तितली

मनोज शर्मा (अंक: 188, सितम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

(बेमेतारा की घटना पर आधारित)

“अरे हिल रही है?”

“नहीं, नहीं अभी भी बेहोश है!”

“अबे देख! सही कह रहा हूँ!”

धीरे-धीरे फुसफुसाहट चलती रही।

कानों में शोर पड़ा! लगा कोई आसपास है। पलकें उठाकर देखा आसपास कोई नहीं था। माथे पर हाथ फिराया, ख़ून से सना था और दर्द के मारे सिर घूम रहा था। नज़रें इधर-उधर घूमतीं रहीं, पर हर तरफ़ बस आवाज़ें ही आ रहीं थीं। कभी हँसने की तो कभी चिल्लाकर एकदम से शांत होने की। घंटों यूँ ही सब चलता रहा। बस कुछ याद था जब कल आई थी।

“यार किसी को पता तो नहीं चलेगा ना?” एक ने पूछा।

“अरे नहीं!” दूसरे को आश्वस्त करते हुए बोला।

बंद ट्रक में हलचल हुई! पर सब एकदम शांत हो गया!

दोनों ट्रक से उतरकर लड़की की ओर फिर लपके। वो अभी भी अंदर आँखें मूँदे सिसक रही थी।

“बेमेतारा की पुलिस को पता चल गया ना साले मारकर खा जाएँगे,” एक ने कहा।

“फिर क्या करें रात से बंधक है वो भूखी प्यासी लड़की!”

“इसको गाँव के तालाब के किनारे छोड़ दें? तड़कलाऊ ही निकल लेंगे।”

“कल जब बेमेतारा गाँव से गुज़र रहे थे तब ये आँगन में खेलते हुए मस्त लग रही थी। क्यों?”

“हाँ मेरा तो दिल ही आ गया था इस लड़की पर और दारू पीते ही जैसे जिस्म में जुंबिश दौड़ गयी थी! तभी तो नशे में रात भर . . . हँसते हुए इसके चंचल मुखड़े ने मुझे तो बाबला ही कर दिया था!”

सिगरेट जलाई और फिर ट्रक के पास की झाड़ियों को हिलते देखा।

“अरे यार अब निकल लो! किसी ने देख लिया ना तो यहीं मार गिराएँगे।”

“अभी रात के तीन बजे हैं! चार बजे चलें?” सिगरेट का कश खींचते हुए दूसरे ने कहा।

“हाँ हाँ अब चलो!”

आह! आह करते लड़की उठी।

“अरे देखो ये तो उठ रही है कहीं चिल्ला न पड़े! जल्दी ट्रक में डालो इसे! अरे जल्दी करो यार!"

लड़की को ट्रक में डालकर ट्रक स्टार्ट किया।

"हाँ, हाँ जल्दी करो अब!"

हॉर्न देता हुआ सड़क तेज़ दौड़ पड़ा।

"पंद्रह-बीस किलोमीटर दूर है; गाँव के पास ही जल्दी ले चलो! वहाँ से कोई भी ले जाएगा इसको।"

"ओय साली चुप कर?" सिसकती हुई लड़की को धमकाते हुए देखा।

लड़की सहम कर हाथ जोड़ने लगी, "मुझे छोड़ दो . . ." 

ट्रक की मंद रोशनी में सहमा चेहरा भीगता जा रहा था। ट्रक दौड़ता रहा। हॉर्न बजाते हुए पहले ट्रक एक से आगे बढ़ा फिर दूसरे से और यूँ ही क्रम चलता रहा।

"तुम कहाँ रहती हो?" ट्रक ड्राइवर ने उत्सुकता से पूछा।

लड़की रोती रही। जैसे सुनसान सड़क पर वो सब भूल चुकी हो!

"अरे यार नौ-दस साल की लड़की क्या बताएगी। फेंक देते हैं गाँव के किनारे। कोई तो ले ही जाएगा इसको!"

"कहीं बक तो नहीं देगी!"

"अरे यहाँ तो ये सब आम है।"

चलते ट्रक की रफ़्तार कम हुई। स्पीड ब्रेकर पर चूँअअ. . . करता पहिया रुका। कुछ दूर बढ़ते ही ट्रक सड़क के दायीं ओर रुका। लड़की ट्रक से बाहर फेंक दी गयी।

पाँच-छह मिनट दोनों लोग सड़क के किनारे देखते रहे पर किसी हलचल हो जाने के अंदेशे से पहले ही भाग खड़े हुए।

लड़की कराहती रही। उसका ज़िस्म जगह-जगह से नोचा गया था जिसके कारण उसकी हालत पल-पल बिगड़ती जा रही थी। तालाब के किनारे गहरे अँधेरे में उजास आता गया। सुबह की पहली किरण ज़मीन पर पड़ते ही हर ओर रोशनी हो गयी।

गाँव की औरतों का तालाब पर पानी भरने के लिए आना-जाना आरंभ होने लगा था।

"अरी ये कौन है?" गाँव की एक युवती ने दूसरी से कहा।

"अरे ये तो अपने गाँव की लगती है!" दूसरी ने पास आकर लड़की को देखते हुए कहा।

पलभर में भीड़ जुड़ गयी और ख़बर पूरे बेमेतारा में आग की तरह फैल गयी।

लड़की चीख़ती रही, "हम तो आँगन में खेल रहे थे। दो लोग मुझे उठाकर ले गये और देर तक गंदा काम करते रहे। पहले एक ने किया फिर दूसरे ने भी! मैं रोती चिल्लाती रही पर वो दारू के नशे में . . . "

"तुम चिल्लाई क्यों नहीं?" सरपंच ने आँखों में तैरते आँसुओं को देखते हुए पूछा।

"वो जंगल में थे हर तरफ़ जंगल ही जंगल बस! मैं रोती रही चिल्लाती रही पर उन्होंने मुझे खूब मारा!"

"अरे हटो भी अब!" गाँव के मुखिया की बीबी ने डाँटते हुए उसे ऊठाया। चादर उढ़ाते हुए उसने लड़की को गाड़ी में बिठाया और डॉक्टर के क्लीनिक की तरफ़ गाड़ी दौड़ा दी। पल भर में अलग-अलग टोलियाँ घटना को सिलसिलेवार बताने लगीं। पुलिस को देखते ही सब दंग रह गये!

"कौन थी ये लड़की?" दरोगा ने भीड़ की ओर देखते हुए पूछा।

भीड़ में से आवाज़ आई, "रमूआ की बेटी है ये तो!"

"कौन बोला?" पुलिस फिर भीड़ को देखने लगा। ज़ुबान पर होंठ फेरते हुए उसने फिर पूछा, "क्या नाम था इसका?"

"ये रमूआ की बेटी तितली है," सरपंच के लड़के ने दरोगा की ओर देखते हुए कहा।

"ये गाँव के बीचों-बीच छोटी सी कोठरी में रहने वाले रमूआ और उसकी महतारू की बेटी है नौ साल की है। चौथी कक्षा में प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती है। रमूआ और उसकी बीबी दोनों मज़दूरी करते हैं। तितली को अकेली आँगन में कई दफ़ा खेलते देखा है।"

"कौन थे ये ट्रक वाले? कोई जानता है उनको?"

"नहीं साहब! हमने कभी नहीं देखा," भीड़ में एक हिस्से ने दोहराते हुए कहा।

"इन सालो की तो! . . . छोड़ूँगा नहीं सालों को!"

पुलिस एक-एक चेहरे को देखते हुई गाड़ी में बैठ गयी।

अब क्या होगा? इस तितली का!

"रमूआ तो रातभर घूमता रहा था," गाँव के लोग आपस में बात कर रहे थे।

"हाँ, हाँ देर रात तक बेचारा तितली को ढूँढ़ता फिर रहा था। बेचारा रमूआ!"

"कहीं तितली को इस हालत में देखकर मर ही न जाए!"

"पिछले साल भी बुधिया की बेटी ऐसे ही . . . "

"वो तो छह साल की ही थी!"

"हरामज़ादों ने बुधिया की बेटी को तो मार ही दिया था! इसी तालाब के किनारे लाश पड़ी थी उस दिन!"

"छोटी कन्या यहाँ सुरक्षित नहीं भाई!"

"हवस के पुजारियों के लिए लड़की छह की हो या साठ की उन्हें क्या?"

"अब कुछ दिन बात हवा में घूमेगी और फिर कोई नया रमूआ और उसकी बेटी ऐसे ही दरिंदों की शिकार बनेगी।"

"मुझे तो न्याय,पुलिस पर कोई भरोसा ही नही!"

पहले आठ बजे फिर नौ फिर दस दोपहर बीत गयी। गाँव में कई जगह इस बलात्कार की बात होती रही पर शाम तक सब ओर शांति थी।

पुलिस ने शाम तक दो-तीन जगह पूछताछ की।

रमूआ और उसकी बीबी का रो-रोकर बुरा हाल हो चुका है।

टूटी खाट पर आँखें बंद किये तितली लेटी है। सहमे हुए चेहरे में अभी भी ख़ौफ़ की सलवटें हैं जो कभी भी तुफ़ान की तरह आकर उसे उठा देता है।

"नहीं नहीं! मुझे छोड़ दो!" कहती हुई वो फिर सिहर जाती है। रमूआ की आँखें गीली हैं।

दो-तीन ग़रीब मज़दूर परिवार कोठरी के बाहर बारी-बारी आवाजाही कर लेते हैं; पर तितली का क्या होगा?

कोई इंसाफ़ होगा?

पता नहीं! पीली धूप शाम के अँधेरे में खो गयी।

शाम अँधेरे में सिमटती गयी।

न्याय का कोई नामोनिशान नहीं।

रोते-रोते सारा परिवार सिसकता रहा और देर रात तक राह देखता रहा पर कहीं कोई उत्तर नहीं था।

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