ता’सबों के सौदागर

15-03-2021

ता’सबों के सौदागर

विवेक कौल (अंक: 177, मार्च द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

सियाह था अगरचि
लिखावट का रंग
क़लम भी थे बेरंग,
पर वसीह थे ख़्यालात
और नज़रये -रंगारंग । 
 
वसीह ख्यालात = उदार विचार
ता’सब= पूर्वाग्रह

 
क़लम बाज़ार में बिकते थे बेशक
पर, नज़रयात नहीं।
और चर्चों की बुनियादें हक़ीक़ी थी,
मसनुई ख़यालात नहीं
 
हक़ीक़ी = वास्तविक
मसनूई = कृत्रिम

 
क़लम के सिपाही तब भी थे
क़लम के सिपाही अब भी हैं
फ़र्क़ बस इतना है
क़लम किसके हाथ में हैं
तब यह मायने रखता था
अब यह मायने रखता है
हाथ में रखी यह क़लम किसकी है
 
कोने में पड़ी बदहाल किताब में
इंक़लाब लाने की थी सलाहियत
जब ख़यालात वाइरल होने के
ना थे मोहताज
और सोच मुनाफ़े की ना थी मातहत। 
 
सलाहियत= योग्यता
 
ट्विटर के चंद अल्फ़ाज़
की यह छोटी गागर
इसमें कहाँ समा सकता है
गहरी सोच का सागर
इसलिए मापना है लफ़्ज़ों को
तो मापिए उनके वज़न से
ना कि उनके फैलाव से।
सोच मापिए उसकी गहराई से
ना की उसके बहाव से।
 
अल्फ़ाज़ = शब्द
 
ये लाज़मी नहीं जो वाइरल है
वो ही अहम है, वो ही सही है
कहीं यह ता’सबों के सौदागर
आपकी सोच पर क़ाबिज़ तो नहीं है ?
 
लाज़मी = आवश्यक
 
इस मजाज़ी साइबर दुनिया में
ज़ेहन फ़रोशी का बाज़ार गरम है
सचाई थोड़ी है ज़्यादा भरम है
 
मजाज़ी = कल्पित
ज़ेहन फ़रोशी = विचारों  की  बिक्री

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