अर्णव और राघव दोनों कक्षा 9 में पढ़ते थे। कक्षा में भी पास ही बैठते थे। दोनों के बीच अच्छी मित्रता हो गई थी। दोनों पढ़ने में होशियार भी थे। दोनों का घर भी पास-पास ही था। राघव के पिताजी का ट्रांसफर अभी-अभी इसी शहर में बैंक मैनेजर के रूप में हुआ था। अर्णव कक्षा में सदैव प्रथम आता रहा था। पहले अर्णव स्कूल से घर आकर होमवर्क करता, फिर ट्यूशन जाता वहाँ से आकर ट्यूशन में दिया गया होमवर्क करता। शाम को तो ख़ैर उसे खेलने का समय ही नहीं मिल पाता था लेकिन घर पर भी वह और कोई अन्य काम नहीं कर पाता, न ही टी.वी. आदि मनोरंजन का समय उसे मिल पाता। स्कूल में होने वाली साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग तो लेना चाहता था किन्तु समयाभाव के कारण नहीं ले पाता था। उसके पिताजी का मानना था कि पढ़ाई से अधिक ज़रूरी और कुछ नहीं। वह अक्सर कहा करते थे- ”देखो बेटा! इन सब एक्सट्रा एक्टीविटीज़ के लिए तो पूरा जीवन ही पड़ा है, ये सब शौक़ तो बाद में भी पूरे किये जा सकते हैं। किन्तु पढ़ाई का जो महत्वपूर्ण समय निकल गया वह दोबारा नहीं आएगा। तुम्हारा रैंक, परसेन्टेज और बढ़ता कॉम्पीटिशन बस! ये सब ही तुम्हें ध्यान रखने है। ये सब एक्स्ट्रा एक्टीविटीज़ समय की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं है। इन सब से तुम्हारा कन्सन्ट्रेशन ख़त्म हो सकता है।“ 

इधर आश्चर्य की बात यह थी कि राघव न तो ट्यूशन जाता था, न ही किसी ने उसे घर पर बहुत अधिक पढ़ते हुए देखा था। वह स्कूल सदैव समय पर जाता। वहाँ मन लगा कर पढ़ता और स्कूल की प्रत्येक अतिरिक्त गतिविधियों में भी बराबर सम्मिलित होता। खेलकूद, संगीत और भाषण सभी में वह अग्रणी रहता। घर पर आकर वह टी.वी. भी देखता, शाम को खेलने भी जाता और घर के कार्यों में अपने बड़ों की मदद भी करता। वह हमेशा दस बजे तक सो जाया करता था। अर्णव की मम्मी कई बार राघव की मम्मी से कहा करती थी, “भाभीजी आपका राघव तो मैंने कभी पढ़ते ही नहीं देखा। या तो टी.वी. देखता रहता है या फिर खेलता रहता है। अरे हाँ! वह तो ट्यूशन भी तो नहीं जाता। देखो बुरा मत मानना भाभीजी! आज कल बच्चों में कॉम्पीटिशन कितना बढ़ गया है? आप अपने राघव को थोड़ा समझाया करो। आख़िर उसके भविष्य का सवाल है।” फिर बड़े गर्व से सबसे कहती, “देखो हमारा अर्णव तो दिन-रात केवल पढ़ाई ही करता रहता है और बच्चे तो जब देखो टी.वी. से चिपके रहते हैं या खेलते रहते हैं, हमारा अर्णव तो रात को भी 12.30 बजे तक पढ़ता है।”

राघव की मम्मी अर्णव की मम्मी की बात सुनकर चिन्ता में पड़ गई। उन्होंने यह बात राघव के पापा को बताते हुए कहा, “ऐसा कीजिए, कल आप राघव की क्लास टीचर से बात करना। हालाँकि हमारा बेटा इससे पहले वाले स्कूल में सदैव कक्षा में अव्वल आता रहा है लेकिन हमें इस स्कूल में भी तो उसकी प्रगति के बारे में मालूम होना चाहिए।” 

अगले दिन राघव के पिताजी उसके स्कूल जाकर उसकी क्लास टीचर से मिले। उन्हें देखकर उनकी क्लास टीचर बहुत ख़ुश होती हुई बोली - “अरे! आइये  मिस्टर शर्मा! मैं भी चाह रही थी कि एक बार राघव  के पेरेन्टस् से मिलूँ। अच्छा हो गया आप स्वयं ही आ गए।“ 

टीचर की बात सुनकर राघव के पिताजी थोड़ा असहज हो गए उन्हें लगा शायद राघव की कोई शिकायत सुनने को मिलेगी। बोले, “क्या बात है मैम! क्या राघव की कोई शिकायत है?“ 

मुस्कुराते हुए उनकी मैडम बोली, “अरे नहीं। आपका बेटा तो क़ाबिले तारीफ़ है। उसकी तो जितनी तारीफ़ करो उतनी कम है। पढ़ने में भी तेज़ है और अन्य गतिविधियों में भी अव्वल। विनम्रता और ज्ञान दोनों के संस्कार आपने अपने बेटे को दिये हैं। मैं तो उसी का उदाहरण कक्षा के अन्य बच्चों को देती हूँ। हालाँकि कक्षा में और भी बच्चे हैं जो पढ़ाई में होशियार हैं किन्तु पढ़ाई में होशियार होना ही तो जीवन में पर्याप्त नहीं है। सबसे बड़ी सम्पदा तो स्वास्थ्य है। मैंने राघव को बीमारी के लिए कभी एक भी छुट्टी लेते नहीं देखा। राघव हमेशा समझ के पढ़ता है। सदैव विद्यालय समय पर आता है। समय की पाबन्दी और अनुशासन से ही बच्चों की प्रतिभा निखरती है। आश्चर्य की बात है जो पाठ हम पढ़ाते हैं उसकी जानकारी पहले से ही उसे होती है। इसका मतलब वह उस पाठ को पहले घर से समझ कर आता है। इसके अलावा खेलकूद में उसका एनर्जी लेवल बहुत प्रशंसनीय है। उसकी आर्ट टीचर अक्सर मुझसे उसके क्रिऐटिविटी की प्रशंसा करती रहती है।“ 

राघव के पापा कक्षा अध्यापिकाजी की बात सुन कर संतुष्ट हो गए और अपने बेटे की चिन्ता से मुक्त भी। 

कुछ दिनों बाद बच्चों की परीक्षाएँ आरम्भ हो गईं। राघव सहज और निश्चिंत होकर अपनी परीक्षा दे रहा था और उधर अर्णव परीक्षा के दिनों में अधिक से अधिक पढ़ाई करता हुआ भी उतना सहज और निश्चिंत नहीं था। उसके मन में सदैव यही व्याकुलता रहती कि कहीं मेरा रैंक पिछड़ कर नीचे नहीं चला जाए। मेरे पर्सेन्टेज कहीं अपेक्षा से कम नहीं आ जाएँ। खाना-पीना, सोना तो जैसे अर्णव परीक्षा में भूल ही जाता था। उसका चेहरा इन दिनों बहुत पीला और कमज़ोर हो गया था।  उन्हीं दिनों उनके घर कुछ रिश्तेदार अचानक आ गए। अर्णव की माँ की तो जैसे हालत ही ख़राब हो गई। मानो इन दिनों उन्होंने आकर कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो। दो दिन बाद तो अर्णव की मम्मी ने हद ही कर दी और उनके सामने स्पष्ट बोल दिया, ”अभी अर्णव की परीक्षा चल रही है। और जब हमारे बेटे की परीक्षा होती है। समझो हमारी भी परीक्षा ही होती है। हम लोगों का न खाने का ठिकाना होता है और न सोने का। ऐसे में हम आप की आवभगत नहीं कर पायेंगे। क्षमा कीजिए। बेटे के भविष्य से बढ़ कर हमारे लिए कुछ नहीं।“ 

अपना-सा मुँह लेकर रिश्तेदार चले गये। कुछ दिनों में आख़िर परीक्षाएँ भी समाप्त हो गई। लेकिन परीक्षाएँ ख़त्म होते ही अर्णव के माता-पिता ने अर्णव को एक नए कोचिंग में भेजना शुरू कर दिया। जहाँ छह घण्टे की कोचिंग लेकर अर्णव घर आता और घर आकर भी वही पढ़ाई। उस दिन अचानक मोर्निंग वॉक करते हुए राघव और उसके पापा को  साथ देखकर अर्णव के पापा मुस्कुराते हुए बोले, “अरे राघव बेटा!आज तुम भी मोर्निंग वॉक करने आ गए। और! तुम लोगों का रिज़ल्ट कब आ रहा है?” 

राघव ने मिस्टर गुप्ता को बताया कि वह इन दिनों जब से छुट्टियाँ हुई हैं प्रतिदिन पापा के साथ मोर्निंग वॉक पर जाता है और उसके बाद फिर फुटबाल मैच के लिए अपने साथियों के पास चला जाता है। फिर राघव ने अचानक अर्णव के बारे में पूछा लिया- “अंकल अर्णव दिखाई नहीं देता! वेकेशन में कहीं बाहर गया है क्या?“ 

सुनकर अर्णव के पापा बड़े गर्व से सीना फुला कर बोले, ”अरे नहीं! तुम्हें पता नहीं राघव! वो तो परीक्षा ख़त्म होते ही प्रतिभा कोचिंग क्लासेज़ में जाने लग गया है। तुम भी बेटा खेलना-वेलना छोड़ो और पढ़ाई पर ध्यान दो। इस बार बोर्ड की क्लास है तुम लोगों की।” राघव कुछ बोलता इससे पहले उसकी फुटबॉल टीम के साथी उसको बुलाने आ गए। राघव के चले जाने पर राघव के पापा मिस्टर गुप्ता से पूछ बैठे- ”अभी तो छुट्टियाँ चल रही हैं और अभी तो बच्चों का रिज़ल्ट भी नहीं आया। भाई साहब!अभी अर्णव कौन सी कोचिंग में जा रहा है?“ 

अर्णव के पापा बड़ी ज़ोर से हँसते हुए बोले, “शर्माजी! आप कौन से ज़माने में रहते हैं? आजकल तो बच्चे छोटी-छोटी क्लासेज़ से ही इन कॅरियर कम कोचिंग क्लासेज़ में जाने लग जाते हैं ताकि भविष्य में वे आईआईटी , मेडिकल जैसी परीक्षाएँ पास कर सकें। उनका एक साल भी बेकार नहीं हो इसलिए छोटी क्लासेज़ से ही उन्हें अधिक से अधिक पढ़ाई से जोड़ना भी तो ज़रूरी है। और आप को तो पता ही है कि हमारा अर्णव तो वैसे ही कितना होशियार है? सदैव प्रथम रैंक आती है और अब तो उसकी बोर्ड की क्लास भी है। फिर उसे मेडिकल के क्षेत्र में जाना है। अब तो उसका एक-एक क्षण क़ीमती है। आपने राघव को भी कोचिंग भेजना शुरू किया या नहीं? वैसे वहाँ पर एडमिशन होना इतना आसान नहीं है।पहले एन्ट्रेन्स एग्ज़ाम में उत्तीर्ण होना पड़ता है, उसके बाद फ़ीस, वो भी तो कितनी ज़्यादा है!”

अर्णव के पापा की बात सुनकर मिस्टर शर्मा कुछ गंभीर होते हुए बोले, “देखिए, गुप्ताजी! आप की बात सही है कि अपने भविष्य के प्रति बच्चों को जागरूक करना और उसके लिए तैयार करना आवश्यक है। किन्तु प्रत्येक उम्र की अपनी सीमाएँ होती हैं। यदि हमने बच्चों से उनका बचपन ही छीन लिया तो क्या बड़े होने पर उनका जीवन एकांगी एवं नीरस नहीं हो जाएगा? बचपन की उन छोटी-छोटी ख़ुशियों से क्या वह महरूम नही हो जायेंगे? खेलने से बच्चों का शारीरिक ही नहीं मानसिक एवं सामाजिक विकास भी तो होता है। यदि अभी से उन्हें हमने उस पढ़ाई के बोझ से लाद दिया जो उनके स्तर से कहीं अधिक है, तो क्या उनकी पढ़ने की स्वाभाविक रुचि समाप्त नहीं हो जाएगी? बच्चे सहजता से जो सीखते हैं वो अधिक दीर्घ व स्थायी होता है। कोचिंग क्लासेज़ उन बच्चों के लिए ठीक हैं जिन्हें किसी विषय विशेष को लेकर समस्या है। किन्तु क्या यह सही है कि छोटी-छोटी क्लासेज़ से ही बच्चों को भेड़-बकरियों की तरह कोचिंग में हाँक दिया जाय। अपनी समस्याओं को स्वयं हल करना बच्चा कैसे सीख पाएगा? केवल दूसरों के दिये निर्देशों का पालन करने से तो बच्चा स्वयं भी एक मशीन की तरह ही हो जाएगा। जिसकी अपनी भावनाएँ, संवेदनाएँ और इच्छाएँ खुल कर साँस भी नहीं ले पाएँगी। जीवन में काम के साथ विश्राम भी तो आवश्यक है। उसकी रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता क्या घुट कर दम नहीं तोड़ देगी? फिर आपने देखा होगा, सुना होगा और पढ़ा भी होगा कि हमारे समाज में  किस तरह छोटे-छोटे बच्चे डिप्रेशन में आने लगे हैं। आत्महत्या की प्रवृत्ति बच्चों ओर युवाओं में बढ़ने लगी है। मेरी बात पर थोड़ा विचार अवश्य कीजिएगा। चलिए अब मैं चलता हूँ।“ 

अपनी बात पूरी करके राघव के पापा घर की ओर चल दिये किन्तु मिस्टर गुप्ता वहीं खड़े रह गए और गहरी चिन्ता में पड़ गए -सच!अपने बेटे को मैंने कई दिनों से खुल कर हँसते हुए नहीं देखा। कहीं हम अपने बच्चे के भविष्य की चिन्ता को लेकर उसका वर्तमान तो उपेक्षित नहीं कर रहे। बेचारा! आजकल कितना कमज़ोर और टेन्शन में रहता है। खाना, सेहत और खेल इन सब पर  तो हमने कभी ध्यान ही  नहीं दिया। पढ़ाई, रैंक और परसेन्टेज के अलावा तो हम उससे कोई बात ही नहीं करते। क्या यह उचित है? इन्हीं सब विचारों में खोये हुए मिस्टर गुप्ता कब घर आ गया पता ही नहीं चला। 

मिसेज़ गुप्ता ने जब उन्हें विचारों में खोये हुए देखा तो पूछने लगी, “क्या बात है? आज मोर्निंग वॉक से घूमकर जब से आए हो न जाने किस चिन्ता में पड़े हो? ज़रा मुझे भी तो बताओ।“ 

मिस्टर गुप्ता ने राघव के पापा से हुई वार्तालाप के बारे में बताया और बोले - “रेखा! कहीं हम अपने बच्चे के ऊपर उसकी क्षमता से अधिक बोझ तो नहीं डाल रहे हैं? वो तो कुछ कहता नहीं, किन्तु तुमने भी देखा होगा आजकल कितना गंभीर और थका हुआ लगता है। उसको खुलकर हँसते हुए देखे भी कितना समय हो गया है?” 

पति की बात सुनकर मिसेज गुप्ता बुरा सा मुँह बनाती हुई बोली - ”तुम भी ग़ज़ब करते हो! बस किसी ने दो बातें समझा दीं और तुम्हारी समझ में आ गईं। क्या हमारे पास दिमाग़ नहीं है? और फिर आप किसकी बात का विचार कर रहे हो? उनका बेटा जो हमेशा खेलने और मौज-मस्ती में लगा रहता है। उहँ! चिढ़ते होंगे मेरे बेटे की मेहनत और प्रतिभा से। ख़ुद का अपना बेटा तो सुधरता नहीं, लगे दूसरों को नसीहत देने। तुम उनकी फ़ालतू बातों पर ध्यान मत दो। देखना अभी रिज़ल्ट वाले दिन उनके बेटे की सारी पोल खुल जाएगी।”

आख़िर रिज़ल्ट का दिन भी आ पहुँचा। रिज़ल्ट स्कूल के प्रार्थना कक्ष में सभी के सामने कक्षाध्यापक को घोषित करने थे।कक्षा 9 और 11 में प्रथम आने वाले विद्यार्थी का नाम स्वयं प्रधानाचार्य घोषित करने वाले थे और उन विद्यार्थियों को सबके सामने पुरस्कृत भी किया जाना था। आज ही के दिन विद्यालय की अन्य सहशैक्षणिक गतिविधियों के पुरस्कार भी विद्यार्थियों को दिये जाने थे। निश्चित समय पर सभी कक्षाध्यापक एवं प्रधानाचार्यजी आ पहुँचे। कक्ष खचाखच भरा हुआ था। अधिकांश बच्चों के साथ उनके माता-पिता भी आए थे। अर्णव व राघव के माता पिता भी अपने बच्चों के साथ सभा में उपस्थित थे। पहले कक्षा 11 का परिणाम सुनाया, फिर कक्षा 9 का। अन्त में दोनों कक्षाओं में प्रथम स्थान पर रहने वाले विद्यार्थियों के नाम स्वयं प्रधानाचार्यजी ने घोषित किये। जब कक्षा 9 में प्रथम आने वाले छात्र का नाम घोषित होने जा रहा था मिस्टर गुप्ता पहले से ही अर्णव को लेकर आगे आकर खड़े हो गये। प्रत्येक वर्ष उन्हीं का पुत्र कक्षा में प्रथम आता रहा थाा, इसलिए इस वर्ष भी उन्हें पूरा विश्वास था कि इस बार भी अर्णव ही प्रथम रहेगा।  

“कक्षा 9 में जो बालक प्रथम आया है उसका नाम घोषित करते हुए मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है। मुझे प्रसन्नता इस बात की है कि वो बालक न  केवल कक्षा 9 में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने वाला छात्र है अपितु विद्यालय की अन्य गतिविधियों में भी बराबर सक्रिय रहा है। उसका नाम है राघव शर्मा।“ प्रधानाचार्य के इस उद्बोधन के बाद पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट के साथ गूँज उठा। राघव को कक्षा 9 में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए पुरस्कृत किया गया। अन्त में जब बेस्ट स्टूडेंट अवार्ड का नम्बर आया, जो उस छात्र को दिया जाता है जिसने विद्यालय में होने वाली विभिन्न साहित्यिक, सांस्कृतिक व खेलकूद से जुड़ी सभी गतिविधियों में सबसे अधिक भाग लिया हो और उनमें श्रेष्ठ स्थान बनाया हो। जब बेस्ट स्टूडेंट अवार्ड के लिए भी राघव का नाम घोषित किया गया तो अर्णव के मम्मी-पापा के तो आश्चर्य का कोई ठिकाना ही नहीं रहा। वो समझ नहीं पा रहे थे कि आख़िर बिना किसी कोंचिग के राघव इतने अच्छे अंक कैसे लाया? सदैव मस्त रहने वाला, टी.वी. और खेलकूद में लगा रहने वाला राघव जिसे उन्होंने कभी भी गंभीर होते हुए नहीं देखा था। उन्हें तो राघव की प्रतिभा का अन्दाज़ा ही नहीं था। राघव को स्टेज पर बुलाया गया। प्रधानाचार्य जी ने उसे बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड प्रदान किया। प्रधानाचार्य जी जो कि बहुत ही मनोवैज्ञानिक सोच के धनी थे, उन्होंने सभी बच्चों को प्रेरित करने के उद्देश्य से राघव को स्टेज पर आकर अपनी सफलता का राज़ सबके बीच सम्मिलित करने का आग्रह किया।

राघव ने बड़ी ही विनम्रता और सहजता से बोलना शुरू किया, “मेरे दादाजी मुझसे अक्सर  कहा करते हैं- “बेटा जो प्रातः जल्दी उठता  है, ईश्वर का आशीर्वाद सबसे पहले उसी को मिलता है। सूर्य प्रतिदिन अपनी किरणों का आलोक सबके लिए बिना किसी पक्षपात के फैलाता है। सुबह की इस अमृत बेला का लाभ हम कितना उठा पाते हैं बस यह हम पर निर्भर है।“  मैंने उन्हें सदैव बहुत सबेरे तारों की छाँव में उठते देखा है। उन्हीं को देखकर मैं भी धीरे-धीरे जल्दी उठने लगा और शायद यही कारण है कि सब लोग यही सोचते हैं कि ये तो कभी पढ़ता ही नहीं है। आख़िर! इसके इतने अच्छे अंक कैसे आ जाते हैं? मैं प्रतिदिन प्रातः चार बजे से आठ बजे तक अपनी पूरी पढ़ाई नियमित रूप से करता हूँ। चाहे गरमी की छुट्टियाँ हों या अन्य दिन, पुस्तकों का साथ मैंने कभी नहीं छोड़ा। हाँ! बस पढ़ने का समय केवल सुबह का ही होता है। विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले पाठों का पूर्व में अवलोकन व दोहरान करता हूँ। इसके अलावा पाठ्यपुस्तकों के किसी विशेष अंश को लेकर समस्या आने पर मैं इन्टरनेट व अन्य सहायक पुस्तकों की मदद लेता हूँ। मैं अपने साथियों से यही कहना चाहता हूँ कि हम पाठ्यपुस्तकों को अपना मित्र बनायें। बने-बनाये नोट्स रटने से हमारे मस्तिष्क पर ज़रूरत से ज़्यादा बोझ पड़ता है। इसलिए अपने नोट्स मैं स्वयं ही बनाता हूँ। रात को सोने से पहले एक बार उन नोट्स को रोज़ाना सरसरी निगाह से देखकर सोना यही मेरा क्रम रहता है। टी.वी. पर प्रसारित होने वाले ज्ञानवर्धक कार्यक्रमों से मैं नियमित रूप जुड़ा हुआ हूँ, जिसमें साईंस, जियोग्राफी, हिस्ट्री, क्विज़ ओर लैंग्वेज से जुड़ी कई नवीनतम जानकारियाँ मिलती रहती हैं। एन.सी.ई.आर.टी. के कार्यक्रमों का प्रसारण भी मैं अक्सर टीवी पर देखता हूँ। मैं अपने माता-पिता को भी धन्यवाद देना चाहूँगा जिन्होंने मुझे कभी भी खेलकूद आदि मेरी अभिरुचियों को करने से रोका नहीं। जिसके कारण मैं सदैव तरोताज़ा महसूस करता हूँ। मेरे अध्यापकों ने मुझे सदैव प्रोत्साहित किया है शायद यही कारण है कि आज आप सबका स्नेह व सम्मान पा सका हूँ। धन्यवाद!”

राघव की इस छोटी व सुन्दर स्पीच के लिए पूरे हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी। इस गूँज में अर्णव के माता-पिता ने भी शायद अपने बेटे की अनकही पीड़ा और व्यथा को समझ लिया था। उन्होंने अर्णव को गले लगाते हुए कहा, “बेटा! आज से हमारे जीवन में भी एक नई सुबह आई है और उस सुबह का स्वागत हम पूरे उत्साह के साथ करना चाहते है। अब तुम्हारे चेहरे पर भी हमेशा मुस्कान होगी। ये हमारा तुमसे वादा  है।“

शायद सुबह की किरणों ने अपनी दस्तक दे दी थी।

2 टिप्पणियाँ

  • 17 Aug, 2019 02:46 PM

    Inspiring to all new generation

  • शानदार, ज्यादातर मातापिता की प्रकृति अर्णव के मातापिता की तरह हो गई है। जिसकी वजह से कई अर्नवों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। बच्चों को उनके स्वाभाविक गुणों के आधार पर प्रेरित करना चाहिए।

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