उफ़ ये बेबसी
सतीश ’निर्दोष'उफ़ ये बेबसी . . . मुझे जीने नहीं देती।
देखता रहूँ रोज़ डूबते हुए यूँ अपनों को
ये गवारा तो नहीं मुझको
पर बढ़कर आगे थाम लूँ हाथ मैं उनका
हालातों की आँधी ये इजाज़त नहीं देती।
मरने के डर से यूँ हर रोज़ टुकड़ों में मरना
ये पसंद तो नहीं मुझको
पर क्या होगा मेरे अपनों का जो मैं ना रहा
ये सोच मुझे एक झटके में मरने नहीं देती।
यूँ मिटा देता ये दुनिया की सारी तकलीफ़ें
जो होता मैं ख़ुदा
पर जानता हूँ क्या हैं हदें इक इंसान की
जो चाहकर भी ऐसा कुछ करने नहीं देती।
उफ़ ये बेबसी मुझे जीने नहीं देती
और अपनों की ये चाहत मरने नहीं देती॥