से मिलने चला आया। मैं एक साथ घर की महानता और उनकी संवेदनशीलता महानता पर खुश था। उन्होंने घर में भी प्राण फूँक दिये थे। लगभग दो घंटे बातें होती रहीं। हम तो जाने-अनजाने प्राणवान चीजों के साथ भी ऐसा कठोर व्यवहार कर दिया करते हैं कि मानों वे पत्थर हों। पर उन्होंने?

कौन नहीं जानना चाहेगा ऐसे कवि का नाम। वे हैं हरिवंश राय बच्चन!

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
स्मृति लेख
पुस्तक समीक्षा
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कविता
सांस्कृतिक कथा
हास्य-व्यंग्य कविता
बाल साहित्य कहानी
बात-चीत
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में