स्त्रियाँ घर लौटती हैं

15-09-2021

स्त्रियाँ घर लौटती हैं

डॉ. शुभा श्रीवास्तव (अंक: 189, सितम्बर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

पुस्तक: स्त्रियाँ घर लौटती हैं (काव्य संग्रह)
लेखक: विवेक चतुर्वेदी
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
वर्ष: 2020
पृष्ठ संख्या: 108
मूल्य: ₹165.00

स्त्रियाँ घर लौटती हैं कवि की पर कविता पढ़ते हुए हृदय की तान स्वयं ही कविता का स्वर बन कर खेलने लगी और तब आलोचक और सर्जक का भेद मिट गया। विवेक की कविता पढ़ते हुए आलोचक कहीं पीछे हो जाता है और कवितत्व आगे हो जाता है। कवि की इससे बड़ी सफलता है और क्या होगी कि वह पाठक को भी कवि बना दे। कुछ पंक्तियाँ उसी भावेश में लिखी गई हैं —

तुमने मुझे देखा ही नहीं, सुना भी है
तुमने मुझे कहा ही नहीं,  गुना भी है
जिसने मुझे महसूसा है, उसी को मैं प्रेम करती हूँ
उसी छुअन को, उसी स्पर्श को पाने मैं
वापस आती हूँ बार-बार
हाँ लौटती हूँ, हर स्त्री घर लौटती है
सिर्फ उस चाह के लिए
जिसमें मैं हूँ एक सजीव सत्ता

विवेक जी साधारण से असाधारण कविता का सृजन करते हैं। इन कविताओं में सघन स्मृतियाँ हैं चाहे वह पिता कविता हो या रावण कविता हो।

विवेक की नज़रों से सौंदर्य और सामर्थ्य दो जगह पर है – प्रकृति और स्त्री। प्रकृति और स्त्री के अनेक रूप हैं। इन दोनों का विनाश या इन दोनों का नष्ट हो जाना मनुष्यता का नष्ट हो जाना है। इन दो महत्वपूर्ण खंभों पर संसार टिका हुआ है। विवेक इसे बख़ूबी समझते हैं तभी तो वह कहते हैं कि —  

दरअसल एक स्त्री का घर लौटना
महज स्त्री का घर लौटना नहीं है
धरती का अपनी धुरी पर लौटना है

स्त्री की जो सबसे बड़ी ख़ूबी है उसे विवेक जी ने बड़ी बारीक़ी से पकड़ा है। स्त्री अपने अस्तित्व में तो रहती है परंतु अपने अस्तित्व को पुरुष के साँचे में सहज ही ढालती है तभी तो उसके अनेक रूप होते हैं। परंतु वह पूरी निष्ठा से हर रूप को निभाने की कोशिश करती है। विवेक कहते हैं —

स्त्री है
जो प्राय:
स्त्री की तरह
नहीं लौटती
पत्नी, बहन, माँ या बेटी की तरह
लौटती है स्त्री

विवेक कहते हैं पुरुष का घर लौटना लौटना नहीं है। पुरुष लौटते हैं बैठक में फिर गुसलखाने में फिर नींद के कमरे में पर स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है।

हमारे साहित्य जगत में स्त्री के दैवीय और आदर्शात्मक रूप को लम्बे समय तक आसन पर बिठाए रखा है। आज स्त्री को एक मनुष्य मानने की दरकार है। वह वो कठपुतली नहीं है जिसे जो चाहे वो अपने अनुसार गढ़ सके चाहे वह कवि ही क्यों न हो। विवेक ने ऐसी स्त्री को रचा है जो अपने यथार्थ के खुरदुरेपन के साथ कविता में उपस्थित है। विवेक की कविताओं में उभरी स्त्री पूर्णत: मानवीय है जो अपने गुण दोष के साथ बड़ी सहजता से पाठक से आँख मिलाकर बातचीत करती है। कविता में कवि लुप्त है और स्त्री पाठक से स्वयं प्रश्न करती है —

यह जो स्त्री सो रही है तुम्हारे बगल में
तुम्हारे तप्त चुंबन से घुट रही है जिसकी साँस
क्या लाए थे इसे तुम
लाल मुरम की सड़क से
नहीं... तुम लाए थे इसे
धन प्रतिष्ठा पद बल या छल से

मेरी नज़रों में लाल मुरम प्रतीक है स्त्री के उस आकांक्षित स्थल का, उस स्वप्न का जहाँ वह साँस ले सके, जीवन जी सके जिसकी वह अधिकारी है। इन कविताओं के अंदर वायवी, दैवीय, आदर्शात्मक साँचे में बँधी स्त्री की मुक्ति की इच्छा के साथ उसे मानवीय जीवन देने का प्रयास है जिसकी आवश्यकता आज समाज को है। विवेक अपनी प्रगतिशील चेतना से लाल मुरम को इसका पर्याय बनाते है । विवेक की नज़रों में लाल मुरम में 'लाल' केवल मुरम का विशेषण है। ये वाम या प्रगतिशीलता के लिए नहीं है। ये रुमान को ध्वनित करता है पर रुमान भी चिकना और वायवीय नहीं जीवन के खुरदुरेपन के साथ चलने वाला रुमान है जैसे कहीं मीठी नीम है गुलाब के बरक्स, जैसे दर्द के खेत में उगती है।

अपने काव्य संग्रह में विवेक स्त्री सामर्थ्य और वैभव को प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। कविता में पितृसत्ता का तीखा विरोध नहीं है पर यहाँ माँ के उठने से पहले झाड़ू लगाते पिता अवश्य है। इसलिए विवेक की कविताएँ पितृसत्तात्मक ढाँचे से थोड़ी अलग है। यहाँ पर पुरुष दृष्टि तो है परंतु वह पुरुष दृष्टि स्त्री के बेहतरीन समाज और स्त्री की सोच के अनुरूप है।

स्त्रियाँ घर लौटती हैं काव्य संग्रह के शीर्षक को पढ़कर यह महसूस होता है कि संग्रह के केंद्र में स्त्री है परंतु पूरे संग्रह को जब दोबारा पढ़ा तब भावावेश हट गया था। इस संग्रह में किसान और प्रकृति भी उतनी ही केंद्र में हैं जितनी स्त्री है। स्त्री और प्रकृति तो हर कविता में उपस्थित है परंतु किसान भी प्रमुखता से यहाँ आया है। प्रकृति सर्वत्र विवेक की कविताओं विचरती हैं। आज हम रोज़ पर्यावरण का बिगड़ता रूप देखते हैं और पता चलता है कि गंगा के आँसू निरंतर सूख रहे हैं, पेड़ रो रहे हैं पर हम कुछ नहीं कर पाते हैं। यही कुछ करने की चाह और कुछ न करने की चाह विवेक की कविताओं में छटपटाहट के पर्याय में दिखाई देती है। पेड़ की मृत्यु पर,बसंत लौटता है चैत की धूप आदि कविताएँ इसकी सर्जनात्मक अभिव्यक्ति है। अगर हम ध्यान से पढ़ें तो विवेक की हर कविता में प्रकृति कहीं ना कहीं अवश्य उपस्थित है। इस दृष्टि से इन कविताओं में स्त्रियाँ जितनी महत्वपूर्ण और समग्रता से आई हैं उतनी ही प्रकृति भी आई है।
‌केदारनाथ अग्रवाल को किसानी प्रकृति को वरण करने के लिए हिंदी साहित्य ने काफ़ी सराहा था परंतु विवेक ने कवि और किसान दोनों का सम्मिश्रण कर दिया है। कवि और किसान अपने मूल अस्तित्व के साथ होते हुए भी एक दूसरे में गूंथे हुए है। कविता का किसानी बिम्ब विवेक के सब बिम्ब में श्रेष्ठ है। वह कहते हैं कि —

पसीने की कविता है
जो दर्द के खेत में उगती है
वही बड़ी होती है

मनुष्य की आकांक्षाओं महत्वाकांक्षाओं का ख़म्याज़ा पृथ्वी को बहुत उठाना पड़ा है। वर्तमान मशीनीकरण में मनुष्य और पूरी पृथ्वी को पीड़ा ही पीड़ा प्रदान की है। इसिलिए विवेक कहते हैं —

इस दुनिया के लिए जरूरी है
पानी पहाड़ और जंगल
जरूरी है हवा और उसमें नमी
कुनकुनी धूप, बचपन और तारे बहुत सारे
जो केवल आदमीयत की जायदाद के साथ जिंदा है

प्रकृति में ऐसी आत्मीयता और कहाँ मिलेगी जैसी हमें विवेक के यहाँ मिलती है। प्रकृति चित्रण में पंत ने समीकरण को साधा है तो केदारनाथ ने उसका शृंगार किया है। परंतु विवेक ने प्रकृति को आत्मीय बना दिया है। इस संग्रह में प्रकृति और विवेक एकाकार है अपना स्वत्व भूलकर। विवेक की प्रकृति संबंधी कविताओं को पढ़कर के भीतर तक महसूस होता है कि विवेक प्रकृति में अपने को समाहित कर चुके हैं और यही समाहित होना जब पाठक को अनुभूत होता है तो पाठक के मन में कसक होती है और पहला प्रश्न यही कौंधता है कि इस प्रकृति के लिए हमने क्या किया है। जाहिर सी बात है कि कविताएँ अपनी कसौटी में खरी उतरती हैं क्योंकि कवि जो कहना चाहता है पाठक उसे समझ जाए और उस की पीड़ा मन में आ जाए तो कविता की सार्थकता है, कवि की सार्थकता है। । देखो नर्मदा नदी को देखो कविता पढ़ते हुए पंत का नौका विहार अपने आप मस्तिष्क में कौंध जाता है। वहाँ गंगा की उपस्थिति यहाँ नर्मदा के रूप में साकार होती है। नर्मदा वैसी ही पथरीली और वैसी ही तपस्विनी है जैसी गंगा है।

संग्रह की कविताओं में प्रणय भी प्रकृति से सुगंधित होता है। विवेक के शब्दों में प्रेम एक मीठी नीम की तरह है जिसमें एक गंध ऐसी होती है जो अंतस में बस जाती है। यह गंध गुलाब सी नहीं चंदन सी नहीं यह तो मीठी नीम सी होती है। विवेक की प्रेमपरक दृष्टि मुझे इस बिंदु से नवीन और श्रेष्ठकर लगती है कि प्रेम की पूर्णता, प्रेम की निजता सब प्रकृति के माध्यम से अभिव्यक्ति पाते हैं। उनका यह वैशिष्ट्य उन्हें अपने समकालीनों से अलग बनाता है। प्रेम में वह पेड़ हो जाते हैं और पेड़ भी अमरत्व प्राप्त किया हुआ है। अपने प्रेम को गिलहरी की तरह अपने ऊपर फुदकने देने का आनंद सिर्फ़ प्रेमी ही जान सकता है और इसकी कल्पना पाठक को रोमांचित कर जाती है कि यह वास्तविक प्रेम हमें मिला होता तभी प्रेम प्रेम है, नहीं तो व्यापार है —

सपने में देखा रात
बिही का पेड़ हुआ मैं
और तू गिलहरी
भागते फुरफुर मेरी देह पर
तू रेंग गयी

विवेक के लिए कविता परिवार है इस परिधि से भी आगे कविता समाज है। जहाँ झूठ भ्रष्टाचार के कारण कविता शहर नहीं आना चाहती है। कविता को मनुष्य रूप में और उसके शहर न आने के कारण को किसानी प्रकृति और शहरीकरण के यथार्थ से जोड़ते चलते चले जाते हैं। ऐसी अद्भुत कल्पना के सूत्र बाँधते हैं कि पाठक को लगता है कि यह कविता की बात नहीं बल्कि जीते जाते मनुष्य की बात कर रहे हैं। वास्तव में कविता वही होती है जहाँ मनुष्य है। मनुष्य में कविता जीती है, संवेदना जीती है। विवेक ने एक मीठा संदेश दिया है जिससे व्यक्ति अपने आपको ज़रूर मिलेगा कि वह क्या है।

हम किसी बग़ीचे में बैठे हैं और एक वृद्ध दिख जाए उस के संदर्भ में हमें कुछ नहीं पता है। उसकी उदासी का कोई स्रोत यह प्रसंग ज्ञात नहीं हैं। फिर भी उसका चेहरा और उसकी वेदना अनकहे पलों में जैसे हृदय तक पहुँच जाती है वैसे ही इस संग्रह में कुछ चेहरे हैं जो बिना किसी प्रसंग संदर्भ के भी बातें करते हैं। वह बातें पाठक के हृदय में सीधे प्रवेश करते हैं। बिना प्रसंग के विवेक ऐसे चेहरे गढ़ने में माहिर हैं। अर्थ की अंधी दौड़ में किसे फ़ुर्सत है कि इन बूढ़ी उदास आँखों के आँसू को देखे। बाबा प्रतीक हैं हमारे घर के उस मुखिया का जो समय के सरकते जाने पर अपनी इच्छा, विचार, कुर्सी को अनायास स्थानांतरित होते देखते हैं और यही बाबा अनायास ही जुड़ जाते हैं बग़ीचे में विचरण करते उस वृद्ध से जिस के अनकहे पल को पाठक हृदय में सीधे रखता है। विवेक कहते हैं —

थके चेहरे और सूनी आँखों से
चुपचाप आते रहे
हमारे जीवन की गति
खुद ही सहलाते रहें
अपने पैरों की थकान

बाबा की यह थकान कहीं न कहीं हमारे जीवन का सत्य है। कहीं ना कहीं इस सत्य से हम भी कभी रूबरू होंगे। पूरी कविता की व्याख्या करते हुए हम इस पीड़ा, इस अनुभव को महसूस कर सकते हैं। परंतु विवेक ने अपनी कविता को सिर्फ 4 पंक्तियों में कह कर के छोड़ दिया और पाठक को विचलित होने दिया। उसके मस्तिष्क को पूरा खुला छोड़ दिया कि वह इस उद्यान में विचरण करें उस वृद्ध की पीड़ा को समझे, अपनी मानवता को जीवित रखे और यह सोचने पर विवश किया कि मशीनीकरण की दुनिया ने हमें क्या दिया है।

विवेक की भाषा की अपनी टोन है जो भावानुकूलता से उत्पन्न होती है। अंतस की सहायता से प्रवाहित यह भाषा पाठक को कहीं दूर की नहीं बल्कि ख़ुद के भीतर के शब्दों की गूँज के रूप में सुनाई देती है। विवेक शब्द परिवर्तन के आकांक्षी ज़रा भी नहीं है, इसीलिए अवधि बुंदेली या देशज शब्दों को उन्होंने ज्यों का त्यों लिया है जो कविता की सहजता का तो निर्माण करता ही है साथ ही पाठक को यह भी संदेश देता है कि यह कहीं भी बौद्धिकता से आप्लावित नहीं है, बल्कि हमारी तरह एक सामान्य सहज मनुष्य है जिसकी भाषा उसकी दैनिक जीवन की दिनचर्या से उत्पन्न हुई है। कुछ मीठे शब्द देखिए —

तिसना के गदराये फल को
तूने जुठारा तक नहीं 

और भी शब्दों का गुम्फन समेटे जो अपने देशज ठाठ में शोभायमान है—मिजराब, ढ़नक , टुडुप , झर,अलगनी कोंच, आदि।

तेरे बिराग में कविता के माध्यम से विवेक लोक जीवन में विचरण करते हैं और साथ ही पाठक को इन गलियारों से परिचित भी कराते हैं। इस तरह के अनेक उदाहरण विवेक की कविताओं में मिलेंगे। यहाँ पेड़ की मृत्यु कविता में पीपल के पेड़ के समक्ष दिया जलाते हुए पिता हैं और अपने एक साधारण से जीवन में रचती बसती एक माँ है। एक ऐसी स्त्री भी है जो अपने अस्तित्व के लिए बार-बार वापस लौटना चाहती है।

काव्य प्रयोगों में मिथक से वर्तमान जोड़ने की परंपरा लंबे समय से चलती चली आ रही है। विवेक जी ने चुना है रावण। विवेक ने रावण के माध्यम से स्त्री का यथार्थ बड़ी ख़ूबसूरती से चित्रित किया है। रावण का जो मिथक नकारात्मक है, उसको वह खंडित करते हैं। वह कहते हैं —

रावण ... जो छल से चुरा लाया है
एक स्त्री के दिन... पर रातें नहीं
पर क्या रावण
हमसे अधिक नहीं जानता
स्त्री देह का राग?

आगे वह कहते हैं —

इन शताब्दियों में
रावण पहली बार मेरे साथ बैठा
तब उसके कंधे पर रख हाथ
जानी मैंने स्त्री संवेदना

स्त्री के शरीर पर बलात अधिकार करने वाले पुरुष क्या रावण के माध्यम से कहे गए एक पुरुष के इस दृष्टिकोण को कभी देखने का प्रयास करेंगे?’ विवेक जानते है स्त्री को, एक स्त्री को एक पुरुष इससे बेहतर और क्या महसूस करेगा। सीता के माध्यम से विवेक हर पुरुष से प्रश्न करते हैं जो आज स्त्री अस्मिता का ज्वलंत सत्य है।

भाषा, प्रतीक और अर्थ सम्प्रेषण की दृष्टि से मेरी प्रिय कविता है पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू औरतें। विवेक कहते हैं —

मेज और सोच से गिराई गई
गिर कर भी बची रह गई उनकी नोक
पर भीतर भरोसे का सीसा टूट गया
वे छिलती रहीं बार बार
.............................
चोटिल आत्मा लिए
अपनी देह से प्रेम लिखती रहीं
पर चूड़ीदार धड़कनों में बंद रहे पुरुष
उनकी तरलता स्याही की तरह
बस सूखे कागजों में दर्ज हुई
पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियाँ

प्रतीक और बिम्ब का ऐसा अद्भुत गुम्फन मैंने आज तक नहीं पढ़ा है।पेंसिल और स्त्री का उपमान यह बताता है कि विवेक दैनिक जीवन में भी स्त्री को देखते परखते ही नहीं है बल्कि उसे अपने अन्तस में समाहित किये हुए हैं।
कहने को तो बहुत बातें है पर विवेक जिस संसार को रचते हैं उस चंद पंक्तियों में कहना मुश्किल है। विवेक की विवेकशील दृष्टि अभी दूर तलक जाएगी क्योंकि पहले ही संग्रह की कविताओं का दस भारतीय भाषाओं में, दो विदेशी भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है।

स्त्रियाँ घर लौटती है संग्रह संबंधों की रिक्तता और तिक्तता से भरी स्त्री की रोज़मर्रा का जीवन भी है पर कवि की दृष्टि में वह महत्वपूर्ण है। यहाँ स्त्री के मौन को टोहने और बचाने की गुहार अभिव्यक्ति की शैली के नये लीक का निर्माण करता है। यहाँ स्त्री के लिए पारलौकिकता का आलंबन नहीं, मिथक का दर्पण नहीं यथार्थ का सत्य और सिर्फ़ सत्य है। पर इस यथार्थ की अभिव्यक्ति भीतर तक महसूस होती है। विवेक के शब्दों में ही समापन करते हुए यह कहना चाहूँगी कि जब तक आप है तब तक स्त्रियाँ लौटती रहेंगी काव्य के लाल मुरम की पगडंडियों से —

अनुभूति के 
भग्न होते दुर्ग तक पहुँचूँगा 
भाषा की सीढ़ियों से 
और पुकारूँगा...
लाल मुरम के रास्ते दूर जाती 
कविता के भीतर की जाती स्त्री को

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