उम्मीद

भारती परिमल (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

हथेलियों की 
उलझी रेखाओं के
जंगल से होकर
तुम तक पहुँचने की
ख़्वाहिश में . . .
ना जाने कितने
पलाश के फूलों को,
चिनार के पत्तों को
क़दमों तले रौंदा है
ताज़गी से लबरेज़
हवाओं में समाई महक को
साँसों में भरा है
जंगल के उस पार पहुँचकर
झील में ख़ुद का ही
अक्स निहारा है
इस इंतज़ार में कि
एक अक्स तुम्हारा भी नज़र आएगा
पिघलती शाम में
और गहराती रात में
चाँद से बातें की हैं
तन्हा वो भी था,
तन्हा मैं भी थी।
कभी वो आधा था,
तो कभी वो पूरा था
पर अधूरी रही मैं हरदम
ख़्वाहिश में तुम्हारी
अब तो रेखाओं का जंगल भी
उजड़ने लगा है
पलाश, चिनार
सूखने लगे हैं
और सूखने लगी है झील
पर इंतज़ार का सूरज डूबा नहीं है
अब भी ये सूरज
चाँदनी के साए में
तुम्हें ढूँढता है
उम्मीद का एक मोती
कभी आँखों से होकर 
मेरी हथेली में समा जाता है।

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