शुभ महूरत 

पुष्पराज चसवाल

आज फिर बच्चों ने 'दादा जी' को घेर लिया था। उन्होंने दायें, बायें और सामने से यानी तीनों ओर से उनका घेराव कर मस्ती में जैसे उन्हें चेतावनी देते हुए पंचम स्वर में आगाह किया "दादा जी, आज आप कई दिन के बाद हमारी पकड़ में आए हैं, हम आपको आसानी से छोड़ने वाले नहीं, अब आपको नई कहानी सुनानी पड़ेगी।" इसी बीच सबसे छोटी वय के पिन्टू ने तोतली बोली में सब को ख़ुश करते हुए कहा "फिल हम आपको आदाद कल देंदें।" इस पर तो फिर दादा जी भी खूब हँसे और बोले "छोटे बदमाश! कहानी सुन कर आज़ाद करोगे, अरे! तू तो बड़ा चालक होता जा रहा है।"

सब बच्चों ने एक स्वर में फिर से दोहराया "बहाने बनाने से हम आपको आज़ाद करने वाले नहीं, कहानी तो सुनानी ही पड़ेगी, इसका वचन पिछली बार आपने ही हमें दिया था।"

अब दादा जी को भी याद आ चुका था कि सच में बच्चों का पलड़ा भारी था, अगली बार एक और नई कहानी सुनाने का आश्वासन तो उन्होंने ही दिया था। दादा जी ने कहानी सुनानी शुरू की:

"प्यारे बच्चो! बहुत पहले की बात है, जब मैं कॉलेज में पढ़ता था मेरा एक सहपाठी था, शायद उसका नाम रणजीत था। पढ़ाई में वह मध्यम दर्जे का छात्र था, पर खेलकूद में किसी दूसरे को आगे नहीं निकलने देता था। खेल प्रतियोगिताओं की तैयारियाँ चल रहीं थीं, पिछले साल भी वह खेलों में हमारे कॉलेज का श्रेष्ठ एथलीट चुना गया था। हमारी चार-पाँच विद्यार्थियों की युवा छात्र-मण्डली सारे कॉलेज में मशहूर थी। फिर मैं तो कॉलेज की विद्यार्थी परिषद का सचिव भी था और पढ़ाई में भी हर वर्ष मैरिट छात्रवृत्ति लेकर अव्वल रहता था। एक दिन हमारी इस मित्र-मण्डली ने आनन-फानन में पिक्चर देखने का मन बना लिया। शहर में इरोज़ सिनेमा-हाल नया-नया खुला था और पिक्चर वहाँ चल रही थी। शायद... नाम याद करने की कोशिश करता हूँ,... हाँ याद आ गया, उस मूवी का नाम था 'बीस साल बाद'। अपने ज़माने की बेहद लोकप्रिय मूवी रही थी। सिनेमा हॉल के दर्शकों से खचाखच भरे होने के कारण लम्बी अवधि तक वो पिक्चर लोगों का आकर्षण बनी रही। वास्तव में वो एक बेहतरीन रहस्यपूर्ण मूवी थी।

हमने दोपहर बाद तीन से छ:बजे का शो देखा और मौज-मस्ती करते हुए अब शाम के साढ़े छ: बज गए थे। कॉलेज में पढ़ाई तीन बजे तक हुआ करती थी और उस समय छ: बज कर तीस मिनट ऊपर हो रहे थे। यानी संध्या-समय हो रहा था और हम किसी के घर भी देर से आने की सूचना नहीं दे सके थे। दरअसल बच्चो, उन दिनों आजकल की तरह घर-घर में सैल फ़ोन, ई-मेल आदि संचार के साधन नहीं हुआ करते थे। विलम्ब से आने की सूचना मुहल्ले या गाँव के किसी सहपाठी, मित्र अथवा परिचित द्वारा पहुँचाई जाती थी। इसलिए अब सभी घर पहुँचने की जल्दी में थे कि तभी चौधरी साहब का बेटा रणजीत घबराहट-भरे स्वर में बोल उठा, "भाई लोगो, मेरी माँ तो आज बहुत नाराज़ होवेगी।" 

सबने एक स्वर में पूछा, "क्यों, क्या ख़ास बात हो गई है? तन्ने के ज़िन्दग़ी में पहली बार पिक्चर देखी सै!"

रणजीत ने कहा, "नहीं भाई, ये बात नहीं है, मेरी चिन्ता का कारण बिल्कुल अलग है। मेरी माँ ने ख़ासकर कहा था कि कल सुबह का 'मिसर' जी से ट्यूबवैल लगवाने का शुभ मुहूर्त पूछ कर आना, जो पिक्चर के चक्कर में अब याद आ रहा है, अब आप भाई लोग ही बताओ क्या करूँ, माँ को क्या जवाब दूँ?"

उसकी बात को जैसे हवा में उड़ाते हुए सुखबीर ने सुझाव दिया, "ये भी कोई समस्या है, फिलासफी के प्रोफ़ेसर ने क्या कहा था... वर्तमान में उपलब्ध वह क्षण अमृत का सूचक है जो सुख व शान्ति का वाहक है, जबकि वैसे तो जन्म से लेकर अंत तक मनुष्य शृंखलाओं तथा भ्रांतियों से घिरा हुआ है।" 

उसकी बात सुन कर चारों हँसे बिना न रह सके पर रणजीत तो रुआँसा-सा हो गया था। पर सुखबीर ने समस्या का हल बताते हुए आगे कहा, "इस समय वर्तमान क्षण में हमारे बीच में ये दादा ही ब्राह्मण है, ये अपने मुँह से जो मुहूर्त निकाल दे वही शुभ मुहूर्त सहज में ही माता जी को मिसर से पूछा हुआ बता देना।" गाँव में ब्राह्मणों को सम्मानपूर्वक प्राय: 'दादा' कहकर बुलाया जाता था।    

सभी साथियों ने सुखबीर द्वारा सुझाई गई तरक़ीब का समर्थन किया और मुझे मुहूर्त बताने को कहा। मैंने भी ये सोच कर कि बड़े मिसर का घर तो वहाँ से लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर पड़ता था, इस कारण एक सधे हुए पण्डित की तरह अगले दिन सोमवार का मुहूर्त कुछ इस भाषा में बताया, "चौधरी जी, कल सुबह सोमवार के दिन सूर्योदय होते ही भगवान सूर्य की पहली-पहली किरणें पड़ते ही, खेत में पूरब दिशा में गणेश पूजन करने के पश्चात ग्यारह बार गायत्री मंत्र का पाठ करके ट्यूबवैल की खुदाई का काम आरम्भ करवा दें। आशा है वरुण भगवान की कृपा से धरती माँ की कोख से निर्मल जल की धारा सहज में ही फूट पड़ेगी।" इस तरह रणजीत का संकट हल करते हुए यह मुहूर्त एक काग़ज़ की पर्ची पर लिखकर उसे थमा दिया। अब सभी ने ख़ुशी के माहौल में एक-दूसरे से विदा ली।

अगले दिन दोपहर में जाकर कहीं रणजीत से हम चारों साथियों की मुलाक़ात दौलत चाय वाले की दुकान पर हुई। वह बहुत ख़ुश नज़र आया और साथ ही हम सब भी यह जानकर कि उसकी माँ और बाक़ी घरवाले मिसर जी के बताए हुए मुहूर्त से बहुत प्रसन्न हुए थे। और वह आज ट्यूबवैल की उसी शुभ महूर्त पर खुदाई का काम शुरू करवा कर ही कॉलेज आया था कि शुभ महूर्त में काम ठीक से शुरू हो जाए। इतना सुनते ही सभी ने ज़ोरदार ठहाका लगाया और रणजीत के लिए गर्मागर्म चाय लाने का ऑर्डर  दिया।    

अब मज़े की बात यह है बच्चो कि वहाँ ट्यूबवेल भी बना और पानी भी आया क्योंकि हृदय में ख़ुशी, आशा और विश्वास भर कर जिस भी समय काम शुरू किया जाए वही उस काम के लिए सबसे सच्चा शुभ महूर्त होता है! बस एक बात का कभी-कभी मलाल रहता है कि काश मैं उस समय रणजीत को यह बताता कि अब अपने घरवालों को सच्ची बात बताओ और उन्हें आगे से किसी महूरत के इंतज़ार के अंधविश्वास से बचाओ! क्योंकि बच्चो, शुभ महूर्त होता है- हृदय में ख़ुशी, आशा और विश्वास से भरा हर पल।

"हृदय में ख़ुशी, आशा और विश्वास से भरा हर पल।" सभी बच्चे एक स्वर में मस्ती से चिल्ला कर बोले और दादाजी को लगा चलो आने वाली इस पीढ़ी को अंधविश्वासों के बेड़ियों से बाहर रहने को प्रेरित करने के काम में उनके योगदान का शुभ मुहूर्त शायद आज ही था।

"हाँ तो बच्चो, कैसी लगी यह कहानी?"

"दादा जी, बहुत ही अच्छी है ये कहानी और आप भी हमारे बहुत अच्छे दादा जी हैं।"

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