सोशल मीडिया और रचना का क्रियाकरम

15-04-2021

सोशल मीडिया और रचना का क्रियाकरम

संजीव शुक्ल (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

फ़ेसबुक पर कविता अब संक्रामक महामारी का रूप लेती जा रही है। यहाँ बहुतों ने बहुतों को कविता में कविता के लिए उकसाया है और बहुतों द्वारा बहुत कुछ लिखा भी जा रहा है। जो देखो वही चपेट में आ रहा है। संक्रमित व्यक्ति पूरी मुस्कान के साथ ख़ुद ही फ़ेसबुक पर कविता लिखकर या फ़ेसबुक पर लाइव आकर इसकी चपेट में आने की सूचना दे रहा है। बड़ी मारामारी मची है। लोग लिखेंगे ही क्योंकि वे फ़ेसबुक पर हैं। हर आदमी हाथ आज़मा रहा है। पर यह संक्रमण सुखद है। सुखद इस मायने में है कि शैक्षिक गुणवत्ता के सूचकांक के लगातार नीचे लुढ़कने और नई पीढ़ी के पढ़ने-लिखने से कोसों दूर होने के तमाम आरोपों के बावजूद हमारी साहित्यिक रचनाधर्मिता सोशल मीडिया के ज़रिये आकाशीय ऊँचाईयाँ छू रही है। फ़ेसबुक और व्हाट्सएप पर लेखन क्षेत्र में ज़बरदस्त प्रतियोगिता है। भले ही हम एक-दूसरे का लिखा न पढ़ें, पर लिखते ख़ूब हैं। एक-दूसरे की तारीफ़ झोंककर एकदूसरे को सकारात्मक रूप से प्रेरित भी करते रहते हैं। ऐसी स्वस्थ भावना और कहाँ मिलेगी! स्वान्तः सुखाय की आड़ में अब तक इतना लिखा जा चुका है, कि उसका मूल्यांकन तो ख़ैर छोड़ ही दीजिए, बल्कि सच कहूँ तो आने वाली पीढ़ियाँ इस साहित्यिक अवदान के ऋण से कभी उबर नहीं पाएँगी। 

ख़ुशी इतनी कि दिल में न समाए और हमें ख़ुशी है कि कुछ लिखा तो जा रहा है। सोचता हूँ अगर फ़ेसबुक न होता तो साहित्य की कितनी क्षति होती! फ़ेसबुक न होता तो, तो क्या होता, तो क्या होता?

तुकबंदियों की सीढ़ी से साहित्य के शैल शिखर पर झंडे गाड़े जा रहे हैं। तुकबंदित्व ने कविता को नया आयाम दिया है। इसने कविता को जन-जन तक पहुँचाया है। इस संदर्भ में हमारे राष्ट्रीय कवि और प्रखर राजनीतिक चिंतक अठावळे ने अपनी आशु कविता से सभी का दिल जीत लिया। नमूने के तौर पर उनकी ये पंक्तियाँ देखें और फिर उसका रस-लालित्य देखें— "एक देश है रोम, हमारे अध्यक्ष हैं बिड़ला ओम"।

अभी तक दोहा, सोरठा व छंद आदिक कठिन व्याकरण ने पता नहीं कितनों की रचनाधर्मिता की भ्रूणहत्या की होगी! लेकिन अठावळे की कविता और फ़ेसबुक के मंच ने इस क्षेत्र में नई सम्भावनाएँ जगा दीं हैं। अब हर आदमी ख़ुद में कवि होने की संभावनाएँ तलाशने लगा है। पहले कवि बनने के लिए प्रेम में ग़ाफ़िल होना अर्थात्‌ 'कुछ-कुछ होता है' होना ज़रूरी हुआ करता था या कम से कम आपके अंदर तो दूसरों के लिए दर्द होना ज़रूरी ही था, जैसे कि वाल्मीकि जी को क्रौंच पक्षी को देखकर के हुआ था। पर अब यह सब आउटडेटेड है। अब कवि ख़ुद सामर्थ्यवान है, उसकी कविता किसी भाव-उद्दीपन की मोहताज नहीं। अब वह ख़ुद ही अपनी कविता से दूसरों को दर्द देता है।

हाँ तो फ़ेसबुक और अठावळे जैसों ने छंद मुक्त कविता के ज़रिये एकबारगी सबको "मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य" के सत्यापित सत्य से परिचय कराकर गर्वित होना सिखा दिया। अब कवि होना मुख्य टारगेट है, मानव होना आपकी च्वाइस।

सो नए लौंडे-लपाड़े कविता के क्षेत्र में दुःसाहस की हद तक आशावादी हो गए हैं। 'मसि कागद छुओ नहिं, कलम गह्यो नहि हाथ' की परंपरा की पूरी की पूरी फ़ौज रचना कर्म हेतु मैदान में उतर गई।

एक-आध लाइनों के साथ हम भी कूदे थे मैदान में, पर अच्छा रिस्पॉन्स न मिलने से (उल्टे टी.आर.पी.और डाउन हुई) किसी की तरह झोला उठाकर चल दिये। हम तो साहित्यकार वाली स्टाइल में उठने-बैठने भी लगे थे। कहने का मतलब हँसना-बोलना बहुत कम कर दिया था। गम्भीर बन गया था। बोलने के नाम पर सिर्फ़ हमारी चुप्पी बोलती थी। पठन-पाठन में ख़ुद की अरुचि के बावजूद साहित्य में पठनीयता के संकट से अहर्निश चिंतित रहने लगा। गम्भीरता इस क़दर चेहरे पर पसरी कि साहित्यिक समारोहों की जगह मर्सिया पढ़ने के बुलावे आने लगे। साहित्यकार दिखने के लिए बाक़ायदा एक पेन और डायरी भी ले ली थी। मगर सब बेकार। पेन-डायरी के पैसे डूबे सो अलग। लेकिन हम जानते हैं कि हमारी कविता में कोई कमी नहीं रही होगी, बस फ़ेसबुक और ग्रुप्स के स्थापित आचरण में ही कहीं गड़बड़ी रही होगी।

पर एक हम असफल हुए तो क्या हुआ, कविता तो असफल नहीं हुई!! आज के फ़ेसबुकिया कवि जुगनुओं की तरह चमकते हुए तारे की राह चल सूरज-चंदा बनने की हसरत रखते हैं।

एक हम ही नहीं है जहां में और भी तमाम हैं . . .  रचनाधर्मिता से ग्रस्त लोगों की हनक इतनी कि कविता में जहाँ से चाहें वहीं से पंक्ति मोड़ देते हैं। अब समझइय्या की मौत है!! ढूँढ़ते रहिये कविता का मर्म आप!! लिखने वाले ने लिख दी ब्रह्माक्षरी, अब समझते रहिये उम्र भर। लेकिन यह कोई ख़राब बात नहीं। असल में यही तो कविता और लेखन की ख़ूबसूरती है कि वह लोगों के समझ में न आए। कविता और लेखन वही उच्चकोटि का जो सर के ऊपर से निकले।

पर एक कमी खलती है अपनी जमात में। भाई लोग अभी भी आत्मनिर्भर नहीं है पूरी तरह से। वह मंच से ही पब्लिक से मदद की गुहार लगाने लगते हैं।

कुछ शायर लोग जब मंच पर पब्लिक से यह कहते हुए पाए जाते हैं कि अब अगला मिसरा आप उठा लेना, आप सँभाल लेना, तब समझ में नहीं आता ये भाई लोग करने क्या आते हैं यहाँ?? क्यों भाई आप से क्यों नहीं उठाया जा रहा, आपसे क्यों नहीं सँभल रहा? अरे भाई ऐसा मिसरा आप लोग लिखते ही क्यों हैं, जिसको ख़ुद नहीं सँभाल सकते?? ऐसा मिसरा लिखने से क्या फ़ायदा जिसको सँभालने के लिए मिश्राजी, शुक्लाजी, ठाकुर साहब या खान साहब से गुहार लगानी पड़े . . . भई अब तो आत्मनिर्भर बनिये!!! मेरी नहीं तो कम से कम देश की आवाज़ को सुनिए; देश की नहीं तो कम से कम किसी के मन की बात सुनिये, पर आत्मनिर्भर बनिये।

और हाँ, इससे इतर सोशल मीडिया पर एक ऐसा वर्ग भी है जो कविता की भीड़ में ख़ुद के खो जाने से डरता है। यह वर्ग कविता तो नहीं लेकिन कविता की व्याख्या में ज़रूर नाम कमा रहा है। ऐसे लोग जो भीड़ की धक्का-मुक्की से डरते हैं, वह कविता की भीड़ से इतर व्याख्या में कुछ नया करने की कोशिश कर रहें हैं। इसकी तारीफ़ की जानी चाहिए।

एक बहुश्रुत दोहे की व्याख्या कुछ इस टाइप में आई–

ग़ौर फ़रमाइये।

दोहा है—

"ऐसे बानी बोलिये मन का आपा खोय,
औरन को शीतल करै आपहु शीतल होय"

अर्थात्‌ —

'भाईसाब के अनुसार ऐसी बोली बोलिये कि सामने वाला अपना आपा खो दे; वह आपे से बाहर आ जाय। ऐसी बोली जो दूसरे की चढ़ी गर्मी को उतार दे और इसके बाद ख़ुद की छाती में भभक रही आग को भी तुरंत ठंडक दे।'

निश्चित ही यह क्रांतिधर्मी व्याख्या सोशल मीडिया के प्लेटफ़ॉर्म के ज़रिये ही प्रकाश में आ सकी है। अतः सोशल मीडिया का एहसान मानते हुए आप भी इस अद्भुत व्याख्या की दाद दीजिए . . .

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