जरा सोचूँ
सोचूँ बावजूद डर के
सोचूँ बावजूद डरे हुओं के

सोचूँ 
डर सिपाही में है या हमारी चोरी में
डर मृत्यु में है या जीने की लालसा में
डर डरा रहे राक्षस में है या खुद हममें

सोचूँ
मरता वह है
डर हमें लगता है
गुनाह वह करता है
काँपते हम हैं

सोचूँ
छूट गया डरना
तो क्या होगा डर का

सोचूँ
बारिश में भीगने का डर
क्यों भागता है बारिश में भीगकर

सोचूँ
क्या होता है हव्वा
जिसे न बच्चा जानता है, न हम।

सोचूँ
हम रचते ही क्यों हैं हव्वा?

सोचूँ
एक कहानी है भस्मांकुर
या विजय डर पर।

अच्छा, इतना तो सोच ही लूँ
कि जब पिट्टी कर देते हैं हव्वा की
तो क्यों भाग जाता है
सचमुच
बच्चे की आँखों से हव्वा।
बच्चा बजाता है तालियाँ।

आओ, कभी कभार बिने सोचे
मात्र भगाने की बजाय
कर दें हत्या हव्वा की
क्या हम नहीं चाहते
कि बजाता रहे तालियाँ बच्चा
लगातार...... लगातार.........

सोचूँ
लेकिन !

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
स्मृति लेख
पुस्तक समीक्षा
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कविता
सांस्कृतिक कथा
हास्य-व्यंग्य कविता
बाल साहित्य कहानी
बात-चीत
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में