उन्हें भी संस्पर्श करतीं कहानियाँ जहाँ अधिकांश हो जाते हैं मौन : डॉ. अमिता दुबे

15-07-2019

उन्हें भी संस्पर्श करतीं कहानियाँ जहाँ अधिकांश हो जाते हैं मौन : डॉ. अमिता दुबे

डॉ. अमिता दुबे

कृति : मेरी जनहित याचिका एवं अन्य कहानियाँ (कहानी संग्रह)
कृतिकार : प्रदीप श्रीवास्तव
प्रथम संस्करण -2018
अनुभूति प्रकाशन,लखनऊ
मूल्य -350/
पृष्ठ संख्या 464

प्रदीप श्रीवास्तव का कहानी संग्रह "मेरी जनहित याचिका एवं अन्य कहानियाँ" लम्बी कहानियों का एक बड़ा संग्रह है। यह कहानियाँ सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार करते हुए तत्तजनित विडंबनाओं, विद्रूपताओं और विभीषिकाओं का चित्रण करती हैं। यह संग्रह श्री प्रदीप समर्पित करते हैं अपने अनुज सत्येंद्र श्रीवास्तव की स्मृति को जो एक मार्ग दुर्घटना में 10 मार्च 2017 को काल-कवलित हो गए। इस समर्पण में भी एक प्रश्न उठाते हैं, अपने अनुज के स्वर्गवास के लिए वे उत्तरदाई ठहराते हैं- "मैं दोष उस अस्त-व्यस्त व्यवस्था को दूँगा जो आज़ादी के बाद इतने वर्षों में बनी और चली आ रही है जिसने असंतुलित विकास, ग़ैर ज़िम्मेदाराना आचरण की प्रवृति को जन्म दिया, पुष्पित पल्लवित कर ऐसा विराट वृक्ष बना दिया जिसकी छाँव तले लापरवाही, भ्रष्टाचार, अलगाववाद, भूख, ग़रीबी के बढ़ने हेतु आदर्श मार्ग प्रशस्त हुआ। पत्थर संवेदना वाले समाज के सामने मानवता को प्रतिपल शर्मसार होने के लिए विवश कर दिया। और सत्तर वर्षों में सकुशल चलने लायक सड़कें, उन पर ज़िम्मेदारी से चलने का आचरण भी नहीं सिखा पाई जिसके कारण प्रतिदिन ना जाने कितने प्रिय सत्येंद्र असमय ही सिर्फ़ यादों में ही रह जा रहे हैं।' 

संग्रह में 'पगडंडी विकास', 'जब वह मिला', 'करोगे कितने और टुकड़े', 'झूमर', 'घुसपैठिए से आखिरी मुलाकात के बाद'. 'बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा', 'हनुवा की पत्नी', 'शकबू की गुस्ताखियाँ', 'शेनेल लौट आएगी' इसके अतिरिक्त पहली और शीर्षक कहानी है 'मेरी जनहित याचिका'। कुल दस कहानियों में यह एक सौ बीस पृष्ठों में समाहित ऐसी लंबी कहानी है जिसमें लघु उपन्यास के गुण विद्यमान हैं। यह कहानी एक परिवार की कहानी ही नहीं एक समाज की कहानी है। घर-घर की कहानी है जहाँ छोटे-छोटे सुख हैं तो अनेक उलझने, समस्याएँ हैं। स्नेह है, समर्पण है और इन सबसे बढ़कर भारतीय संस्कृति की झलक है जहाँ नाते-रिश्तों को बचाने के लिए त्याग की अपनी पृष्ठभूमि है। बुज़ुर्ग माता-पिता की विवशता है। प्रदीप जी कहते हैं, "अम्मा-पापा बहुओं के हाथ-पैर तक जोड़ने लगे कि आख़िर क्यों कलह कर रही हो? सारी प्रॉपर्टी है तो तुम्हीं लोगों की। हम लोग हैं ही कितने दिनों के मेहमान?" परिवार के टूटने का दर्द जिसमें माता-पिता की उपस्थिति में ही बिखराव हो गया, प्रदीप श्रीवास्तव की पंक्तियों में देखने को मिलता है, "फिर वह दिन आया जब परिवार तीन टुकड़ों में अलग-अलग घरों में रहने लगा। वही परिवार जिसे मोतियों की तरह चुन-चुन कर बनाने में पापा-अम्मा ने अपना जीवन लगा दिया था।” इस लंबी कहानी के अंत में कहानी का नायक जो विभिन्न व्यवस्थाओं या यह कहें दुर्व्यवस्थाओं के बीच अपनी दुर्बलताओं - सफलताओं के साथ जीते हुए एक किनारे लगने के प्रयास में पुनः मझधार में आ जाता है तब उसकी दोस्त आयशा कहती है, "तैयार हो जाओ समीर; सँभालो अपने को। जाने वाले को तो लाया नहीं जा सकता। जीने के लिए समय बहुत कम भी है, बहुत ज़्यादा भी है। दुनिया बहुत छोटी भी है और बहुत बड़ी भी। यह दोनों हमारे सामने कैसी होंगी यह हम पर डिपेंड करता है।" लेखक की आशा-निराशा के बीच झूलती यह पंक्ति बहुत कुछ कह जाती है, "सच में आखिरी व्यक्ति तक को न्याय मिले, वह सिर्फ होता हुआ दिखे ही नहीं ऐसा वास्तव में हो भी।" यह वास्तव में हो भी की चिंता कहानीकार प्रदीप श्रीवास्तव की अन्य कहानियों में भी दिखाई देती है। विशेषकर "पगडंडी विकास", "हनुवा की पत्नी", "बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा" में जहाँ मानवीय स्वभाव की पड़ताल के साथ-साथ समाज की सूक्ष्म पड़ताल करता हुआ कहानीकार दिखता है। 

संग्रह की एक और लंबी कहानी है "शेनेल लौट आएगी" यह कहानी एक ऐसे पक्ष को रेखांकित करती है जहाँ सब कुछ है लेकिन ठगा हुआ सा खड़ा एक व्यक्ति हतप्रभ है। "बीतते समय ने अंततः पक्का यक़ीन करा दिया कि छह हज़ार मील दूर से आकर दो महीने में दस लाख का चूना लगा गई। कितनी अच्छी लाजवाब थी उसकी साज़िश कि विदेश में दो महीने खाना-पीना, घूमना, गाइड, सेक्स पार्टनर सब कुछ। जाते-जाते लाखों का सामान ले गई। सिर्फ साड़ी को छोड़कर जिसे ग़ुस्से में मैंने जला दिया। मैं इतना विवश था कि कुछ नहीं कर सकता था। किसको बताता? क्या बताता? शादी का जो वीडियो बनाया था वैसी शादी का कोई क़ानूनी अर्थ नहीं, क़ानूनी मदद लूँ तो दुनिया हँसेगी अलग कि आधी उम्र की लड़की को दो महीने साथ रखा, ऐश करते रहे तब यह सब पता करने का होश नहीं था। दोस्तों की सलाह तब याद नहीं आई कि देखना इन धूर्त लड़कियों को, इनकी बातों में उलझ ना जाना।" वास्तव में अनेक बार हम अपनी भावुकता में ठगे जाते हैं और फिर थोड़े दिन बाद उस निराशा के भाव को त्याग कर फिर प्रतीक्षा करते लगते हैं जैसे इस कहानी के नायक ने किया, "और शेनेल; यह नहीं कहूँगा कि उसकी याद नहीं आती। आती है, अब भी आती है। और तब उसके लिए कोई अपशब्द नहीं निकलता। बस हँसी आती है। और याद आते हैं साथ बिताए खूबसूरत पल। तब अनायास ही मुँह से निकल जाता है "शेनेल"..."। 

समग्रत: यह कहानी संग्रह "मेरी जनहित एवं अन्य कहानियाँ" एक पठनीय संग्रह है जिसके माध्यम से कहानीकार प्रदीप श्रीवास्तव ने समाज के उन पक्ष, उन स्थितियों का संस्पर्श करने का प्रयास किया है जहाँ अधिकांशतः मौन हो जाया जाता है। सभी कहानियाँ जहाँ समाप्त होती हैं लगता है वहीं से नया संवाद प्रारंभ होता है। यह कहानियों की ताक़त है, रचनाकार का सामर्थ्य और अपना दृष्टिकोण है। कहानी की भाषा पात्रानुकूल है, परिस्थिति समय और स्थान के अनुसार भाषा में परिवर्तन दिखाई देता है जो बदलती हुई कहानियों के शिल्प की एक बड़ी विशेषता है। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि यह कहानी संग्रह पाठकों आलोचकों के बीच अपना स्थान निर्धारित करेगा। 

डॉ. अमिता दुबे
संपादक
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान
 6 महात्मा गांधी मार्ग, हजरतगंज लखनऊ -226001
amita.dubey09@gmail.com 

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