शिक्षा एवं आर्थिक स्वावलम्बन के संदर्भ में नारी

07-09-2014

शिक्षा एवं आर्थिक स्वावलम्बन के संदर्भ में नारी

कीर्ति भारद्वाज

प्रस्तावना

प्राचीन काल से ही कहा जाता है नारी शक्ति है लक्ष्मी है, सरस्वती है लेकिन आज लक्ष्मी शोषण का शिकार है, शक्ति तो पुरुष के भरोसे मिट्टी का दीया जलाकर भविष्य की राह देखने की कोशिश कर रही है और सरस्वती शिक्षा के अधिकारों से वंचित है। वैदिक काल से ही वह आज तक भारतीय परम्परा में वह पूजनीया एवं वन्दनीया रही है लेकिन उसका अस्तित्व आज कहीं खो गया है।

वेदान्त का मानना है कि प्राणियों में एक आत्मा विराजमान है। अवनति के युग में जब पुरोहितों ने अन्य जातियों को वेदाध्ययन के अयोग्य ठुकराया। उसी समय उन्होंने स्त्रियों को भी इन अधिकारों से वंचित कर दिया परन्तु वैदिक और औपनिषदिक युग में तो मैत्रैयी, गार्गी आदि महिलाओं ने ऋषियों का स्थान ले लिया था। सहस्त्र वेदज्ञ ब्राह्मणों की सभा में गार्गी ने याज्ञवल्क्य को ब्रह्म के विषय में शास्त्रार्थ करने के लिए ललकारा था। नारी के लिए शिक्षा बहुत आवश्यक है क्योंकि नारियों की ऐसी अनेक समस्याएँ हैं जो शिक्षा द्वारा ही दूर हो सकती हैं। जब नारी शिक्षित होगी तभी वह समस्याओं को समझकर आसानी से हल निकाल सकेगी। उनमें इन आदर्श गुणों को शिक्षा के द्वारा और अधिक सुदृढ़ किया जाए। शिक्षा के साथ-2 सदैव अर्थ भी समाज की नींव रही है क्योंकि आर्थिक परिस्थिति व्यक्ति को प्रभावित करती है।

वर्तमान स्थिति देखें तो पूरे एशिया में भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ पर शिक्षित नारियाँ कम हैं। भारत के केरल में सबसे अधिक स्त्री साक्षरता दर 79 प्रतिशत तथा सबसे कम राजस्थान में 12 प्रतिशत है जो कि बहुत कम है। बिहार में 22 प्रतिशत, उत्तर-प्रदेश में 24 प्रतिशत, आन्ध्र प्रदेश में 37 प्रतिशत, हरियाणा में 39 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 42 प्रतिशत, तथा मिजोरम में 70 प्रतिशत है। अतः यह भी देखा गया है जहाँ स्त्री साक्षरता दर अधिक है उस प्रदेश की स्त्रियाँ अधिक आत्मविश्वास वाली तथा स्वावलम्बी हैं लेकिन जिन राज्यों की स्त्री साक्षरता दर कम है वे महिला कम जागरूक तथा दूसरों पर निर्भर रहने वाली हैं।

आज वर्तमान युग में भी नारी को समाज का उपेक्षित पीड़ित समुदाय कहा जांए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी क्योंकि 21वीं सदीं भले ही हो, समानता के अधिकार की बात भी हो तो भी नारी पीड़िता तथा उपेक्षिता है। यह सत्य है कि उसके उपेक्षिता के आयाम बदल गए हैं।

यदि आर्थिक परिस्थिति की मार पुरुष को लगती है तो स्त्री भी इस मार से गुज़रती है। घर-परिवार की चिंताओं का हमला पहले उसी पर होता है। संतान वह पैदा करती है और संतान से जुड़े अभाव उसे ही सताते हैं। कहीं-कहीं गरीबी और अभावमयी स्थितियों के बीच वह कालग्रस्त हो जाती है। डॉ. राधेश्याम सारस्वत के शब्दों में, "हमारे स्वतंत्र भारत में आर्थिक अभाव और शोषण के शिकार मात्र पुरुष ही नहीं बल्कि स्त्रियाँ भी है। वे चाहे पत्नी, पुत्री, माँ या बहन ही क्यों न हों।"1.

आज समाज आर्थिक स्तर पर स्वावलम्बी महिलाओं के प्रति भी क्रूर हो रहा है। स्त्रियों की बौद्धिक प्रखरता भी पुरुषों को अखरती है। अर्थ प्रधान व्यवस्था ने ही विभिन्न वर्णों के स्थान पर वर्गों को जन्म दिया। यह वर्ग भावना आधुनिक समाज व्यवस्था की प्रमुख विशेषता है। डॉ. हेमेन्द्र कुमार पानेरी के अनुसार, "समाज की आर्थिक प्रवृतियाँ सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करती हैं। अर्थ ही समाज की शिराओं में बहने वाला वह सब है जो सम्पूर्ण समाज का जीवन संचालित करता है"2. प्रत्येक युग का सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन अर्थ प्रक्रिया से प्रभावित रहा है।

समाज के विकास की नींव अर्थ है। अर्थव्यवस्था के बिखर जाने से समाज भ्रष्ट हो जाता है। आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर व्यक्ति समाज की गरीबी, निर्धनता, अशिक्षा, अज्ञान और बीमारी की चपेट में पड़ी जनता की भलाई कर सकता है। समाज का एक वर्ग जो ऐश्वर्यपूर्ण जीवन बिताता है तो दूसरा वर्ग दयनीय जीवन व्यतीत करता है। उच्च वर्ग जो चाहता है उसे मिल जाता है। निम्न वर्ग अपनी ज़िंदगी अभावों के अनुकूल जी लेता है लेकिन मध्य वर्ग दिखावा करता है तथा समाज में पद प्रतिष्ठा और ऐश्वर्य पाना चाहता है। यही आर्थिक विषमता व्यक्ति के व्यक्तित्व का विघटन करती है।
समाज में आर्थिक रूप से सम्पन्न एवं आत्मनिर्भर यदि स्त्री होती है तो भी उसका आर्थिक शोषण होता है। स्त्री इस पितृसत्तात्मक समाज में परिवार में बच्चों, पति व सास ससुर की इच्छाओं का ध्यान रखते हुए अपने आप को भूल जाती है। यही स्त्री की आर्थिक पराधीनता है। श्रीमती सवित्री वर्मा, "लाचारी में किसी के अधीन रहना या एकान्तिक रूप से निर्भर रहना न केवल पुरुष के लिए बल्कि स्त्री के लिए भी सम्मानजनक नहीं है।"3. स्त्री पुरुष एक दूसरे के सच्चे मित्र और पूरक तभी हो सकते हैं जब दोनों को लाचारी या दबाब न सहना पडे। स्वेच्छा से वे दोनों अपने अपने क्षेत्र में सम्मानजनक ढंग से फर्ज अदा करते हुए गृहस्थी संभालें।

समाज की परिवर्तनशीलता ने नारी के व्यक्तित्व को प्रभावित किया है। स्त्रियों में शिक्षा के विकास के कारण आत्मविश्वास पैदा हुआ है। वर्तमान समय में नारी के सामने आर्थिक स्वावलम्बन आने लगा है। नारी आर्थिक रूप से स्वावलम्बी होने पर अनमेल विवाह का विरोध करती है, यौन शोषण के विरुद्ध संघर्ष करती है। पुरुष के आतंक से असहमति प्रकट करती है। वह पुरुष के अत्याचार को सहन नहीं करती है बल्कि अपने अस्तित्व की रक्षा करती है तथा आत्मनिर्भर होते हुए नारी स्वतन्त्रता का समर्थन करती है।

पिछले 50 वर्षों में यदि महिलाओं की समस्याओं को देखेंगे तो हम पाएँगे कि औरत द्वारा बाहर की दुनिया में हस्तक्षेप से उनकी समस्याएँ बढ़ी हैं। "सन् 1972 में सेवा संस्था (अहमदाबाद) का संगठन हुआ। यह संस्था रोज़गार योजना पर आधारित थी। जिसमें औरतों के लिए एक बराबर मजदूरी और उनके दस्तकारी रोज़गार की तलाश थी, जो अनेक शहरों में कामयाब हुई।"4. फिर सन् 1974 में समानता की रिपोर्ट सामने आई जिसमें यह सच उजागर किया कि स्त्री की स्थिति में योजनाओं और कानून द्वारा कोई बदलाव नहीं आया।

औरतों के साथ सामाजिक भेदभाव ही औरतों को अन्दर से कमज़ोर बनाता है जिसके कारण वह सामाजिक जुल्म का विरोध करने में असमर्थ हो जाती है। नारी की सबसे बड़ी विवशता उसकी आर्थिक पराधीनता है। विवाह से पहले पिता के संरक्षण, विवाह के बाद पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में रहना पड़ता है। आज भी यही परम्परा प्रचलित है। नारी यदि कोई निर्णय नहीं ले पाती अथवा वह निर्णय लेते समय विवशता दर्शाती है। तो यही विवशता आर्थिक विवशता बन जाती है। नारी को लेकर गुप्तकाल से ही उसके अधिकार विवाद का विषय बन गये थे किन्तु धीरे-धीरे नारी की स्थिति गिरती चली गई। प्रो. मनहर के गोस्वामी के अनुसार "आर्थिक स्वालम्बन के अभाव में नारी के व्यक्तित्व का सम्यक् विकास सर्वथा असंभव है।"5. पैसे के प्रति लोगों की आसक्ति दिनों-दिन बढती जा रही है। आज प्रत्येक इन्सान यह सोचता है कि पैसा कैसे कमाया जाए इसलिए पुरुष एवं स्त्री दोनों ही नौकरी करते हैं स्त्री को कमाने का अधिकार दिया गया है लेकिन उसे खर्च करने का अधिकार नहीं दिया गया है। इसके लिए उसे पति की इज़ाज़त लेनी पड़ती है। कहने का अभिप्राय यह है कि स्त्री को अधिकार मिले तो हैं लेकिन वे अधिकार पूरी तरह से नहीं मिले हैं।

निष्कर्ष

अतः यदि नारी शिक्षित एवं स्वावलम्बी हो जाए तो वह अपने स्वतंत्र अस्तित्व की रक्षा हेतु प्रयासरत हो उठती है और दूसरी ओर पुरातन मूल्यों को स्वीकार न करने पर समाजिक आग्रहों को तोड़ने की चेष्टा में लीन हो उठती है। पुरुष के अनाचार दुर्व्यवहार का प्रतिवाद करती है। महिलाओं की सोच बदल गई है किन्तु पुरुष अपनी मानसिकता को नहीं बदल पाए हैं। यदि औरतो को पुरुषों जितनी समानता दी जाए, उसे अलग न माना जाए जो वह आत्मसम्मान के साथ जी सकती है। अतः में अपने शोध के माध्यम से यह कहना चाहती हूँ कि महिलाओं की उपभोग की वस्तु न मानकर उसे सामंती- पूंजीवादी व्यवस्था के मूल्य बोध से मुक्त करना ही नारी की आर्थिक स्वतंत्रता होती है।

संदर्भ सूची

  1. रामदरश मिश्र की कहानियों में यथार्थ चेतना और मूल्य बोध -डॉ. राधेश्याम सारस्वत, सरस्वती भण्डार, गुजरात सं. -2002, पृ.- 66

  2. स्वातन्त्रयोत्तर हिंदी उपन्यासों में नारी - डॉ. हेमेन्द्र कुमार पानेरी, विभुति प्रकाशन, साहिबाबाद सं. -1977, पृ.- 204

  3. पारिवारिक समस्यांए- सवित्री देवी शर्मा लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद सं.- 1996 पृ.- 208

  4. औरतों के लिए औरत - नासिरा शर्मा, सामयिक प्रकाशन, दरियागंज नई दिल्ली, संख्या-2007, पृ.- 8

  5. रामदरश मिश्र के उपन्यासों में नारी- मनोहर के. गोस्वामी, विभुति प्रकाशन, साहिवाबाद-1977 लेख हिन्दी उपन्यासों में नारी

कीर्ति भारद्वाज,
शोधार्थी,
हिन्दी विभाग,
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय,
ग्रेटर नोएडा, उत्तर प्रदेश मोबाइल न. 9650605931
kirti.kittu@gmail.com

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