सिमटा हुआ आदमी
विजयानंद विजयअपने ही खोल में
सिमटा हुआ आदमी,
डरा, सहमा - सा!
सिर बाहर निकाल
झाँकता है -
इर्द-गिर्द!
कहीं कोई तो नहीं,
जो पूछे -
उसका नाम!
कुरेदे -
उसकी पहचान!
परखे -
उसकी सोच!
और
चिंतनधारा!
और -
लगा दे इल्ज़ाम,
नाफ़रमान होने का!
फिर -
बंद कर दी जाए
उसकी ज़ुबान !
कुंद कर दी जाए -
क़लम!
मिटा दी जाए
काग़ज़ के पन्नों पर
लिखी
हर इबारत !
और -
क़ैद कर दी जाए
रचनाशीलता -
विचारधारा के
संकीर्ण दायरे में!
चीखती है -
क़लम!
कराहती हैं -
भावनाएँ!
शब्दों में लिपटी -
संवेदनाएँ!
सोचता है आदमी -
कितना सुरक्षित है वह,
अपने ही खोल में?
आख़िर -
कब तक
उसकी रक्षा करेगी
खोल की -
मज़बूत ढाल?
या कि -
चकनाचूर कर दी जाएगी,
उसकी खोल -
थोपे गये विचारवाद के
टनों वज़नी
हथौड़ों से -
उसका वज़ूद मिटाने के लिए!!