उषा प्रियंवदा के उपन्यासों में प्रवासी जीवन की समस्याएँ

21-01-2019

उषा प्रियंवदा के उपन्यासों में प्रवासी जीवन की समस्याएँ

टी. उषा

दूरियाँ घटती गईं, दायरे बढ़ते गए। सारी दुनिया के सिमटते जाने से दिनों-दिन अनंत संभावनाओं के द्वार खुलते गए। भूमंडलीकरण के कारण विश्व के अनेक देश अपनी सीमाओं को पारकर आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में परस्पर सहयोग हेतु एक छत के नीचे आ गए। इस प्रक्रिया में कब हमने जाकर दूसरों की देहरी पर दस्तक दी ....कैसे हमारे क़दम किसी और देश की ओर मुख़ातिब होने लगे… इन सब का पता ही नहीं चला। बस, जब हमने देखा कि हम अपनी ही माटी से दूर जा पहुँचे हैं और इतने दूर कि हिन्दुस्तान की सौंधी गंध बार–बार अपने पास खींच रही है तब हमने महसूस किया कि हम एक ऐसे देश में है जहाँ न भारत जैसे अपनत्व की गूँज है और न ही हमारी कोई अस्मिता। इन्हीं अभिव्यक्तियों को प्रवासी साहित्यकारों ने अपनी रचना का विषय बनाया है। हिन्दी के कुछ रचनाकार विदेशों में कुछ वर्ष रहकर वापस भारत चले आए और कुछ वहीं बस गए। इन दोनों तरह के हिन्दी के रचनाकारों ने विदेशी जीवन और वहाँ संधर्षरत प्रवासी भारतीयों के जीवन का यथार्थ चित्रण किया है। रजनी गुप्ता के अनुसार "आधुनिक काल में लेखन का क्षेत्र भी जीवन के अन्य क्षेत्रों की तरह विस्तीर्ण होकर नित्य नए परिपार्श्वों को छूने लगा। फलत: लेखकीय रचना मानस पर हिन्दुस्तानी समाज से अलग पश्चिमी मूल्यों और मानदंडो से प्रभावित रचना मानस का वह स्वरूप भी सामने आया है जो कि लेखकीय चिंतन प्रक्रिया में प्रवास के दौरान विभिन्न अनुभवों के रूप में पैठता चला गया और उसी की परिणति हुई प्रवासजन्य अनुभूतियों की बेबाक अभिव्यक्ति के रूप में क्रमश: विदेश प्रवास से जुड़ी समस्याओं की अभिव्यक्ति आधुनिक कथा साहित्य के सामने आती है।"1

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य देश और काल की सीमा का अतिक्रमण करने लगा क्योंकि हिन्दी के कई रचनाकारों ने आज़ादी की बाद विदेशी भूमि पर क़दम रखे। अज्ञेय, प्रभाकर, माचवे, निर्मल वर्मा, महेंद्र भल्ला, उषा प्रियंवदा, सत्येन्द्र श्रीवास्तव, नरेश भारती, इंदुकांत शुक्ल,कमला दत्त आदि कुछ ऐसे रचनाकार है जिनकी रचनाओं में विदेशी जीवन एवं प्रवास की अभिव्यक्ति मिलती है। इनके अलावा योगेश कुमार, मीनाक्षी पूरी, अचला शर्मा, अंजना संधीर, उषा राजे सक्सेना, तेजेंद्र शर्मा जैसे सैंकड़ों लेखक हैं जो आज भी प्रवास एवं प्रवासी जीवन को केंद्र में रखकर हिंदी रचनाओं का सृजन कर रहे हैं।

प्रवासी रचनाकारों की सुदीर्घ पंक्ति में जिन कलाकारों का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा है उनमें उषा प्रियंवदा का नाम प्रमुख है। अँगरेज़ी तथा हिंदी की बहुश्रुतता तथा देश-विदेश का अनुभव उनकी अपनी निजी निधि है। उषा जी प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य कर रही थीं उसी समय उन्हें अमेरिका में फुलब्राइट की छात्रवृति मिली। वहीं से उनकी विदेशी जीवन की यात्रा आरंभ हुई। जब अमेरिका के इंडियाना विश्वविद्यालय तुलनात्मक साहित्य पर डिग्री के लिए अध्ययन कर रही थीं और अभी दो साल ही बीते थे कि विस्कौंसिन विश्वविद्यालय के तात्कालिक भारत विद्या संस्थान के आमन्त्रण पर मैडिसन चली गयी और तब से वहीं अध्यापन करने लगीं।

भारतीय होने के कारण उषा जी को अमेरिका में कई परेशानियों का सामना करना पड़ता था। शाकाहारी होने के कारण उन्हें पार्टियों में नहीं बुलाया जाता था। साड़ी पहनने के कारण सबकी नज़रें उन्हीं को घूरतीं। उनके पति यूरोपीय थे, किन्तु अमेरिका में उनके साथ कोई भेद भाव नहीं होता था इसलिए उषा जी को कभी-कभी अपने पति से ईर्ष्या होती – "कभी–कभी मुझे पति से ईर्ष्या होती है, यद्यपि वह भी मेरी तरह अमेरिका में विदेशी ही हैं, परन्तु यूरोपीय और पुरुष होने के कारण उन्हें इस परिवेश में रचने–बसने में बिलकुल कठिनाई नहीं हुई।"2 उषा जी को कई बार अवहेलना सहनी पड़ी क्योंकि अमेरिका में अलग-अलग रंग के लोगों के साथ अलग-अलग व्यवहार करने की पद्धति है। जब कभी वह अपने पति के साथ बाहर निकलती उनके साथ दोहरा व्यवहार किया जाता था। उषा प्रियंवदा के शब्दों में –"इसलिए जब हम साथ होते हैं यूरोपीय पुरुष होने के नाते पति को हमेशा सद्भावना और शिष्ट शब्द ही मिलते हैं और मुझे मिलती है अवहेलना या अवज्ञा।"3 उन्होंने देशी और विदेशी के बीच होने वाले अंतर्द्वंद्व को अपनी रचनाओं के माध्यम से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। उनकी रचनाओं में घुटन, निराशा, संत्रास, जीवन मूल्यों का ह्रास, स्वछन्द यौन संबंध, अनमेल विवाह, नस्लवाद आदि का चित्रांकन विदेशी परिवेश के संदर्भ में हुआ है।

उषा जी ने अपने उपन्यासों में प्रवासी जीवन की अनेक समस्याओं पर प्रकाश डाला है जिन में से कुछ उल्लेखित हैं –
1. नास्टेल्जिया
2. सांस्कृतिक आघात
3. अकेलापन
4. पारिवारिक विघटन
5. नैतिक मूल्यों का ह्रास
6. प्रवासी विद्यार्थियों की समस्याएँ
7. स्त्री की बदलती मानसिकता

पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण प्रवासी भारतीयों के विचारों और मूल्यों में अनेक परिवर्तन आने लगे है। विदेशों की चकाचौंध दुनिया में प्रवासी अपने भारतीयत्व को खोता जा रहा है। विदेशी सभ्यता, संस्कृति को पूरी तरह न स्वीकार कर पाने तथा भारतीय संस्कृति न भूल सकने के कारण प्रवासी भारतीय आत्मसंघर्ष और अंतर्द्वंद्व में जूझता रहता है। पराये देश में अपने आप को अकेला महसूस करता है। देश की मीठी यादें उसके हृदय में टीस उत्पन्न करती है, जिसे नास्टेल्जिया कहते हैं। विदेशी परिवेश में प्रवासी भारतीय जब अपने आप को ढाल नहीं पाते हैं तब उनके हृदय में भारत वापस लौट जाने की इच्छा बलवती हो जाती है। भारत में अपने परिवार जनों के नज़रों में ऊँचा उठने के चक्कर में भारत वापस नहीं आ पाते है। उनका अहम उन्हें ऐसा करने से रोक देता है। उषा जी ने "रुकेगी नहीं राधिका", "शेष यात्रा", "भया कबीर उदास", "अन्तर्वंशी" और "नदी" उपन्यासों में प्रवासी भारतीयों की वेदना और संघर्ष को बख़ूबी चित्रित किया है। "रुकेगी नहीं राधिका" की राधिका अपने आप को पश्चिमी जीवन शैली के प्रभाव से मुक्त नहीं कर पाती है और न ही भारतीय सभ्यता और संस्कृति को छोड़ पाती है। उसे हमेशा भारत की याद आती रहती है। भारत लौट जाने की चाह किन्तु पिता से बदला लेने की इच्छा उसे भारत लौटने नहीं देती है। अंत में वह भारत लौटती है तो वहाँ की चीज़ों को देखकर प्रसन्न होती है -"राधिका बड़ी निर्मम बन यह सब छोड़कर चली गई थी और विदेश में यदि याद आते थे तो प्रियजन, विशेष त्यौहार या बदलते मौसम व फूल, पर इन छोटी-छोटी चीज़ों के स्मृति भी अवचेतन में दबी ही रही होगी नहीं तो उन्हें पुन: देख मन में ऐसा पीड़ा भरा सुख क्यों होता।"4 इसी प्रकार लेखिका ने प्रवासी भारतीयों की वेदना को बहुत ही मार्मिक ढंग से दिखाया है।

विदेशों में प्रवासी भारतीयों को रंगभेद और नस्लभेद का सामना करना पड़ता है। सामान्यत: रंग के आधार पर भेदभाव नौकरियों में, विश्वविद्यालयों में, सार्वजनिक स्थानों में होता रहता है। कुछ स्थानों पर प्रवासी भारतीयों के लिए अशिष्ट भाषा का प्रयोग किया जाता है। उन्हें कभी भी देश से चले जाने के लिए विवश किया जा सकता है। नागरिकता मिलने पर भी प्रवासियों को दूसरे दर्जे का ही नागरिक समझते हैं। सामान्यत: अगौर वर्ण वाले विद्यार्थियों को घृणा और द्वेष का दंश झेलना पड़ता हैं। "भया कबीर उदास" की नायिका लिली भी नस्लभेद का शिकार होती है। लिली शोध करने के विदेश जाती है किन्तु वहाँ उन्हें निराशा का मुख देखना पड़ता है – "स्कालरशिप, असिस्टेंटशिप, नौकरी सभी में उसे उचिष्ट ही मिला, पहले सफेद पुरुष, फिर सफेद स्त्रियाँ, फिर अश्वेत पुरुष; टर्की, पकिस्तान, नेपाल, आंध्र प्रदेश के बाद उसका नम्बर, इस समुदाय में केवल एक भारतीय लड़की।"5 इस प्रकार प्रवासी भारतीय विश्व विद्यालयों, कार्यालयों और सार्वजनिक स्थानों पर अपमानित और घृणित होते हैं।

प्रवासी जीवन की दूसरी समस्या है अकेलापन। मनुष्य जब अपनी मातृभूमि पर रहता है तो अपने आप को भरा–पूरा महसूस करता है। वहीं विदेशी वातावरण में नितांत अकेलेपन से तड़पता रहता है। उषा जी ने अपने उपन्यास भया कबीर उदास में एक कैंसर पीड़ित भारतीय महिला की निस्सहायता का यथार्थ रूप में चित्रण किया है। अमेरिका में एक कैंसर ग्रस्त प्रवासी भारतीय महिला की क्या दशा हो सकती है, उसे उपन्यास के निम्न अंश से समझा जा सकता है –"मैं काँप–काँप जाती हूँ। किसी से कहना चाहती हूँ – "सुनो मेरी छाती में कैंसर हो गया है ....पर ऐसा कोई भी नहीं है; कोई ऐसा मित्र बंधू–बांधव, बाल–बच्चा, पति या प्रेमी, आगे–पीछे कोई भी नहीं।"6 इस असहायता, बेसहरापन प्रवासी भारतीय हमेशा झेलते हैं। "नदी" उपन्यास की नायिका आकाश गंगा, शेष यात्रा उपन्यास की अनुका पति के द्वारा त्यागे जाने पर विदेशी भूमि पर नितांत अकेली रह जाती है। अपने दुःख को किसी से बाँट नहीं पाती है। नदी उपन्यास में गंगा के माध्यम से लेखिका ने अकेलेपन के दारूण परिस्थिति से गुज़रती नारी का चित्रण किया है। "माँ कहाँ हो तुम? वह बुदबुदाती है, "सभी कोई क्यों मुझे छोड़कर चले जाते हैं –तुम आओ न माँ मुझे उठाकर अपनी बाँहों में भर लो। मुझे दुलारों माँ –मुझे उठाकर बैठाओ –कोई तो हो जो...।"7 एक अनजान देश में पति द्वारा त्यागी महिला सहारे और अपनेपन के लिए दर–दर भटकती है।

प्रवासी भारतीयों की एक अन्य समस्या पारिवारिक विघटन है। आज विदेशों में पति–पत्नी के संबंध शाश्वत नहीं है। वह केवल एक समझौता बन कर रह गया है। विवाह स्त्री पुरुष की आवश्कतापूर्ति का साधन बन कर रह गया है। "शेष यात्रा" और "नदी" उपन्यास में लेखिका ने विवाह संबंधो की असफलता को दिखाया है। विवाह के चार वर्षों के बाद प्रणव अनु को इसलिए छोड़कर चला जाता है क्योंकि उसे चंद्रिका नाम की एक युवती से प्रेम हो गया है। अनु से तलाक़ लेने के लिए उस पर पागल होने का आरोप लगाता है। उपन्यास में इस अंश के माध्यम से प्रणव के पाश्चात्य विचारों को दर्शाया गया है – "चन्द्रिका में उसकी प्रखरता में एक ऐसा अदमनीय आकर्षण था, उसके साथ में एक ऐसी गहरी अभूतपूर्व परितुष्टि थी कि उसके बाद प्रणव को अनु के साथ वैवाहिक ज़िन्दगी बहुत लाचार और बेमानी लगने लगी है।"8 प्रणव के इन विचारों से पता चलता है कि वह पाश्चात्य सभ्यता से अत्यधिक प्रभावित है। उसके जीवन में पत्नी एक वस्तु है जिसे जब चाहे जीवन से निकाल बाहर कर सकता है। उसकी नज़रों में विवाह व्यवस्ता का कोई मूल्य नहीं है।

उषा जी ने अपने पात्रों को कल्चरल शॉक से पीड़ित दिखाया है। जब कोई व्यक्ति अपनी मातृभूमि को छोड़कर दूसरी भूमि पर क़दम रखता है तब उसे वहाँ का जीवन बहुत नया नज़र आता हैं। उसे हर पल अपने आप को उस वातावरण के अनुरूप बदलना पड़ता है जो उस के लिए कठिन होता है। "रुकोगी नहीं राधिका" उपन्यास में मनीष कहता है -"जब हम अपना देश छोड़ कर बाहर जाते हैं जबकि हर स्तर पर हमें अपना देश अपनी संस्कृति ऊँची दिखाई देती है। फिर हम इस देश में रहने के आदी हो जाते हैं। दो-ढाई साल उस नए देश में रहकर उनके रीति रिवाज़ों के आदी होकर हम अपने देश वापस आते हैं तो हमें एक धक्का दुबारा लगता है –रिवर्स कल्चरल शॉक।"9 विदेश में सांस्कृतिक भिन्नता के कारण प्रवासी भारतीयों को वहाँ सामंजस्य स्थापित करने में समस्या होती है।

औद्योगीकरण, मशीनीकरण तथा आधुनिकतम संचार साधनों की सुगमता से सारी दुनिया सिमट कर एक होती जा रही है। इससे एक ओर जहाँ सभ्यता और संस्कृति के नए द्वार खुले हैं वहीं मनुष्य के जीवन में अस्थिरता और जीवन मूल्यों में तीव्र गति में अंतर आता जा रहा है। उषा जी ने प्रवासी भारतीयों के समस्याओं को स्वयं झेला है इसलिए उनके उपन्यासों में काल्पनिकता नहीं बल्की हृदय की सच्ची वेदना अनुभव जनित यथार्थ प्रतिबिम्बित होता है। उनकी स्थिति को उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत किया जा सकता है –"एक प्रवासी के लिए घर लौटना एक मधुर और कचोट भरा अवसर होता है। घर से हम विदेश के लिए निकलते हैं तो आँखों में एक स्वप्न होता है। नए अनुभवों के लिए उत्साह रहता है। मन में एक ऊर्जा और शक्ति होती है पर लौटे हुए मन में अनेक भावनाएँ गडमड होती रहती हैं। अपने परिवार में बैठने का सुख अपनी भाषा बोलने का आनंद और अपना देश। यह सब आह्वान करता है पर साथ ही कहीं छुपा हुआ यह बोध भी रहता है कि हम पूरी तरह घर नहीं लौट पायेंगे। हमारा एक अंश, हमारी भावनाओं और अनुभवों का एक भाग जैसे पीछे रह जाता है। अलमारी से लटकते कपड़े, रसोई के बर्तन, डब्बों में बंद पुराने पड़ते अचार और गैराज में खड़ी मोटर जैसे हर चीज़ को हमारे लौटने की प्रतीक्षा रहती है और भारत में सबसे घिरकर भी हम जानते हैं कि हमें लौटना है और फिर उसी व्यस्तता और अकेलेपन से जूझना है।"10

प्रवासी भारतीयों की संत्रास, कुंठा,अंतर्वेदना और मधुर–तिक्त अनुभवों को लेखिका ने पाठकों के समक्ष बड़ी बारीक़ी से अनावृत किया है।

टी .उषा
पीएच.डी. शोधार्थी
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा
चेन्नई

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची :

1. अन्यथा अंक 4, लेख –हिन्दी कथा साहित्य में प्रवासी भारतीयों की जीवनमूल्य
2. उषा प्रियंवदा :शून्य तथा अन्य रचनाएँ, पृष्ठ – 123,124
3. उषा प्रियंवदा :शून्य तथा अन्य रचनाएँ, पृष्ठ – 124
4. रुकोगी नहीं राधिका, उषा प्रियंवदा, पृष्ठ -20
5. भया कबीर उदास, उषा प्रियंवदा, पृष्ठ -70
6. भया कबीर उदास, उषा प्रियंवदा, पृष्ठ -33
7. नदी, उषा प्रियंवदा, पृष्ठ -25
8. शेष यात्रा, उषा प्रियंवदा, पृष्ठ -89
9.  रुकोगी नहीं राधिका, उषा प्रियंवदा, पृष्ठ - 102
10. उषा प्रियंवदा : शून्य तथा अन्य रचनाएँ, पृष्ठ – 162

1 टिप्पणियाँ

  • 10 Aug, 2023 05:16 PM

    कृपया नोट करें कि उपरोक्त आलेख के दो पृष्ठ मेरे द्वारा लिखित पुस्तक में शामिल हैं। ये नकल ठीक नहीं है। यह मेरे पीएचडी का विषय है। कृपया लेखिका का नंबर दें। रजनी गुप्त 9452295943

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