वजूद

डॉ. रंजना जायसवाल (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

सुधा के एम.ए. करते ही घर में ज़ोर-शोर से शादी की बातें चलने लगीं। पापा अख़बारों और पत्रिकाओं में सर डाले बैठे रहते और अपनी लाडो के लिए योग्य वर की तलाश करते रहते। काग़ज़ों के छोटे-छोटे टुकड़े पर योग्य वर . . . सुधा को न जाने क्यों कभी-कभी ऐसा लगता वो लड़कों का बायोडाटा नहीं एक लॉटरी है, लगी तो ठीक वरना . . .। सुधा एक अजीब सा जीवन जी रही थी, हर दूसरे-तीसरे महीने घर की साफ़-सफ़ाई शुरू हो जाती। चादरें बदली जाने लगतीं, सोफ़े के नीचे झाड़ू डाल-डाल कर सफ़ाई होने लगती, सुधा माँ की इस हरकत पर मन ही मन मुस्कुरा देती। लड़के वाले उसे देखने आ रहे या फिर उसके घर को . . . पर माँ का यह भगीरथ प्रयास भी न जाने क्यों विफल हो जाता। सुधा देखने-सुनने में ठीक-ठाक थी पर न जाने क्यों लड़के वाले उसे हर बार मना कर देते।

लड़के वालों की मनाही कहीं न कहीं पूरे परिवार को तोड़ देती, कई दिनों तक घर में एक अजीब सी नीरवता छा जाती। सब एक-दूसरे से नज़रें चुराते रहते, सुधा एक अजीब सी आत्मग्लानि से भर जाती। लड़के वालों के आने से पहले होने वाले ताम-झाम के पीछे छिपे अनावश्यक ख़र्चों से वो कसमसा कर रह जाती। पापा लड़के वालों को लुभाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ते पर फिर भी . . . एक अजीब सा अपराधबोध सुधा को लगातार घेर रहा था। लड़के वालों की लगातार मनाही से वो अंदर ही अंदर टूट रही थी। एक दिन माँ भैया पर बुरी तरह चिल्ला पड़ी थी – "कितनी बार कहा कि सुधा की फोटो किसी क़ायदे के स्टूडियो में खिचवाओं, पर मेरी सुनता कौन है।"

"माँ! तुम भी न . . .फोटो का क्या है? मैंने तो उससे कहा भी था कि एक शेड गोरी करके प्रिंट निकालना पर पता नहीं इन लड़कों वालों का कुछ समझ नहीं आता। आख़िर उनको बहू लानी है कि हीरोइन!"

माँ न जाने क्यों अचानक से वहमी होती जा रही थी, "सुधा के पापा.. अबकी लड़के वाले आये तो उन्हें काजू वाली नहीं पिस्ते वाली मिठाई परोसेंगे। शुक्लाइन कह रही थी शुभ काम में सफेद नहीं रंगीन मिठाई खाई और खिलाई जाती है। हो सकता है लाडो की शादी इसी वजह से न हो पा रही हो।"

सुधा की साड़ियों का रंग भी हर लड़के वाले कि मनाही के साथ बदलता जा रहा था, शायद . . .?

नवीन और उसका परिवार पिछले महीने ही देख कर गया था, नवीन के परिवार ने सुधा को देखते ही पसन्द कर लिया। माँ के पैर तो ज़मीन पर ही नहीं पड़ रहे थे। सुधा ने भी कहीं न कहीं राहत की साँस ली, इस रोज़-रोज़ के दिखावे से वो भी तंग आ चुकी थी। दो साल का वनवास आज ख़त्म हो गया था, वो ख़ुश थी शायद इसलिए . . . क्योंकि घर मे सब ख़ुश थे। आज तक वो उनकी ख़ुशी में ही तो ख़ुश होती आई थी। ख़ुद की ख़ुशी क्या है . . . वो कब का भूल चुकी थी। 

पापा और मम्मी नवीन के परिवार से आगे की बात करने के लिए कल सुबह ही निकल गए थे। रात में पापा के फोन आने के बाद घर में एक अजीब सा भूचाल मचा हुआ था। सुधा पूरी रात सो नहीं पाई थी। भैया सुबह-सवेरे ही उसके कमरे में चले आये थे, वो उसे काफ़ी देर तक समझाते रहे। सुधा विचारों के भँवर में डूब-उतरा रही थी। भैया बिस्तर से उठ खड़े हुए, "सुधा सोच लो, कोई दबाव नहीं है। पापा-मम्मी . . . ने मुझ पर ये ज़िम्मेदारी छोड़ रखी है। कोई तुम्हारा बुरा नहीं चाहता, तुम जो फ़ैसला लोगी वो सबको मंजूर होगा।"

भैया ने हाथ बढ़ाकर कमरे के पर्दे को हटाया और कमरे से बाहर निकल ही रहे थे कि सुधा ने पीछे से आवाज़ लगाई, "भैया . . .?"

"क्या हुआ . . . कुछ कहना चाहती हो . . . बोलो मैं सुन रहा हूँ।"

भैया चुपचाप बिस्तर पर आकर बैठ गए, सुधा के चेहरे पर एक अजीब सी बेचैनी थी। वो समझ नहीं पा रही थी कि बात कहाँ से शुरू करें।

"भैया! . . . आप बुरा न माने तो एक बात पूछूँ . . ."

"बोल न . . . मैं सुन रहा हूँ," भैया ने बड़े प्यार से सुधा के सर पर हाथ फेरा।

"भैया! अगर ऐसा ही रिश्ता आपके लिए आया होता तो क्या आप . . . आप तैयार होते, आप शादी के लिए हाँ कर देते?"

शायद ये बात कहने के लिए सुधा को बहुत हिम्मत जुटानी पड़ी थी, उसके चेहरे पर न जाने कितने रंग आये और गए। उसकी साँसें फूल रही थीं; जैसे वो न जाने कितने मीलों का सफ़र तय करके आयी थी। सच ही तो था, वो आज तक एक सफ़र में ही थी। एक ऐसा सफ़र जिसकी मंज़िल की डोर हमेशा दूसरे के हाथों में थी। आज पहली बार उससे उसका फ़ैसला पूछा गया था। फ़ैसला! अपनी ज़िंदगी का फ़ैसला . . . आज तक वो सिर्फ़ दूसरे के फ़ैसले सुनती आई थी और मानती भी आई थी। 

शिकायत नहीं थी उसे किसी से . . . होती भी तो किससे . . . फ़ैसले लेने वाले लोग भी अपने ही तो थे पर आज तक उसके ज़िंदगी के फ़ैसले दूसरों ने ही लिए थे। किस साइड से उसे पढ़ना है, कौन से विषय उसे लेने चाहिएँ, कॉलेज जाने के लिए इस रंग का सूट नहीं . . . बिल्कुल भी नहीं, पढ़ने जा रहे हैं कोई बाज़ार-हाट घूमने नहीं। कॉलेज से इतने बजे तक आ जाना. . . उफ़्फ़। सुधा ने अपने कान बन्द कर लिए . . . चारों तरफ़ विचारों का एक अजीब सा कोलाहल था पर भीतर एक गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था। माथे पर पसीने की चंद बूँदें चुहचुहा गईं।

"बोलिये न भैया! . . . क्या आपने ऐसे रिश्ते के लिए हाँ कही होती?"

"नहीं . . . बिल्कुल भी नहीं!"

सुधा भैया के चेहरे पर अपने सवालों के जवाब ढूँढ़ती रही, भैया के इस एक शब्द से उसकी दुनिया हिल गई।

"क्यों..?"

"मेरे पास इतने सारे विकल्प हैं तो मैं क्यों ऐसी लड़की को पसन्द करूँगा? मुझे एक से एक लड़कियाँ मिल जाएँगी। पढ़ा-लिखा हूँ, अच्छा-ख़ासा कमाता हूँ, मुझे लड़कियों की कौन सी कमी . . . जो मैं ऐसी लड़की से शादी करूँ।" 

सुधा आश्चर्य से भैया का मुँह देखती रह गई, भैया अपनी ही दुनिया में मस्त थे। पुरुष होने का दम्भ अचानक से उनके चेहरे पर दिखने लगा था; पढ़ी-लिखी तो वो भी थी। शायद परिवार का प्रोत्साहन मिल जाता तो नौकरी भी कहीं न कहीं मिल ही जाती पर . . .

"हमारी जाति में ज़्यादा पढ़ाया नहीं जाता। इतना पढ़ा-लिखा लड़का कहाँ से लाएँगे, वैसे भी सम्भालनी तो गृहस्थी ही है, फ़ालतू में समय और पैसा क्यों बर्बाद करना।" 

कितनी आसानी से कह दिया था माँ ने, कितना लड़ी थी उस दिन वो माँ से . . .

"अपनी जाति में लड़के न पढ़ें इसलिए मैं भी न पढ़ूँ? ये कहाँ का न्याय है? मेरे सपनों को क्यों कुचल रही हो माँ . . ."

 न जाने क्या सोचकर सुधा की आँखें भीग गईं, पर भैया न जाने किस दुनिया में खोए हुए थे।

"सुधा! . . . ग़नीमत है लड़के वालों ने कुछ छिपाया नहीं। ये तो उनकी शराफ़त है वो चाहते तो छुपा भी सकते थे। भगवान का शुक्र है हमें शादी से पहले ही पता चल गया।"

"ऐसे कैसे छुपा लेते भैया . . . शादी-ब्याह का मामला है। दो परिवारों के विश्वास की बात है। उन्हें लगा होगा किसी तीसरे से पता चले, उससे अच्छा है कि ख़ुद ही बता दें।"

"तू कितनी भोली है, अभी तूने दुनिया देखी ही कहाँ है?"

"भैया! . . . उन्हें भी डर था कि अब गोद भराई तक बात पहुँच गई है, अब नहीं बताया तो सब गड़बड़ हो जाएगा पर गड़बड़ तो हो गई न . . ."

"गड़बड़ कैसी . . .?"

"इतना बड़ा सच उन्होंने हमसे छुपाया और आप कह रहे हैंऽऽऽ . . . "

"दिक़्क़त क्या है सुधा . . . इंजीनियर है . . . इकलौता है . . . शहर के बीचों-बीच दो मंज़िला मकान है। पूरा परिवार तुम्हें हाथों-हाथ लिए रहेगा और क्या चाहिए तुम्हें . . .?"

"भैया! उसके पैर में रॉड पड़ी है। कल . . .!"

"सुधा! . . . वो एक दुर्घटना थी। हड्डी टूट गई, डॉक्टर ने रॉड डाल दी। तुमने भी देखा है नवीन को चलने-फिरने में कोई दिक़्क़त नहीं है।"

"पर कल..!"

"कल क्या . . .उन्होंने बताया कि रॉड ज़िंदगी भर भी पड़ी रहे तो भी कोई दिक़्क़त नहीं और निकाल लें तो भी . . ."

"पर..!!"

"पर-वर कुछ नहीं।"

सुधा की आशंका गहराती जा रही थी। सुधा के पास इस रिश्ते से इंकार करने का सारे तर्क भैया ने ध्वस्त कर दिए थे। एक तरफ़ सबने फ़ैसले लेने के सारे अधिकार भी उसके नाम से सुरक्षित कर दिए थे और दूसरी तर्क पर तर्क दे उसकी शंका, उसके सवालों को ध्वस्त करते जा रहे थे। न जाने क्यो . . . उसे ऐसा लग रहा था मानो वो कोई विज्ञापन देख रही हो जहाँ सामान की कोई गारंटी नहीं लेना चाहता और उद्घोषक वैधानिक चेतावनी के नाम पर नियम-क़ानून इतनी तेज़ी से बोलता है कि आप सुनकर भी सुन नहीं पाते।

"सुधा! . . . एक बात कहूँ, पति अपने से कुछ कमतर हो तो जीवन-भर एहसान तले दबे रहता है। परिवार तुम्हें देवी की तरह पूजेगा और समाज की नज़रों में तुम हमेशा महान बनी रहोगी। जानती हो नवीन की मम्मी बता रही थी कि नवीन ने अपना सर्टिफ़िकेट भी बनवा रखा है ट्रेन में उसका टिकट मुफ़्त हो जाता है और साथ चलने वाला का आधा . . . मौज ही मौज रहेगी तुम्हारी।"

सुधा आश्चर्य से भैया को देख रही थी, नवीन अपने परिस्थितियों के आगे अपाहिज थे, लाचार थे . . . ईश्वर ने उनके साथ अच्छा नहीं किया पर क्या ये समाज भी मानसिक रूप से अपाहिज नहीं है। महान बनने का इससे अच्छा शॉर्ट कट कोई हो ही नहीं सकता था। कहीं न कहीं इस रिश्ते के लिए पापा-मम्मी और भैया का मन भी गवाही नहीं दे रहा था। ज़िंदगी भर उसके हर छोटे-बड़े फ़ैसले आज तक वो ही लोग ले रहे थे पर आज . . . । कहीं न कहीं भैया ने अपनी बातों से ये जता भी दिया था कि लड़कियों का क्या है उनके लिए कुछ भी चलता है पर क्या सच में . . . कल समाज को जवाब देते-देते वो थक जाएगी। कमी उसमें नहीं नवीन में थी पर उँगलियाँ हमेशा उस पर उठेंगी, ज़रूर कोई बात होगी जो घर वालों ने ऐसे लड़के से शादी कर दी।

महान बनने का इससे अच्छा मौक़ा उसे नहीं मिलेगा पर क्या वो सचमुच अपने पति को बेचारे की तरह उम्र भर चाहना चाहती है . . . आज पहली बार किसी ने उससे उसकी राय, उसका फ़ैसला पूछा है। एक बारगी उसे नवीन पर दया भी आती थी पर कहीं न कहीं वो भी तो समाज के मानसिक विकलांगता की शिकार थी।

सुधा फ़ैसला कर चुकी थी, इस फ़ैसले का जो भी परिणाम हो पर अब वो समाज की खोखली विकलांगता का शिकार नहीं हो सकती। सभी को अपनी लड़ाई ख़ुद लड़नी होगी,चाहे सामने कोई भी हो।

"भैया ! मैं माफ़ी चाहती हूँ, मैं ये शादी नहीं कर सकती। मम्मी-पापा को बता दीजियेगा . . . लड़के वालों को मनाकर दें।"

भैया हक्के-बक्के से सुधा को देख रहे थे। शायद उन्हें सुधा से इस बात की उम्मीद नहीं थी। शायद वो भी ये मानकर चले थे कि लड़कियों के लिए कुछ भी चलता है। पर नहीं, बस अब और नहीं। किसी न किसी को तो क़दम तो बढ़ाना ही होगा . . . सुधा का चेहरा आत्मविश्वास से चमक रहा था। सुधा के एक फ़ैसले ने जता दिया कि लड़कियों के लिए कुछ भी नहीं चलता। सुधा सोच रही थी कि सही मायने में विकलांग कौन था नवीन या फिर समाज . . .?

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