तेरी सोच-मेरी सोच

08-01-2019

तेरी सोच-मेरी सोच

प्रमोद यादव

समझ नहीं आता। शुरू कहाँ से करूँ? पहले के लेखक-उपन्यासकार तो बेझिझक अपनी रचना की शुरुआत "शौचादि से निवृत्त होकर" जैसे वाक्यों से कर लेते थे। तब न उन्हें लिखते हुए बुरा लगता था। न ही पाठक को पढ़ते हुए। और लगे भी क्यों? भई। ये तो एक प्राक्रतिक क्रिया है जिससे हर एक को रोज़ दो-दो हाथ होना ही पड़ता है। कुछ लोग सुबह-शाम मिलाकर चार-चार हाथ भी हो लेते हैं। वैसे इस पर अभी तक तो "हम दो हमारे दो" की तरह कोई "लिमिट" तय नहीं पर कल को कौन जानता है? हो सकता है सरकार किसी दिन कोई "लिमिट" तय कर दे। दिन में दो बार। या अधिकतम तीन बार। लिमिट से अधिक पर जुर्माना!

ऐसा कुछ हुआ तो सारे शौचालयों को हाईटेक कर उसे आधार लिंक से जोड़ कुछ ऐसा करेंगे कि जनता-जनार्दन की हवा ही बंद हो जाए। शौच तो बाद की क्रिया है। तब बिजली-टेलीफोन बिल की तरह इसका भी हर महीने अलग से बिल आयेगा। ऐसे में ग़रीब परिवारों की मुसीबत ज़्यादा बढ़ेगी। ऐसी स्थिति में उन्हें हफ़्ते में एकाध दिन "उपवास" जैसी प्रक्रिया अपनानी होगी। मतलब कि उदरस्थ मटेरियल को एक दिन पेट में ही फ्रिज करके रखना होगा। मुश्किल काम तो है। ख़ासकर महिलाओं के लिए जो एक भी बात पेट में ज़्यादा देर नहीं रख सकती तो मटेरियल भला कैसे रखेंगी? पर पैसे बचाने कुछ तो करना ही होगा। या फिर काले धन की तरह इसे कहीं गुप्त स्थान पर जमा करना होगा। जहाँ शासन-प्रशासन की नज़र न पड़े। इस देश में कुछ भी हो सकता है। क्योंकि कोई सरकार जब कुछ करने की ठान ले तो करके ही दम लेती है। भले ही करते-करते दम निकल जाए या उसकी किरकिरी हो जाए। चाहे जनता-जनार्दन मिशन का मज़ाक उडाये। या फिर लाख गरियाये।

अब देखिये। स्वच्छ भारत मिशन के तहत क्या कुछ नहीं हुआ। सबसे पहले तो "झाड़ू" पर ही बवाल हुआ कि दूसरी पार्टी का चुराया…! लाख सफ़ाई दें कि उनकी अपनी झाड़ू है पर पब्लिक है- सब जानती है। फिर फोटो सेशन पर बवाल कि सफ़ाई कम कर रहे हैं, फोटो ज़्यादा खिंचा रहे हैं! कई बार तो ऐसा भी हुआ कि किसी बड़ी हस्ती के चीफ़ गेस्ट होने पर इस अभियान के लिए पहले ट्रक भर कचरा मँगवाया। उसे फैलाया फिर उसे ही मिल-जुल कर झाड़ू मारते, फोटो-विडियो खिंचाते उसी ट्रक में डाल अभियान को सफल (और आम जनता को बुद्धू) बनाया। पूरे देश-स्तर पर यह मुस्तैदी दिखी। क्या शहर और क्या क़स्बा। क्या गाँव और क्या मोहल्ला। महीने-दो महीने तो सारे वी.आई.पी. झाड़ू लिए फोटो ही खिंचाते रहे। फिर इन्हें ख़्याल आया कि कब तक यूँ सड़क ही बुहारते रहेंगे। तब बैठकर "वेन्यू" तय किये कि कहाँ-कहाँ सफ़ाई होनी चाहिए - गली-मुहल्ला; नदी-नाला; स्कूल-कालेज; बाग़-बगीचा; दफ्तर-कारखाना…आदि आदि। सफ़ाई के बहाने पुराने-पुराने गोपनीय दस्तावेज़ से भी धूल झाड़ी गयी। इधर से उधर किये गए। तभी तो एकाएक कभी "नेताजी" सुर्ख़ियों में आये तो कभी "पंडितजी"।

सॉरी… कहीं विषयांतर न हो जाऊँ। ट्रेक पर आता हूँ। तो बात स्वच्छ भारत मिशन की चल रही थी। इसके अंतर्गत इन दिनों खुले में शौच पर पाबंदी लगाने शहर में पाँच दिवसीय जागरूकता अभियान चल रहा है। पाँच दिनों से अख़बारों के सारे समाचार "शौचमय" है। बुरी आदत है मेरी कि शौच के समय ही अख़बार पढ़ता हूँ। समाचार पढ़ते-पढ़ते शौच करने का एक अलग ही आनंद है। पता ही नहीं चलता कि क्या हुआ। कब हुआ। कैसे हुआ। किसी दिन अख़बार न आये तो मुश्किल में पड़ जाता हूँ। हाँ, तो बता रहा था कि पिछले पाँच दिनों से अख़बार लिए बैठता हूँ। पर होता कुछ नहीं। और हो भी तो कैसे? कोई ढंग का समाचार हो तो हो। अब शौच के समय ही कोई शौच पर पाबंदी का समाचार पढ़े तो भला शौच कैसे हो?

पाँच दिनों के अख़बार का "शौच-सम्बन्धी" समाचारों की हेडिंग सुनिए - पहले दिन- "नहीं करना खुले में शौच, होगी पैनी नज़र" दूसरे दिन- "शौच स्थलों पर डरे सहमें पहुँचे निगम के इंजीनियर" तीसरे दिन- "खुले में शौच करने वालों की होगी निगरानी" चौथे दिन- "तड़के पहुँचे शौच स्थल, 500 को चेताया" पाँचवे दिन- "टीम पहुँची तब शौच कर जा चुके थे लोग"। आख़िरी समाचार तो साम, दाम, दण्ड, भेद लिए था- "शौचालय नहीं तो राशन नहीं, शासकीय कर्मचारी होंगे बर्ख़ास्त" इन समाचारों को विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं समझता। ये पाँच-सात हेडलाईन्स ही इस अभियान की सफलता (असफलता) की पूरी दास्ताँ कह रहे हैं। साफ़ दिख रहा कि कहीं प्रशासन मिन्नत कर रहा तो कहीं चेतावनी दे रहा है। कहीं अधिकारी सहमें हैं तो कहीं आम आदमी। कहीं आदेश की धज्जी उड़ाते लोग समय पूर्व ही "डाउनलोड" कर निकल गए। तो कहीं कुछ रंगे हाथ लोटों के साथ पकड़े गए। कुल मिलाकर "तू डाल-डाल तो हम पात-पात" की स्थिति है। वैसे ग़रीब आदमियों की फ़ितरत का सरकार को अच्छी तरह इल्म है। उसे मालूम है कि अभियान की समाप्ति के बाद सारे ओ.डी. स्पॉट फिर से ज्यों के त्यों "हरे-भरे" दिखाई देंगे।

उपरोक्त समाचारों में बीच एक समाचार बड़ा ही रोचक और थोडा हट कर था। इसलिए इसका ज़िक्र ज़रा हट के ही कर करा हूँ। हेडिंग था- "खुले में शौच। अमीर कुत्तों का क्या?" सब हेडिंग था -"आम लोगों पर सख़्ती, कुत्तों पर नरमी" संवाददाता ने समाचार में केवल अमीर कुत्तों का ही ज़िक्र किया। ग़रीब कुत्तों को ग़रीब आदमी की तरह बिसार दिया। भई, आखिर खुले में शौच ग़रीब कुत्ते भी तो करते हैं। पर अमीर कुत्तों का जिक्र शायद इसलिए किया कि ये अमीरों के घर फ़ैमिली मेंबर की तरह रहते हैं। पॉश कालोनियों में रहते हैं। और इनके मालिक बड़े-बड़े अधिकारी, समाजसेवी, उद्योगपति, ठेकेदार, डाक्टर, इंजीनियर होते हैं। और यही सब लोग मिशन के हिमायती भी होते हैं और अभियान के तहत लोगों को जागरूक करते हैं। ये सब सुनियोजित ढंग से कुत्तों को टहलाने के बहाने निकलते हैं और किसी के भी घर या मैदान के सामने शौच करा गन्दगी फैलाते हैं। इस पर लोग आपत्ति करते हैं। कुत्तों के मालिकों से रोज़ वाद-विवाद की स्थिति भी निर्मित होती है। लोगों का कहना है कि पालतू कुत्तों के खुले में शौच पर भी रोक लगनी चाहिए। शासन-प्रशासन को कड़े कदम उठाने चाहिए। ताकि खुले में शौच पर पाबन्दी हर स्तर पर सार्थक हो।

बात तो बिलकुल ठीक है और गंभीर भी। अब देखना है कि क्या शासन-प्रशासन इनके लिए (कुत्तों के लिए) कोई स्पेशल शौचालयों का निर्माण करवाता है या फिर कुत्तों को कमोड में बैठने की ट्रेनिंग देने अधिकारियों का कोई दल गठित करता है ताकि पालक अपने कुत्तों को घर पर ही "निबटा" कर स्वच्छ भारत मिशन को सफल बना सकें।

सोचता हूँ अगर इनके लिए शौचालयों का निर्माण किया गया तो वो कैसा होगा और वहाँ का दृश्य कैसा होगा? जाहिर है… शौचालयों को कोई स्पेशल रंग दिया जाएगा ताकि लोग दूर से जान लें कि कुत्तों का है। जैसे पीली बस देखते ही लोग जान जाते हैं- स्कूली बच्चों का है। अब वहाँ की एक झलकी देखिये। काफ़ी संख्या में संभ्रांत लोग तरह-तरह के कुत्तों की जंज़ीर थामे खड़े हैं। कभी वो कुत्तों को खींच रहे हैं तो कभी कुत्ते उन्हें। तो कुछ थक हार कर पसीने से तरबतर उन्हीं की तरह ही हाँफते बैठे हैं। कुछ महिलायें भी फ़ुल मेकअप में गोदी में कूं-कूं करते कुत्तों को लिए बारी का इन्तज़ार कर रही हैं। तो कुछ प्रेशर बनाने कुत्तों को बिस्कुट खिला रही हैं। कुछ बड़े बच्चे अपने से भी ज़्यादा बड़े कद्दावर कुत्ता लिए संडास की तरफ बार-बार ताक रहे हैं और कुत्ते से ज़्यादा वो खुद हाँफ रहे हैं। चारों ओर छोटी-बड़ी जीभ लपलपाते कुत्ते। हा. हा. हा. करते हाँफते कुत्ते। सफ़ेद, भूरे, काले ,चितकबरे कुत्ते। पूरा शौचालय अजीब सी बदबू से अटा-पटा। आदमी और कुत्ता एक ही थैली के चट्टे-बट्टे जैसा साथ-साथ। सटा-सटा। ऐसे माहौल में कुत्ता-मालिकों के आपसी संवाद भी कुछ इस अंदाज़ में होंगे-

"अरे शर्माजी। कैसा है आपका कुत्ता? अब तो ठीक से कर लेता है न?"

"हाँ भई, पर कभी-कभी घंटों लगा देता है। कल तो इसके चक्कर में एक महत्वपूर्ण मीटिंग में डेढ़ घंटे देर से पहुँचा तो कलेक्टर साहब से गाली सुननी पड़ी। आप बताओ। आपके कुत्ते का क्या हालचाल है?"

"बस यार। ठीक ही है। एल्शेसियन है। इतनी ऊँची आवाज़ में भौंकता है कि डर के मारे कई पामेरियन टाईप के छोटे-छोटे कुत्ते जहाँ और जैसे होते हैं, वहीं एक झटके में "निबट" जाते हैं। पीड़ित कुत्ते-मालिक मुझे घूरते हैं जैसे ये सब रायता मैंने फैलाया। कई महिलायें तो लड़ने-झगड़ने पर आमादा हो जाती हैं।"

फ़िलहाल इस कल्पना को यहीं विराम देता हूँ। और यथार्थ के धरातल पर आता हूँ। वैसे उपरोक्त विषय पर मेरी सोच ये है कि सरकार जितनी सख़्ती सफ़ाई अभियान में बरत रही। उतनी अगर "शराब बंदी" पर बरते तो शायद देश का ज़्यादा कल्याण हो। जय-हिन्द!

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