बीतती है रात जाती,
भोर की पदचाप सुनकर
तो खिले पथ में कमल,
दिगन्तों का कुहासा छट रहा है।
बादलों के पार प्रियतम,
दृग खोलता, अब जग रहा है।
शंख की ध्वनि,
बन किरण, दूर मंदिर में जगी है।
सद्य:स्नाता सुंदरी ले घट,
धो रही पथ प्रिय का
सूर्य का सेवक जगाता,
पुष्प-कलिका चल रहा है।
और उषा ने स्वप्नमीलित,
बोझिल नयन-घट-पट उठाए,
रात के परिधान से
फैले हुए तारक उठाए,
मुस्कुरा दी, रात के परिहास
की सुख-याद से वह
हँसते-हँसते नयन ने जब
ओस - मोती थे गिराए।
वह समेटे, यह समेटा,
व्यस्त होती सुन्दरी
जान कर जाग्रत खगों ने,
मधुर वृन्दी गान गाए।
सूर्य का रथ, नभ में उतरता,
टहलता सा आ रहा है,
जगत के प्राणी-प्रकृति पर,
जागरण सा आ रहा है,
सकुँच कर, लाल होती,
उषा ने मधु मुस्कान के संग
सूर्य से हँसकर कहा,
कुछ दूर क्यों न घूम आएँ।
भोर क्योंकर शीघ्र होती,
स्वप्नमय वह पूछता है
सूर्य से कह दो न माँ!
कुछ दिन छुट्टी ले,
वह कहीं जाए!!