शारदा के वीर
विवेक कौल(शरणार्थी शिविर में बैठी एक कश्मीरी वृद्धा की गुहार)
भिनभिनाती मक्खियों जैसी
यादें बहुत सताती हैं,
गीता भवन की सीढ़ियों पर
समय सोच में वह बिताती है।
खेत खलिहान सब छूट गए
शरणार्थी बन के रह गयी,
घर भी जल कर टूट गए
अब बस यादें रह गयीं।
इस धरती के स्वर्ग में अब
हलाहल फिर से है फैला,
नीलकण्ठ कहाँ है तू
क्या तेरा दिल नहीं दहला?
जलोदभव फिर आ गया,
हे कश्यप! तुम आ जाओ!
वरामुल्लाह में सेंध लगाकर
इस दानव को बहा ले जाओ।
यदि यह सम्भव नहीं है, हे नाथ!
वर दो लेखनी ना छूटे हमसे,
बंदूक न लगे हाथ।
बारूद नहीं स्याही से
लड़ें अपने रण,
शारदा के वीरों का प्रतिशोध यही,
यही हो उनका प्रण।