शौर्य, साहस, शक्ति, और करुणा की प्रतिमूर्ति- कैप्टन लक्ष्मी सहगल

10-03-2017

शौर्य, साहस, शक्ति, और करुणा की प्रतिमूर्ति- कैप्टन लक्ष्मी सहगल

गोवर्धन यादव

 कैप्टन लक्ष्मी सहगल जी का नाम ज़ुबान पर आते ही सिर श्रद्धा के साथ झुक जाता है, हाथ अपने आप जुड़ जाते हैं और मन गर्व और गौरव के साथ भर उठता है। भारत भूमि की इस लाड़ली सपुत्री को हमारा नमन।

मद्रास उच्च न्यायालय के सफल वकील डॉ. ए. स्वामिनाथन और समाज सेविका व स्वाधीनता सेनानी अम्मुकुट्टी के घर सन २४ अक्टूबर १९१४ को एक बेटी ने जन्म लिया। परंपरावादी तमिल परिवार के घर प्रथम बेटी का जन्म होना सौभाग्य की तरह माना और उसका नाम रखा गया लक्ष्मी स्वामिनाथन।

अपने बाल्यावस्था से ही वे कुशाग्र बुद्धि की थी। १९३० में अपने पिता की आकस्मिक मृत्यु के बाद उन्होंने साहस नहीं खोया और अनेकानेक कठिनाइयों का सामना करते हुए १९३२ में विज्ञान में स्नातक परीक्षा पास की। सन १९३८ में उन्होंने मद्रास मेडिकल कालेज से एम.बी.बी.एस. किया और अगले ही वर्ष १९३९ में वे बच्चों के रोगों की विशेषज्ञ बनीं। कुछ दिन भारत में प्रैक्टिस करने के बाद वे १९४० में सिंगापुर चली गईं।

बचपन से ही वे राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित थीं। महात्मा गाँधी जी ने जब विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिए आंदोलन छेड़ा, तब उन्होंने इस यज्ञ में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। सिंगापुर जैसी विदेशी धरती पर भी उनका देश प्रेम हिलोरें लेता रहा। वहाँ रहते हुए उन्होंने भारत से आए अप्रवासी मजदूरों के लिए निःशुल्क चिकित्सालय खोला, साथ ही वे स्वतंत्रता संघ की सदस्य भी बनी।

१९४१ में युद्ध के घने काले मँडराने लगे थे, तब डॉ. लक्ष्मी सिंगापुर में मलाया के जंगलों में मजदूरों का इलाज कर रही थीं। युद्ध की आशंका के चलते अनेक लोगों ने देश लौटने का मन बनाया परंतु डॉ. लक्ष्मी नहीं लौटीं और भूमिगत रहकर घायल सैनिकों की सेवा करती रहीं। सैनिकों की सेवा-सुश्रुषा करते हुए उन्होंने अनुभव किया कि अँग्रेज़ों के मुक़ाबले जापानियों का झुकाव भारतीयों के प्रति है और वे सच्चे मन से उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार भी करते हैं। १९४२ में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब अँग्रेज़ों ने सिंगापुर को जापानियों के हवाले कर दिया, तब उन्होंने आहत युद्धबंदियों के लिए काफ़ी काम किए। इस युद्ध में जापानी सेना ने सिंगापुर में ब्रिटिश सेना पर आक्रमण किया उस समय ब्रिटिश सेना की ओर से लड़ रहे भारतीय सैनिकों के मन में अपने देश की स्वतंत्रता के लिए काम करने का विचार उठ रहा था। १९ फरवरी १९४२ को नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया. इस तरह १९४३ को सिंगापुर की धरती पर नेताजी का ऐतिहासिक पदार्पण हुआ। वे नेताजी के विचारों से काफ़ी प्रभावित हुईं और उन्होंने इस पवित्र अभियान में शामिल होने की अपनी इच्छा ज़ाहिर की। नेताजी युद्ध की विभिषिका से भलि-भाँति परिचित थे। एक महिला को सेना में भर्ती करने का मतलब भी वे जानते थे। वे कुछ हिचकिचाए पर डॉ. लक्ष्मी के बुलंद इरादों को देखते हुए उन्हें हामी भरनी पड़ी। उन्होंने २० महिलाओं को तैयार किया और ३०३ बोर की रायफलों के साथ नेताजी को "गार्ड ऑफ़ ऑनर" दिया।

नेताजी ने उन्हें पहली महिला रेजीमेंट की बागडोर सौंप दी। आज़ाद हिन्द फ़ौज की पहली महिला रेजीमेन्ट ने वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के सम्मान में अपनी रेजीमेन्ट का नाम "झांसी रेजीमेन्ट" नाम रखा। २२ अक्टूबर १९४३ को डॉ. लक्ष्मी स्वामिनाथन बतौर कैप्टन रानी झांसी रेजीमेन्ट में कप्तान के पद प्रतिष्ठित हुईं। इस पद पर कार्य करते हुए उन्होंने धीरे-धीरे अपनी फौज की संख्या बढ़ाने का प्रयत्न किया। इस तरह उनकी रेजीमेन्ट में महिलाओं की संख्या १५० तक जा पहुँची। अपने अदम्य साहस, शौर्य और काम करने के अद्भुत तरीक़ों को देखते हुए उन्हें कर्नल का पद मिला। इस तरह उन्हें एशिया की प्रथम महिला कर्नल बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सन १९४३ में सुभाषचंद्र बोस की "आरजी हुकूमते हिन्द" सरकार में महिला विभाग की केबिनेट मंत्री बनी। डॉ. लक्ष्मी नेताजी की छाया बनकर साथ रहतीं। उन्होंने नेताजी के साथ बैंकाक की यात्रा की और थाईलैंड की महारानी से मिलीं। वे बैंकाक से रंगून पहुँची। यहीं पर उनकी भेंट मानवती आर्या से हुई, जो बाद में उनके साथ ही रेजीमेन्ट में कैप्टन के रूप में सक्रिय रहीं। रंगून में रहते हुए उन्होंने १५ जनवरी १९४४ को एक नयी महिला रेजीमेन्ट की स्थापना की। उनकी निर्भीकता, कार्य करने की क्षमता-दक्षता और जुझारुपन को देखते हुए ३० मार्च को कमीशंड अफ़सर का पद मिला।

द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की करारी हार के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने आज़ाद हिन्द फौज के स्वतंत्रता सैनिकों की धरपकड़ शुरू की। सिंगापुर में पकड़े गए सैनिकों के साथ वे खुद भी थीं, गिरफ़्तार कर लिया गया। डॉ. लक्ष्मी शुरू से ही स्वाभिमानी रही थीं। अपने स्वाभिमान को गिरवी रखकर झुकना उन्होंने कभी सीखा ही नहीं था। अनेक दवाबों के बावजूद उनका स्वाभिमान बना रहा। इस बीच एक दुखांत ख़बर आयी कि नेताजी का प्लेन क्रैश हो गया, जिसमें उनकी मौत हो चुकी है। यह खबर पाकर उन्हें अपार दु:ख तो हुआ लेकिन वे विचलित नहीं हुईं। नेता जी के विशेष सहयोगी मेजर जनरल शाहनवाज़, कर्नल प्रेमकुमार सहगल तथा कर्नल गुरुबक्ष सिंह ढिल्लन पर लाल किले में देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया, लेकिन पण्डित जवाहरलाल नेहरू, भूलाभाई देसाई और कैलाशनाथ काटजू जैसे दिग्गज वकीलों की दलीलों के चलते तीनों जांबाज़ों को बरी करना पड़ा।

सन १९४७ में कैप्टन लक्ष्मी ने लाहौर में कर्नल प्रेमकुमार से विवाह कर लिया और कानपुर आकर बस गईं। यहाँ आकर भी उनका मिशन रुका नहीं। वे मज़दूरों, दलितों, पीड़ितों और वंचितों की सेवा करने में जुट गईं। वे शहरों और गाँवों में जाती और मरीज़ों की सेवा-सुश्रुषा करतीं और सांप्रदायिकता, अंधविश्वास, जातिवाद, जैसी घातक बिमारी को भी दूर करने का भरसक प्रयास करतीं रहीं।

१९७१ में वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से राज्यसभा की सदस्य बनीं। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्य भी बनीं। भारत सरकार द्वारा उनके उल्लेखनीय सेवाओं के लिए “पद्मविभूषण” से सम्मानित किया गया। अपनी ८८ वर्ष की उम्र में वे वामपंथी दलों की ओर से श्री ए.पी.जी.अब्दुल कलाम के विरुद्ध राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा।

अपनी शारीरिक कमज़ोरी के बावजूद वे अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक ग़रीब और नि:सहाय मरीज़ों को अपनी सेवाएँ देती रहीं। वे नियमित रूप से सुबह साढ़े नौ बजे क्लिनिक पहुँच जातीं और दोपहर दो बजे तक का समय मरीज़ों की तीमारदारी में बितातीं। दिल का दौरा पड़ने के पन्द्रह घंटे पहले उन्होंने देह-दान और नेत्र-दान करने की घोषणा कर दी थी।

यह देश एक ऐसी अँधेरी सुरंग से निकलकर आया है, जिसका कोई ओर-छोर ही नहीं था। फ़िर ये अँधेरे, कोई मामूली अँधेरे भी नहीं थे। इन दमघोंटू और अँधेरी सुरंगों से बाहर निकल आने की जद्दोज़हद करने वाले कितने ही अनाम शहीदों ने अपने प्राणों की बाज़ी लगा दी। सदियों की अँधेरी और अन्तहीन सुरंग में जो मशालें जलीं थीं उनका नाम राजा राममोहन राय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, विवेकानंद, मोहनदास कर्मचन्द गाँधी, जवाहरलाल, सुभाषचंद्र बोस......था। यह फ़ेहरिस्त काफ़ी लंबी है।

सुभाषचन्द्र बोस जी के साथ सहयोगी के रूप में, एक नाम जुड़ता है और वह नाम है कैप्टन लक्ष्मी सहगल का। वे स्वयं मशाल तो नहीं थीं, लेकिन एक मशाल को प्रज्जवलित करते रहने में उनका अथक योगदान रहा है। आज के इस जटिल और क्रूर समय में, जब हमारे इतिहास का विरूपण हो रहा हो, देश को भूल जाने की, उसके निर्माण में लगे ईंट-गारों को भूल जाने की बातें की जा रही हों, भ्रम फैलाए जा रहे हों, कुचक्र चलाए जा रहे हों, ऐसे घिनौनी हरकतों को तुरंत रोका जाना चाहिए। आज वे हमारे बीच नहीं है। यदि हम उनके बतलाए मार्गों का अनुसरण कर सकें तो इन मकड़जालों को आसानी से समूल नष्ट किया जा सकता हैं।

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