शिक्षक
महेश पुष्पदमैंने देखीं हैं ज़िन्दगी में शिक़स्तें बेहिसाब,
तब जाकर इस जगह का हक़दार हुआ हूँ मैं,
हूँ जहाँ पर आज वहाँ, मैं उड़कर नहीं आया,
गिरा हूँ, सँभला हूँ, तब समझदार हुआ हूँ मैं।
दिल फूट फूट कर रोया, मगर हौसला न खोया,
क्या कहूँ कि कितना बेज़ार हुआ हूँ मैं।
जब जब भी डूबा हूँ, मैं साहिल पर डूबा हूँ,
तूफ़ानों से तो अक़्सर पार हुआ हूँ मैं।
ख़्वाहिशें नवजात कितनी जन्मते ही मर गईं,
अपने ही मन से कितना लाचार हुआ हूँ मैं।
सबको राह दिखाता था मैं, रास्तों पर आ गया,
सबको पार लगाया लेकिन, ख़ुद मझधार हुआ हूँ मैं।
टूटे हुए सपनों की लाशों पर बैठा हूँ,
पत्थर की तरह बेबस, बेकार हुआ हूँ मैं।