तनहा
क़ाज़ी सुहैब खालिदहक़ीक़त में तनहा हूँ ऐ दोस्तो,
अब के बारिश की बूँदों में चेहरे नहीं,
अब के आमों की बगियों में झूले नहीं,
अब के लौटे तो थे हम उसी रास्ते
अब के जूतों पे धूलों के मेले नहीं,
हक़ीक़त में तनहा हूँ ऐ दोस्तो।
उन दिनों की इक अजब बात थी,
शामें ऐसी सजी जैसे बारात थी,
अब तो पीते हैं फिर भी नशा वो नहीं,
उन दिनों की हवाओं में झंकार थी,
हक़ीक़त में तनहा हूँ ऐ दोस्तो।