जब जन्म हुआ नन्ही सी,
कली बनकर आई घर में।
सब रस्मों से अनजान,
पावनता सी छाई घर में।
धीरे-धीरे नन्ही सी कली ने,
फूलों का जब रूप लिया।
कुछ कलुषित भ्रमरों ने,
उसका सुख-चैन छीन लिया।
कलुषित कर डाला जीवन को,
वह बिखर गई यूँ इधर उधर।
किया स्वाभिमान को तार-तार,
वेदना सोच-सोच मन गया सिहर।
गर करते नहीं प्रहार तो फिर,
वह बगिया को यूँ महकाती।
अपनी पावन ख़ुशबू से जीवन,
में ख़ुशबू सी भर जाती।
लेकिन अपने दुष्कर्मों से,
तूने उस बगिया को रौंद दिया।
जो कली फूल बन महकी थी,
उसकी पावनता को भंग किया।
कल तक जिसने डाली पर खिल,
सुंदर अरमान सजाए थे।
अब उसका ना अस्तित्व रहा,
वह बिखर ज़मीं पर छाए थे।
क्या मिला तुझे ओ नीच क्रूर,
क्यों जीवन को यूँ रौंद दिया?
क्या जीने का अधिकार नहीं,
क्यों जीवन उसका छीन लिया?
क्या यहीं विवेकानंद हुए,
जिनके चरित्र का मोल नहीं।
क्या यह धरती है गौतम की,
उनके जैसा कोई और नहीं।
तुमसे अच्छा तो रावण था,
जिसने सीता का मान किया।
पर तू तो नीच नराधम है,
जो ऐसा कलुषित काम किया।
गर ऐसी चढ़ती रहीं बेटियाँ,
बलिवेदी पर भारत में।
तो कैसे महकेंगी ख़ुशबू बन,
भारत की फुलवारी में।
है "रीत" कहे स्त्री के जीवन,
का समझोगे मोल नहीं।
तो सृजन सृष्टि होगी बाधित,
स्त्री से कुछ अनमोल नहीं।