तेलंगाना का लोक पर्व ‘बतकम्मा’ 

15-05-2021

तेलंगाना का लोक पर्व ‘बतकम्मा’ 

डॉ. पद्मावती (अंक: 181, मई द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

“श्री गौरी नी पूजा उय्यालो,
चेयबूनीतिनम्मा उय्याला 
कापाडी मम्मएलु उयालो,
कैलासा रानी उय्यालो.....” 

बतकम्मा शब्द सुनते ही तेलंगाना के हर व्यक्ति की स्मृति में आ जाता है फूलों का वह रंगारंग लोक पर्व जो पूरे प्रदेश में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। भाद्रपद पितृ पक्ष की अमावास्या से आरंभ होकर दुर्गाष्टमी तक इस पर्व की अवधि मानी जाती है। विभिन्न मौसमी फूलों को पर्वताकार रूप में सजाया जाता है और उसमें देवी बतकम्मा की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। इस पुष्प मेरू की पूजा नौ दिन पर्यंत अत्यंत श्रद्धा और भक्ति से की जाती है। तेलंगाना की सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक यह त्योहार अब प्रदेश प्रशासन द्वारा राजकीय पर्व की मान्यता प्राप्त कर चुका है और इसकी ख्याति राष्ट्र की सीमा लाँघ कर अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज तक फैल चुकी है। 

बतकम्मा पर्व के उद्गम में कई जातक कथाएँ प्रचलित हैं। लोक कथाओं का सीधा संबंध जन-मानस से होता है। इन लोक कथाओं में प्रदेश विशेष की संस्कृति, मान्यताएँ और परंपराएँ सम्मिश्रित रूप से पायी जातीं हैं। लोक साहित्य यूँ कहा जाए तो जनमानस की ही अभिव्यक्ति होता है जो वाचिक परंपरा में लोक गीतों के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी पहुँचाया जाता है जिसका भले ही कोई ऐतिहासिक और तार्किक आधार न हो लेकिन यह श्रुतियों और लोकोक्तियों की सुदीर्घ परंपरा के कारण समाज के मन: पटल पर अंकित हुआ होता है। लोक संस्कृति का मौखिक रूप ही लोक गीत हैं जो प्रादेशिक बोली में ही होते हैं। प्रचलित रीति-रिवाज़ों से संपृक्त ये लोक गीत युग बोध का प्रतिनिधित्व करते है जो मुख्यतः पौराणिक और प्रागैतिहासिक कथाओं का आधार लिए समाज में व्यवहृत होते है। यदा-कदा स्वानुभूति और परिस्थितिजन्य संवेदनाएँ भी इन गीतों का अंग बन जाती हैं। वाचिक परंपरा के कारण समयानुसार परिवर्तन और परिवर्धन की संभावनाएँ भी इनमें निरंतर बनी रहती हैं। यह प्रमाणित सत्य है कि सहज और नैसर्गिक संवेदना गीतों में ही खुलकर संप्रेषित हो सकती है। परोक्ष प्रतीकों के माध्यम से काल्पनिक संघटनाओं और वृतांतों का सृजन कर लोक मर्यादा और लोक जीवन आदर्श को जनमानस में स्थापित करने का प्रयास इन गीतों के द्वारा किया जाता है। इस दृष्टि से इन लोक गीतों का सभ्यता और संस्कृति के विकास में विशिष्ट स्थान होता है। इस लेख में बतकम्मा लोक पर्व और उससे संबंधित ‘उय्याला पाटा’ (झूलन गीत) पर विचार किया जाएगा। 

फूलों का पर्व बतकम्मा मुख्यतः तेलंगाना प्रदेश में मनाया जाता है। दुर्गा नवरात्र के नौ दिन बतकम्मा की पूजा की जाती है। बतकम्मा पर्व शरद् ऋतु के आगमन का सूचक होता है। तेलंगाना के सांस्कृतिक और पारंपरिक उत्सवों में यह पर्व एक विशेष महत्व रखता है। इसके पीछे कई कारण हैं। कई दंत-कथाएँ प्रचलित हैं, कई मान्यताएँ और विश्वास व्यवहृत हैं जिनका आधार पौराणिक और प्रागैतिहासिक कथाएँ है। बतकम्मा का शाब्दिक अर्थ होता है, "जीती रहो”। प्राणिमात्र की संरक्षिका देवी पार्वती का ही नाम है – बतकम्मा। इस पर्व के नामकरण के पीछे भी कई रोचक दंत-कथाएँ प्रचलित है। कुछ कथाओं को लीजिए—

एक कथा के अनुसार सती के अग्नि प्रवेश के पश्चात उनका पुनर्जन्म शैलपुत्री पार्वती के नाम से हुआ था। माँ पार्वती के धरा पर पुनरागमन के उपलक्ष्य में यह पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने लगा। 

दूसरी किंवदंती के अनुसार देवी गौरी महिषासुर वध के उपरांत अत्यंत श्रांत हो गई थीं और आश्वयुज प्रतिपदा के दिन माँ निद्रा में लीन हो गईं। माँ को जगाने के लिए भक्तों ने पूजा अर्चना और प्रार्थनाएँ की तथा गाजे बाजे के साथ माँ को जगाया। अंततः विजय दशमी के दिन माँ चेतनामयी हुई और प्रसन्न होकर माँ ने अपने भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण किया। 

एक और रोचक कथा प्रचलन में है कि प्राचीन समय में चोल वंश के महाराज धर्मांगद की पुत्री सत्यवती ने युद्धभूमि में अपने सौ पुत्रों को खो दिया था। अपने पुत्रों की मृत्यु से क्षुब्ध सत्यवती ने संतान प्राप्ति के लिए कई वर्षों तक माँ लक्ष्मी की कठोर तपस्या की थी। फलस्वरूप देवी माँ प्रसन्न हुई और उसकी अभ्यर्थना का मान रखकर उसकी कोख से पुत्री बनकर पैदा हुई। देवी माँ के पृथ्वी पर अवतरित होने पर कन्या को आशीर्वाद देने के लिए कई ऋषि मुनि वहाँ पधारे और उन्होंने उस कन्या को ‘अमरत्व’ का आशीर्वाद देकर नाम दिया – ’बतकम्मा’– अर्थात्‌ ‘‍जीती रहो’। इस दंत-कथा के अनुसार तब से नव विवाहित कन्याओं ने अपनी होने वाली संतानों की दीर्घायु के आशीर्वाद स्वरूप इस पर्व को मनाने की परिपाटी का शुभारंभ किया। इतना ही नहीं अविवाहित कन्याओं द्वारा योग्य वर की प्राप्ति के लिए भी इस पर्व को मनाने का चलन प्रारंभ हो गया। इस प्रकार स्वस्थ, समृद्ध और सुखी जीवन की अभीप्सा को फलीभूत करने वाला यह पर्व महिलाओं का अभीष्ट पर्व माना जाने लगा। बतकम्मा कृषक समुदाय की महिलाओं द्वारा देवी माँ को कृतज्ञता ज्ञापित करने का पर्व है। अमरत्व के द्योतक इस पर्व में महिलाएँ देवी गौरी की पूजा आराधना कर अपने खेत खलिहानों के भंडारों को अतुलनीय कृषि संपदा से परिपूर्ण रखने के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करती हैं और भविष्य में भी माँ भगवती से ऐसी ही कृपा दृष्टि के आशीर्वाद की कामना करतीं हैं। यह पर्व उत्साह, आशा और उत्सर्ग का प्रतीक है।

बतकम्मा पर्व के संदर्भ में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इस पर्व का उद्गम बिंदु अज्ञात ही रहा है। इतिहास साक्षी है कि आदिम मानव ने अपनी जीवन प्रणाली के अनुरूप अपने रीति-रिवाज़ और विश्वासों के आधार पर देवी-देवताओं के पूजा-विधानों का नियमन किया था। प्रारंभ से ही भारत कृषि प्रधान रहा है। जनसमुदाय के एक बडे हिस्से की जीविका का आधार खेती-बाड़ी ही था। ये ग्रामीण समुदाय प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा हेतु ग्राम-देवियों की पूजा करते थे। काले पत्थरों को तराशकर उसमें प्राण प्रतिष्ठा की जाती थी और उसे उस स्थान विशेष की देवी का नाम दिया जाता था। तभी से ग्राम देवी और देवताओं की पूजा का चलन प्रारंभ हुआ। ऐसी मान्यता थी कि ये पंच भूतात्मिका देवियाँ उनकी संरक्षिका शक्ति के रूप में हर आपदा से उन्हें बचाती हैं। दक्खिन भूभाग में पोचम्मा, एल्लम्मा, पेदम्मा, डोकलम्मा, अंगालम्मा, मारमा, नूकालम्मा, जोगुलाम्बा इत्यादि कई नामों से इन स्थानीय ग्राम देवियों को पूजा जाता है। मान्यता है कि ये देवियाँ छद्म वेश से या तो पर्वत शिखर बनकर, या अतल जल की गहराइयों में छिपकर या किसी कंकर पत्थर का रूप लेकर या वृक्ष की खाल में लिपटकर उस विशिष्ट भू-भाग की रक्षा निरंतर करतीं रहतीं हैं। इन मातृका शक्ति स्वरूपों के समक्ष ग्रामीण अपने सभी क्रिया-कलापों का लेखा-जोखा स्वीकार करते हैं, अपने किए अपराधों की क्षमा माँगते है और तरह-तरह के पूजा-विधानों से माँ को प्रसन्न रखने का उपक्रम करते हैं। ये पूजा-विधान शास्त्र सम्मत न होने के कारण लम्बे समय तक इन्हें धर्म की परिधि में सम्मिलित नहीं किया गया था लेकिन सभ्यता के विकास के साथ इन पूजा-विधानों को भी ठोस मूर्त रूप प्रदान कर इन्हें भी शाक्त तंत्रोपासना के अंतर्गत स्वीकृत कर धर्म के परिप्रेक्ष्य में गिना जाने लगा। सौभाग्यदायिनी बतकम्मा भी एक ऐसी ही मातृका शक्ति है जो देवी गौरी का प्रतिरूप मानी गई है जिसकी पूजा अर्चना से दीर्घायु, आरोग्य सुख संपत्ति की प्राप्ति होती है। 

एक किंवदंती के अनुसार सौभाग्यदायिनी देवी बतकम्मा फूलों की आराधिका मानी गई है। देवी को फूल अत्यंत प्रिय हैं। प्रथम दिवस महालय अमावस्या के दिन घर आँगन को बुहार कर गाय के गोबर का छिड़काव किया जाता है। गोबर में जीवाणुनाशक गुण भरपूर मात्रा में पाये जाते हैं। इसीलिए आँगन में इसका छिड़कना शुभ माना जाता है। एक पीढ़े पर हल्दी का लेप लगाकर मौसमी जंगली फूलों को त्रिकोणाकार में सजाया जाता है। बीच में गीली हल्दी से माँ गौरी की एक प्रतिमा बनाकर प्रतिष्ठित की जाती है जिसका पूजन आने वाले नौ दिनों तक किया जाता है। फूलों में गुलमोहर, गेंदा, सनाय, कद्दू फल, गुल दाऊदी, खीरा फल और उसकी पत्तियाँ, अंजन के फूल, पलाश इत्यादि को विशेष रूप से चुना जाता है। इसके पीछे यह मान्यता भी है कि आयुर्वेद के अनुसार ये सभी फूल औषधीय गुणों से भरपूर होते हैं जो वर्षा ऋतु में सामान्यतः आने वाली बीमारियाँ जैसे सर्दी ज़ुकाम और ज्वर इत्यादि में विशेष रूप से कारगर होते हैं। और दूसरा कारण यह है कि ये सब फूल पर्यावरण हितैषी माने गए हैं जो अत्यंत हल्के होने के कारण आसानी से पानी में तैरते हैं। फूलों की बतकम्मा में देवी गौरी का आह्वान किया जाता है। महिलाएँ रंग-बिरंगे परिधान और आभूषणों से सुसज्जित होकर देवी की पूजा अर्चना करती हैं। हर दिन का एक विशेष भोग निर्धारित होता है। इन नौ दिनों में एक भोग सत्तू से भी बनाया जाता है जो हर दिन देवी माँ को अर्पित किया जाता है। महिलाएँ फूलों की बतकम्मा के चारों ओर घेरा बनाकर घूमती हुई गीत गातीं हैं जिसे “उय्याला पाटा” कहा जाता है। 

उय्यालो ....गौरम्मा .... उय्यालो .. 

एमेमी पुव्वोप्पुने गौरम्मा, एमेमी कायप्पुने गौरम्मा। 
तंगेडु पुव्वोप्पुने गौरम्मा, तंगेडु मोग्गप्पने गौरम्मा।
कानरानि चेट्लकु उय्यालो, कानुकलु चेलिंचु उय्यालो।
पट्टु जंगम्य्या उय्यालो, चारेडु मुत्यालु उय्यालो।
एँदम्मा चेल्लला उय्यालो, एडिसेटि पनुलु उय्यालो। 
चिट्टि चिट्टि इल्लकि उय्यालो, सिरिमुग्गुलेसे उय्यालो।
सीतम्मा रामुलु उय्यालो, जूदमाडंगा उय्यालो॥ 

लोक गीत –

तेलंगाना की संस्कृति विलक्षण और विशिष्ट मानी गयी है क्योंकि यहाँ आयोजित सभी पर्व सामाजिक जीवन विधान को ही प्रतिबिम्बित करते हैं। बतकम्मा भी उसी प्रकार का अद्वितीय पर्व है जिसे पूरा प्रदेश अत्यंत उत्साह के साथ मनाता है। फूलों से निर्मित बतकम्मा की पूजा में “उय्याला पाटा” का विशेष महत्व है।
 
उल्लेखनीय तथ्य यह है कि बतकम्मा के ये लोक गीत केवल पौराणिक दंत-कथाओं से ही संबंधित नहीं होते हैं, बल्कि प्रतीकात्मक रूप से समसामयिक युग-बोध और वर्तमान जीवन प्रणाली का चित्र भी उपस्थित करते हैं। एक स्वस्थ, व्यवस्थित और नियंत्रित जीवन शैली का लोकादर्श इन गीतों में दिखाई देता है। मानवीय संवेदनाएँ, लोकाचार और लोक मर्यादा, रीति-रिवाज़, परम्परा, मान्यताएँ, संस्कार, संबंध, पूजा, आराधना, अनुष्ठान इत्यादि गूढ़ विषयों को बड़े ही सरस ढंग से स्फुट गीतों में ढालकर समाज के सामने परोसा जाता है। नारी का परिवार के प्रति दायित्व, पतिव्रता धर्म के लक्षण, सेवा त्याग परोपकार के आदर्श, साँस-श्वसुर की सेवा में तत्परता का भाव, पुत्र संतानोत्पत्ति का महत्व, संतान के पालन पोषण में निहित कर्तव्य भावना, दोनों कुलों की मर्यादा को निभाने में स्त्री की भूमिका, स्त्रियोचित व्यवहार कुशलता, मितभाषिता, नारी सुलभ लज्जा इत्यादि गुणों की महिमा का गुणगान इन गीतों में पाया जाता है। पुराण और इतिहासों में आदर्श जीवन के जो प्रतिमान गढे गए है उनको समाज की मनः स्थिति में बारंबार बिठाया जाना ही इन गीतों का मूल उद्देश्य है। इतना ही नहीं इन गीतों में लोक मर्यादा का उल्लंघन करने पर आने वाली मुसीबतों का भी भयावह वर्णन किया गया है ताकि समाज अनैतिक आचरण से अपने आपको बचा कर रखे और एक स्वस्थ समाज की स्थापना हो सके। 

"उय्याला पाटा” (झूलन गीत) स्फुट गीतों की शृंखला है जिनमें कुछ गीतों व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है –

देवी माँ पार्वती संतानहीन होने के कारण अत्यंत दुखी है। वे अपना दुख देवों के देव पति देव महादेव को बताती है। तत्क्षण गगन से देवी नीलिमा अवतरित होती है और माँ पार्वती को पुत्र प्राप्ति का वर देकर अंतर्धान हो जाती है। झूले में पुत्री प्रकट हो जाती है। माँ खुशी से गीत गाने लगती है – 

यादगिरि पट्नान उय्यालो, निलीमादेवी उय्यालो,
सन्तानेमी उय्यालो, सति चिंता चेंदे उय्यालो,
कानरानि चेट्लकु उय्यालो, कानुकलु चेलिंचु उयालो। 

दूसरे गीत में माँ सीता वन में रावण को भिक्षा इसी मान्यता के चलते देती है कि साधुओं को दान देने से सुपुत्र की प्राप्ति होती है। 

सीता गीत गाती हुई कहती है –

‘पट्टु जंगम्य्या उय्यालो, चारेडु मुत्यालु उय्यालो,
पिलिचि भिक्षा पेडिते उय्यालो, पुडतादि अय्या बिड्ड उय्यालो’।
 
“जंगम (सांसारिक) झूले में तो मोतियों की राशियाँ मिलती हैं, 
साधु को भिक्षा देने से हमारे झूलों में पुत्र प्रकट हो जाते हैं”। 

एक और गीत में ससुराल में नई नवेली दुल्हन अपने भाई को सम्मुख पाकर अपना दुख व्यक्त करती हुई कहती है कि अभी तक उसकी कोई संतान पैदा नहीं हुई है और इसीलिए वह बहुत दुखी है। भाई सांत्वना देता है कि बहुत जल्द उसके झूले में बालक की किलकारियाँ गूँजेगी– 

‘फलमोंदे दाका उय्यालो, पडवाले चेल्ली उय्यालो,
तोट्टी लो बालुडु उय्यालो, तोलुकाडेदाका उय्यालो’। 

ये सभी गीत इस बात की पुष्टि करते है कि तत्कालीन समाज में पुत्रवती माँ को ही सौभाग्यशाली नारी माना जाता था। 

प्रतीकात्मक शैली पर आधारित इन गीतों में नारी शोषण की समस्या को भी पर्याप्त रूप से अभिव्यक्ति मिली है। पशु पक्षियों के प्रतीकों से समाज में नारी पर हो रहे हो रहे अत्याचार को मार्मिक ढ़ंग से उकेरा गया है ..
उदाहरण देखिए –

‘बालेंता वडिकिंदी उय्यालो, बंगारी पोगु उय्यालो,
मुसिलिदि वडिकिंदी उय्यालो, मुत्याला पोगु उय्यालो,
चीर कट्टुकुनि उय्यालो, कोंगला बाईकी उय्यालो,
कोंगलन्नी गूडि उय्यालो,कोंगंता चिम्पे उय्यालो’। 

युवती बचपन रूपी सोने का धागा, यौवन रूपी हीरों का धागा और बुढ़ापा रूपी मोतियों का धागा लेकर बुनकर के पास जाती है और अपने लिए एक अलौकिक साड़ी बुनवाती है। संध्या समय दिए जलने के पश्चात गर्व से मदमाती हुई उस साड़ी को पहन कर पानी भरने के लिए तालाब पर जाती है। तालाब में तैरने वाले हंस उसकी साड़ी फाड़ देते हैं, पेड़ पर बैठे तोते उसके शरीर को क्षत-विक्षत कर देते हैं। कमज़ोर क्षणों में वह समर्पण कर देती है और वे उस नारी के साथ दुराचार करने में सफल हो जाते है . . . वह नवयौवना गर्भवती हो जाती है, पुत्र को जन्म देती है, संतान को त्याग देने पर विवश हो जाती है, समाज द्वारा बहिष्कृत हो जाती है, उसका संपूर्ण जीवन नष्ट हो जाता है और अंततः मृत्यु को प्राप्त होती है। कहने का अर्थ है कि इस गीत में यह समझाने का प्रयत्न किया गया है कि नारी हमेशा पुरुष के संरक्षण में ही सुरक्षित जीवन बिता सकती है। देर-सवेर अँधेरे में नारी का घर से बाहर निकलना ख़तरे का आह्वान करना ही है। नारी घर की लक्ष्मी है, वह घर की चारदीवारी में ही संरक्षित रहती है। लक्ष्मण रेखा पार करने का परिणाम मृत्यु भी हो सकता है। 

तत्कालीन भारतीय समाज में बहु-पत्नी प्रथा भी प्रचलन में थी जिसकी खुलकर भर्त्सना इन गीतों में की गई है। घर की शांति किस प्रकार बहु-पत्नियों के कलह से भंग हो जाती है, कई रोचक कथाओं के उदाहरण देकर इन गीतों में समझाया गया है। संयुक्त परिवार के आदर्श, गुण-दोष इत्यादि भी इन गीतों में देखने को मिलते हैं। 

जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि लोक-साहित्य जनमानस का ही साहित्य होता है। समयानुसार इसमें परिवर्तन और परिवर्धन भी होते रहते हैं। बतकम्मा के गीत भी इसके अपवाद नहीं है। कालांतर में उय्याला गीतों में कई सामयिक विषयों को सम्मिलित कर उसे युग बोध के संप्रेषण का उत्तम माध्यम बना दिया गया है। 

सन 1948 का परिदृश्य, सूर्या पेट ज़िले में महिलाओं के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव कर उन्हें अपने श्रम का उचित वेतन नहीं दिया जाता था। तब महिला शक्ति ने एकजुट होकर इस अन्याय का प्रतिरोध करने की ठानी और एक वृहत अभियान चलाया। 

महिलाओं ने अपने संघर्ष को आवाज़ देने के लिए एक विशाल मोर्चे का आयोजन किया था जिसमें भाग लेने के लिए दूर-दराज से ग्रामीण महिलाएँ ट्रकों में बैठकर आयीं थी। इस ऐतिहासिक घटना का आँखों देखा वर्णन प्रस्तुत गीत में देखिए –

‘पल्लेलो स्त्रीलंता उय्यालो, परुवु कापाडुकोन्ना उय्यालो,
बैलदेरिनारू उय्यालो,शील रक्षण कोरकु उय्यालो,
स्त्रीलंता कूडारू उय्यालो, लारीलु चुट्टेसी उय्यालो,
लड़ाई चेसिरी उय्यालो, अम्म भरत देसमु उय्यालो’। 

बतकम्मा लोक गीत एक पारंपरिक गीत शैली है जिसमें परिस्थितिजन्य राजनैतिक गतिविधियों और सांस्कृतिक क्रिया-कलापों को भी समुचित अभिव्यक्ति मिली है। समानांतर धारा के रूप में बाल नागम्मा की दंत-कथाएँ, एल्लमा की कथाएँ, अकम्मा देवी की कथाएँ, रुद्रमा देवी की कथाएँ भी इन गीतों में प्रवाहित होती रहती हैं। इतना ही नहीं प्रदेश में गुज़री हर एक प्राकृतिक आपदा की भयावह स्थिति से जनता को अवगत कराने के लिए भी इन गीतों का सहारा लिया जाता है। ये लोक-गीत जन-जागरण और जन-चेतना के सशक्त उपकरण बन गए है। इन गीतों में तेलंगाना के गौरवशाली अतीत का गुणगान ही नहीं होता बल्कि वर्तमान की हर घटना, हर संवेदना को लयबद्ध सरल शैली में अभिव्यंजित किया जाता है। बतकम्मा लोक गीत के कलाकार ऐतिहासिक संदर्भ और पौराणिक कथाओं का आधार लेकर समसामयिक समस्याओं को अपनी मौलिक उद्भावनाओं से युग सापेक्ष और प्रासंगिक बनाने में विशेष भूमिका निभाते हैं। माना जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है और लोक साहित्य के परिप्रेक्ष्य में तो यह उक्ति पूर्ण रूपेण चरितार्थ होती है। 

बतकम्मा के गीत तुकांत होते हैं। हर एक पंक्ति के अंत में गौरम्मा और उयालो शब्द की आवृत्ति होती है। हर एक पंक्ति दो बार दोहराई जाती है। महिलाएँ घेरा बनाकर बतकम्मा के चारों ओर घूमती हुई तन्मयता से इन गीतों को गातीं हैं।

पर्व के अंतिम दिन गाजे-बाजे के साथ देवी बतकम्मा को जल में निमज्जन कर दिया जाता है और अगले वर्ष फिर आने की मंगल कामना भी की जाती है। हल्दी से बनी बतकम्मा की प्रतिमा को सुहागिनें अपने शरीर पर धारण करती है। प्रदेश में ख़ुशी और उत्साह के साथ इस पर्व का समापन किया जाता है। कहा जा सकता है कि बतकम्मा पर्व तेलंगाना की सांस्कृतिक धरोहर है। 

‘श्री रामा जय रामा उयालो, श्री सीता रामा उय्यालो, 
हे रामा रघु रामा उय्यालो, अयोध्या रामा उय्यालो।
तेलंगाना चरितम्मा संदमामा, तेलीयजेप्पुतानू संदमामा’। 
 

4 टिप्पणियाँ

  • बहुत अच्छा आलेख पद्मावती जी। इसके द्वारा प्रदेश की लोक-संस्कृति व जीवन को जाना। बधाई।

  • 15 May, 2021 11:18 AM

    सारगर्भित आलेख

  • तेलंगाना का सास्कृतिक लोकपरव पर ज्ञान वरदधक आलेख। बतककमा। भारत के लोक संसकृति को उजागर करता है। लेखिका ने अथक श्रम और इस पर्व का तह तक जाकर आलेख लिखा है। जीती रहो। इस आलेख से लाभान्वित हुए। बधाई।

  • 15 May, 2021 10:12 AM

    हार्दिक बधाई पदमा जी, बहुत ही सुन्दर लेख इस पर्व की सम्पूर्ण जानकारी मुझे आप के लेख द्वारा हुई।

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