सिसकती धारायें

06-01-2015

सिसकती धारायें

गीताञ्जलि गीत

मानव –

इन हरी भरी वादियों के दर्शन से मन आनन्दित हो उठा है। बयार के शीतल झोंके जीवन को संजीवनी प्रदान कर रहे है। ऊपर मुक्त गगन में इन पंछियों का झुण्ड एक निश्चित वेग से निश्चित दिशा में अपने विचरण की मस्ती में चूर है। आश्चर्य! आकाश में मार्ग का कोई संकेत नहीं फिर भी सैकड़ों की तादाद में उड़ते ये पंछी एक दूसरे ज़रा नहीं टकराते, गज़ब का अनुशासन है इनमें! काश हम इन्सानों में आपस में इतनी समझ होती तो ये संसार व्यर्थ प्रपंचों से क्यों घिरा होता। इन पंछियों का मधुरतम कलरव सुन लगता है इनकी चहचहाहट एक रसता में घुलकर किसी कर्णप्रिय राग की उत्पत्ति कर रही है।

(तभी स्त्री के विलाप का स्वर उभरता है।)

इस मनोहारी दृश्य के बीच अचानक से क्रन्दन कैसा? . . . . कौन है ये दुखियारी जरा देखूँ तो सही! . . . . पर यहाँ तो कोई नज़र नहीं आ रहा है!

स्त्री स्वर –    

मानव ज़रा ध्यान से देखो . . .  मैं यही हूँ तुम्हारे पास . . . . बिल्कुल पास . . .  हाँ मैं तुम्हारे बगल से होकर गुज़र रही हूँ . . . पहचानों मुझे . . . 
मानव –    

तुम . . .  देवी गंगा . . .  प्रणाम माते! तुम मानव प्राणियों को ही नहीं बल्कि इस समूचे प्रकृति को जीवन देती हो। निश्छल, निष्पाप, अविराम सतत प्रवाह में हिलोरें लेती तुम्हारी निर्मलता के आगे ये शीष झुका है और सदा झुका रहेगा देवी गंगा  . . . पर दूसरों का कल्याण करने वाली इस देवी का मन इतना आहत क्यों है?

गंगा –

मानव तुम भी मेरे सामने दूसरों की तरह हाथ जोड़कर नतमस्तक हो गये  . . . नहीं . . .  मुझे नहीं चाहिये ये सम्मान। कभी उमंग से उछलती, खुशी से कलकल करती मेरी ये धारायें अब सिसक रही हैं विलापमग्न हैं . . .  मानव ध्यान से सुनो मुझमें विलीन इन तरंगों में तुम्हें पीड़ा सुनाई देगी . . .  जानते हो मेरे गर्भ की गहराइयों में ये अघुलनशील पूजा सामग्री, सैंकड़ों करोड़ों सिक्के जब करवट लेते हैं तो मुझे ये शूल से चुभते हैं। लगता है कोई नुकीले तीरों से मुझे बेंध रहा है, इस मलिनता से मेरी काया पल प्रतिपल और छलनी होते जा रही है। अपनी काया से रिसते इस वेदना के अदृश्य रक्त से मेरा जल लहुलुहान हो रहा है। मानव ये वेदना . . .  ये चुभन अब मेरे लिये असहनीय है। अब और सहा नहीं जाता . . . .

(गंगा के सिसकने का स्वर ऊँचा)

मानव –

क्या! हमारी इस तुच्छ भेंट से इतनी पीड़ा। ये हमने कभी सोचा ही नहीं। मैं ही नहीं अनेकों तुम्हारी इस वेगमयी उफनती जल धाराओं में सिक्के या पूजन सामग्री प्रवाहित कर स्वयं को ईश्वर का परम भक्त समझते हैं सच अनजाने में हम तुम्हारे साथ ही नहीं, बल्कि तुम्हारे जैसी अनेकों नदियों के साथ अन्याय कर रहे हैं। (नदी गंगा के सिसकने का स्वर ऊँचा हो जाता है)। नहीं देवी गंगा . . .  माते इस तरह न सिसको। तुम्हारी पीड़ा सुन मेरा मन भारी हो रहा है।

गंगा –

मानव मेरी पीड़ा सुन तुम गम्भीर हो गये . . .  तुमने कैसे सोच लिया तुम्हारी इस तुच्छ भेंट से मैं या वो सृष्टिकर्ता खुश हो जायेगा? नहीं . . .  कभी नहीं . . . .. हम तो दूसरों को जीवन की भेंट देते हैं उन्हे पोषित करते है धरती माँ अपनी गोद में तुम्हें दुलारती है, संस्कारित करती है, मैं तुम्हें ऊर्जावान बनाती हूँ, हम तो स्वयं दाता हैं दान करते हैं तो तुम्हारी ये तुच्छ भेंट कैसे स्वीकार कर सकते हैं?
मानव –

माते बिल्कुल सच कहा जो स्वयं दाता है उन्हे हम भेंट कैसे दे सकते हैं . . .  क्षमा करो देवी हमसे भूल हो गयी।

गंगा –

भूल . . .  ये कैसी भूल है मानव जिसमें मेरा वर्तमान और भविष्य नष्ट हो रहा है इस पृथ्वी लोक के वासी तुम्हेंं कैसे समझाऊँ . . .  जो मूर्तियाँ तुम मेरी जल धाराओं में विसर्जित कर रहे हो उनसे निकलने वाले लेड आक्साइड, मर्करी और भी अन्य विषैले रसायनों से मेरा ये जल दूषित ही नहीं हो रहा है बल्कि विषैला भी हो रहा है। देखो न मेरी इन चपल धाराओं में अठखेलियाँ करते ये जल जीव आज कितने सहमे से हैं शायद ये अपने अस्तित्व के प्रश्नचिन्ह से आतंकित हैं।

मानव –

हाँ माते अब मैं सब कुछ समझ गया . . . .. केवल मूर्तियाँ ही नहीं बल्कि कल कारखानों से निकलने वाले विषैले जल, तत्व हम मानव के असंतुलित क्रिया कलाप, हमारा स्वार्थ तुम्हारी पीड़ा का कारण है, तुमने हमे जीवन दिया और हमने अपने जीवन दाता को क्या दिया कुछ भी तो नहीं।

गंगा –

हाँ, तुमने अपने जीवन दाता को चोट पहुँचाई और चोट इतनी गहरी !  . . . ... फिर भी मैं तुम्हें अब तक क्षमा करते आई हूँ क्योंकि तुम सब मेरे अपने बच्चे हो, माँ स्वयं पीड़ा सहन कर लेती है पर अपने बच्चों पर कभी आंच नहीं आने देती . . .  . . .  पर मानव, आक्रोश में डूबी अपनी इन उद्वेलित धाराओं को मैं कब तक समझा पाऊँगी, कब तक रोक पाऊँगी . . . . इन क्रोधित धाराओं ने जिस दिन अपना विकराल रूप धारण कर लिया उस दिन ये केवल विनाश की परिभाषा लिखेगी . . . बोलो क्या चाहिये तुम्हें जीवन या मरण?

मानव –

नहीं . . . माँ गंगा तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी। अब हमें भूल का आभास है माते तुम हो तो हम हैं, तुम नहीं तो हम भी नहीं . . . .. अगर हमें खुद का अस्तित्व सहेजकर रखना है तो पहले तुम्हारी व अन्य नदियों की निर्मलता पर कभी आंच नहीं आने देना है। माँ हम वादा करते है अब मुर्तियाँ तुम्हारी जल धाराओं में विसर्जित न करके किसी एक स्थान पर उन पर पानी डालकर विसर्जित करेंगे . . .  . . .  कोशिश करेंगे कोई भी दूषित तरल या ठोस पदार्थों का अवशिष्ट किसी भी रास्ते से होकर तुम तक न पहुँचे . . .  तुम्हारे तट को हम साफ सुथरा रखेंगे आकर्षक बनायेंगे, और वो सिक्के जिनसे तुम छलनी हो रही हो उन्हे हम कभी भूलकर भी तुम्हारी धाराओं में प्रवाहित नहीं करेंगे।

गंगा –

मुझे उम्मीद थी कोई तो भूला भटका होगा जो मेरी सुध लेगा, तमाम नदियों की पीड़ा समझेगा, जल स्रोतों के महत्व पर गहन चिंतन करेगा, और तुम इस लायक हो। सुनो . . .  जब एक से मिलते हैं दो तो प्रज्ज्वलित होती है जागरुकता की मशाल . . . .. मानव तुम वादा करो चेतना की ये मशाल जो तुम्हारे मन में इस वक्त प्रज्ज्वलित हो रही है उसे तुम कभी बुझने नहीं दोगे।

मानव –

हाँ माते, मैं वादा करता हूँ कि तेरे अर्न्तमन में समाई इस पीड़ा का मैं समाधान करूँगा और जागरुकता की ये मशाल मैं अकेले नहीं बल्कि सब के साथ मिलकर प्रज्ज्वलित करूँगा और ये संकल्प लूँगा—

तुमने किये जो पाप उन्हें, गंगा को नहीं ढोने देंगे
वादा करते है माँ, तुझे, अब मैली नहीं होने देंगे।

और सबको संकल्प ये दिलवाऊँगा –

समूह स्वर –    

तुमने किये जो पाप उन्हें, गंगा को नहीं ढोने देंगे
वादा करते है माँ, तुझे, अब मैली नहीं होने देंगे।

1 टिप्पणियाँ

  • 7 Sep, 2021 07:01 PM

    सराहनीय प्रायास गीत जी। बहुत सुंदर और प्रेरक संवाद। बाधाई।

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