उदारीकरण के दौर का कुत्ता

01-10-2019

उदारीकरण के दौर का कुत्ता

सुदर्शन कुमार सोनी

हम परेशान थे, चूँकि हमारा कुत्ता आजकल परेशान था। हम अकेले इत्ते परेशान नहीं होते सिवाय तब के जब पड़ोसी प्रसन्न हों! वह आजकल किसी भी चीज़ में ज़्यादा देर नहीं रमता था। मालिक की जेब ढीली करवाने के चक्कर में हमेशा रहता था। कुछ भी लाओ, कुछ भी खिलाओ, वह दो दिन में ही ऊब जाये। पहले किसी चीज़ की इच्छा करे और जब वह उसके सामने ले आओ तो उससे वह दूर भागे। हमने कई वेटरीनेरियन को दिखाया, बहुत से टॉनिक दवाइयाँ व इंजेक्शन लगवाये, लेकिन उसमें सुधार के कोई चिह्न न दिखें। यदि हम पेडीग्री रख दें तो न खाये, कोई दूसरा ब्रांड रख दें तो न खाये। किसी और चीज़ की इच्छा करे। हमें शायद लगा कि उदारीकरण के दौर की फ़ास्ट फ़ूड पंसद करने वाली जनरेशन की तरह इसकी भी यही माँग होगी। लेकिन फ़ास्ट फ़ूड भी दो तो यह सूँघ कर एक ओर को हो जाये। 

यदि सर्दी में इसके लिये कोई स्वेटर ले आओ, तो यह दूसरे दिन उतार कर फेंक दे। इसके लिये इतना अपने शरीर को ज़मीन में रगड़े कि वह अपने आप ही उतर जाये। हम परेशान थे कि बात क्या है? इतनी सर्दी में भी स्वेटर से यह बेदर्दी? बाद में हमें समझ में आया कि यह उदारीकरण के दौर की उपभोक्ता संस्कृति से अति प्रभावित श्वान है। किसी भी चीज़ की अच्छाई इसके सामने ज़्यादा दिन नहीं टिकती थी। मालिक पर यदि कर्ज़ हो रहा हो तो अपनी बला से, उसे तो उसके शौक़ कैसे भी हों, पूरे होने चाहिये। अब यह हर दूसरे दिन यदि कार में नहीं घुमाओ, तो भौंक-भौंक कर घर सिर पर उठा ले, और भी कि कार में भी उसे घुमाने यदि एक ही इलाक़े में ले गये तो उसे शिकायत, एक ही कार में ले गये तो शिकायत। इसे हर चीज़ में चेंज चाहिये। यूज़ एंड थ्रो की संस्कृति का असर इस पर भी घनघोर पड़ गया़ लगता है। 

अब कूलर से इसका काम नहीं चलता था। एसी वाले कमरे में एंट्री पाने के लिये नान स्टॉप भौंकता था। उसका प्रतिसाद जारी रहता और यह तभी बंद हुआ जबकि इसके रहने के स्थान पर एसी लग गया। आख़िर यह उदारीकरण के दौर का कुत्ता था! जैसे भी हो क्रेडिट कार्ड पर या कि किश्तों में उसकी ज़रूरतें पूरी होनी ही होनी हैं। एक खिलौना इसका लाओ तो दूसरे दिन उसकी ओर से नज़रें फेर ले। ज़ोर-ज़ोर से भौंके बस उसकी एक ही इच्छा कि हर दूसरे-तीसरे दिन इसका नया खिलौना होना ही है। तभी यह अपना होना सार्थक समझता!

एक दिन जब हम सुबह की चाय के साथ अख़बार का लुत्फ़ ले रहे थे। यह बहुत ज़्यादा भौंका, हम समझ नहीं पाये तो इसे वैसे ही डाँट फटकार कर चुप करा दिया जैसे कि शिक्षक कक्षा में कठिन प्रश्न पूछने वाले छात्र को करा देते हैं। लेकिन इसने बीच-बीच में गुर्रा-गुर्रा कर व्यवधान जारी रखा। इसका ऐसा व्यवहार हमने अब तलक नहीं देखा था। हमें जब हमने अपने अख़बार के पृष्ठ पर नज़र डाली तब समझ में आया कि अख़बार के डॉग शो के समाचार को देखकर यह मतवाला हो रहा है। हम अब इसको रोज़ ट्रेनर के पास ले जा शहर के आगामी डॉग शो के लिये तैयार कर रहे थे। 

आख़िर यह उदारीकरण का कुत्ता है। इसको यह नहीं सूझता कि जितनी लम्बी चादर है उतने में ही काम चलाना चाहिये, नहीं तो कर्ज़दार बनने में देर नहीं लगती। यह तो बात-बात पर भौंक-भौंक कर जैसे कहता है कि भले ही उधार लो, ब्याज पर ब्याज चुकाओ लेकिन घी खाओ यानी उसकी आवश्यकतायें पूरी करो। ज़िंदगानी का क्या भरोसा जब पैसा होगा, तब उधारी चुका दी जायेगी। नहीं तो ब्याज तो चुकाते ही रहेंगे, इसके लिये उधारी प्रेम की कैंची नहीं है! वह जैसे जताता कि आख़िर विकासशील देश व परिवार का कुत्ता हूँ। कर्ज़ से यदि लदे न हों तो फिर अविकसित नहीं कहलायेंगे। कर्ज़ से लदे होना विकासशील का शील है!

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