तन्हाई

अनिल खन्ना

आख़िर तुम चली गई एक दिन 
अपने समय से बहुत पहले!
छोड़ गई अपने निशान 
यादों की गीली रेत पर।
जिन्हे वक़्त की लहरें भी 
मिटा न सकेंगी 
उम्र भर।

मै तुम्हें बचा न सका 
विधाता की विधि टाल न सका।

तुम्हारी यादों के काफ़िले 
अब मेरे साथ चलते हैं।
तुम्हारे प्यार के जुगनू 
मेरी उदास रातों मे 
टिमटिमाते हैं।

रोज़ सुबह 
क्यारी में खिले फूलों मे 
तुम्हारा चेहरा देखता हूँ।
अपनी हर साँस में 
तुम्हारी ख़ुशबू लेता हूँ।

रोज़ रात 
अलमारी मे टँगे 
तुम्हारे कपड़ों को छू कर 
तुम्हें महसूस करता हूँ।
तुम्हारे तकिये पर सर रख के 
हमारी अधूरी किताब के पन्नों में 
बीते पल ढूँढ़ता हूँ।

जब कभी ढलते सूरज की लाली 
तुम्हारी माँग के सिंदूर की 
याद दिलाती है।
तो अनायास आँख  
भर आती है!

ख़ूब खिलवाड़ करती है 
रखैल बन कर 
ये तन्हाई मेरी 
साथ रह कर इसी के 
अब कट जाएगी 
ज़िन्दगी मेरी।

                 
 

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