शमशेर : प्रेम और सौन्दर्य के कवि

23-02-2016

शमशेर : प्रेम और सौन्दर्य के कवि

सर्वेश पाण्डेय

"प्रेम" एक अनिवार्य आंतरिक व्यवस्था का नाम है तथा सहज, स्वाभाविक एवं सनातन मानव प्रवृत्ति है। "मम" और "ममेतर" की संबंध चेतना जहाँ व्यक्ति के जीवन और जगत के विभिन्न रूपों से उसका परिचय कराती है वहीं इसके द्वारा व्यक्ति का अपने से इतर के साथ संबंध भी जुड़ता है। यह संबंध राग का होगा या द्वेष का, आसक्ति का होगा या विरक्ति का यह हमारी निजी अवस्था पर निर्भर करता है। सामान्य तौर पर मनुष्य स्वभाव से ही रागी होता है। वह जिस देश या काल की सीमा में रहता है, जिन रूपाकारों के बीच जीता है उसके प्रति रागात्मक संबंध विकसित हो जाता है। किसी देश के प्रति राग को हम मातृभूमि-प्रेम, देश-प्रेम कहते हैं, काल के प्रति अपने राग को कभी पुरातन तो कभी आधुनिकता के प्रति लगाव के रूप में देखते हैं। किसी भी देश में ऐसे अनेक लोग एक ही काल में मिल जायेगें जो अतीत या वर्तमान के प्रति अनुरागी हों। वे काल के किसी खण्ड विशेष से अपना अलग-अलग रागात्मक संबंध स्थापित कर लेते हैं। रागात्मक संबंध ही व्यापक तौर पर प्रेम अथवा प्रेमानुभूति का जनक है। व्यक्ति के रागात्मक संबंध का विस्तार सम्पूर्ण देश-काल और समस्त रूपाकार तक व्याप्त है इसलिए व्यापक अर्थ में प्रेमानुभूति भी बहुत विस्तृत है। व्यक्ति के रागात्मक संबंधों का विश्लेषण-विभाजन करने पर इसके अनेक रूप उपलब्ध होते हैं। व्यक्ति और व्यक्ति के बीच के संबंध को ही ले लें तो उसके अनेक रूप दिखाई देते हैं। यथा-भाई-भाई के बीच, माता-पिता एवं पुत्र के बीच। ये रागात्मक संबंध भी प्रेम ही कोटि में आते हैं। जब हमारा रागात्मक संबंध पूरे समाज और राष्ट्र के लोगों से जुड़ता है तो उसे हम समाज या राष्ट्र-प्रेम कहते हैं।

कवियों के कवि शमशेर के काव्य में राग क्षेत्र सिर्फ प्रिय-प्रिया तक सीमित नहीं है बल्कि उसका क्षेत्र समाज, राष्ट्र एवं पूरी मानवता तक व्याप्त है। इसके अतिरिक्त प्रकृति, आत्मा, काल आदि के प्रति भी रागात्मक अनुभूति को कवि ने वाणी दी है।

मनुष्य के लिए "प्रेम" तो एक बुनियादी आवश्यकता है। प्रेम कहीं भी भेद नहीं मानता, बंधन नहीं मानता। "मस्जिद हो मदरसा हो, कोई खानकाह हो।" कवि शमशेर के लिए तो मानो मूलमंत्र ही यही है-

कौन पठायी किन्ने रे बांची
प्रेम की पाती साँची रे साँची
मैं तो न जानूँ उर्दू कि हिन्दी
प्रेम की बानी साँची रे साँची।1

शमशेर के अनुसार प्रेम और सौन्दर्य का बड़ा ही नज़दीक का संबंध है। जहाँ पर हम अपने रागभाव पाते हैं, वहीं सौन्दर्य का जन्म होता है। अनुभूति के स्तर पर, प्रेम ही दूसरे अर्थ में सौन्दर्य है-
प्रेम का कँवल कितना विशाल होता है

आकाश जितना
और केवल उसी के दूसरे अर्थ सौन्दर्य हो जाते हैं
मनुष्य की आत्मा में।2

"प्रेम का कँवल" एक सौन्दर्य की सृष्टि करता है हमारी चेतना में, फिर वह प्रेम अनन्तता में विस्तारित हो जाता है। यही काम्य है किसी निश्चित व्यक्ति के लिए नहीं, सभी के लिए।

प्रेम में सौन्दर्य और सौन्दर्य में ममत्व मिले-जुले है। ये दोनों भाव एक-दूसरे से झलकते हैं, तभी तो कहते हैं-

तूने मुझे दूरियों से बढ़कर
एक अहर्निश गोद बनकर
लपेट लिया है।3

सुन्दरता इतनी निकट आ जाती है कि माँ की गोद की तरह एक ममत्व देती है। कैसी? एक अहर्निश गोद, लगातार प्रेम की अनुभूति से लिपटे रहने का भाव। प्रेम या राग-भाव ही रचना की उत्स है। प्रेम और सौन्दर्य का इतना अविभाज्य संबंध है कि जहाँ पर भी प्रेम की संभावना है, सौन्दर्य की दृष्टि स्वयमेव हो जाती है-

और पहुँचकर वहीं
अपने प्रेम की
बाँहों में बाँहें डाल दीं मैंने
और उस सीमा पर खड़े हुए
हम दोनों प्रसन्न थे।
अमर सौन्दर्य का
कोई इशारा-सा
एक तीर।4

जहाँ सौन्दर्य और प्रेम मिलकर एक हुए हैं, वही आन्तरिक विजय की प्रतीक है। ऐसा सौन्दर्य जीवन को अधिक प्रीतिकर, अधिक काम्य बनाता है लेकिन यह सब तो कवि का स्वप्न है। वे स्वयं तो ऐसा मानते हैं पर साथ ही वे जानते हैं कि वास्तविक सामाजिक जीवन में मनुष्य छोटी से छोटी बात के लिए कलह करके क्या और किस स्थिति तक पहुँचता है। वे दुःख से व्यंग्य कर उठते हैं कि "सब कुछ हमारा है", "हम" और "हमारे" के बीच जो बात विस्मृत हो जाती है वह है "प्रेम"। हम सब कुछ कर सकते हैं, बस प्रेम से एक दूसरे के साथ रह नहीं सकते। इसीलिए कहते हैं-

सभी शब्द हमारे हमारे कोश में है
एक प्यार के वास्तविक शब्द को छोड़कर।5

शमशेर के प्रणय संवेदना की बात करें तो उनका प्रेम समर्पित हो जाने वाला प्रेम है। वे अपनी प्रेयसी की कठोरता से कितनी बार आहत होते हैं। वैसे "प्रेम" में आहत होने के लिए किसी गंभीर कारण की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि प्रेमी के लिए छोटा से छोटा कारण भी गंभीर हुआ करता है। कवि प्रेम की मंज़िल क्या है? - वह है प्रेयसी की कस्तूरी - गन्ध वाली ज़ुल्फ़।

मुश्क बू-ए-ज़ुल्फ़ उसकी घेर ले जिस जाँ हमें,
दिल से कहता है उसी को अपना काशाना कहें।6

प्रेयसी यों उनकी सर्वस्व है पर वह इतनी कठोर निकली कि "कल आने का वादा" भी पूरा नहीं कर सकती। हँस कर आख़िर कवि अपने आप से कहते हैं कि मियाँ तुम तो बड़ी उम्मीद लगाए बैठे हो, पर .....

वो कल आयेंगे वादे पर
मगर कल देखिए कब हो?
ग़लत फिर हज़रते दिल
आपका तख़्मीना होना है?7

इस बार भी अटकल ग़लत ही निकलती है कि "वे कल आयेंगें। कहते हैं कठोरता की हद तो यह है कि यहाँ ज़िन्दगी ख़त्म हुआ चाहती है और आप मानों कोई शेर सुन रहे हों, इस तरह "दुबारा" की फ़रमाइश कर रहे हैं-

हो चुकी जब ख़त्म अपनी ज़िन्दगी की दास्ताँ
उनकी फ़रमाइश हुई है इसको दोबारा कहें।8

प्रेम में वे पूरे के पूरे डूब गए हैं। उनके लिए प्रेम ही मानो सब कुछ है। इसी प्रेम के समर्पण और निष्ठा भाव को व्यक्त करते हुए कहते हैं-

वफ़ा ख़ता थी, ख़ता मैंने ज़िन्दगी भर की
अब इसके आगे जो मर्ज़ी हो बंदापरवर की।9

लेकिन इस समर्पण के बदले मिलती है तो सिर्फ़ निष्ठुरता-

जहां में अब तो जितने रोज़
अपना जीना होना है
तुम्हारी चोट होनी है-
हमारा सीना होना है।10

इस सीने पर खाई हुई चोट की तीव्रता से उनका स्वर तक भीग गया है-

मेरी बाँसुरी है एक नाव की पतवार -
जिसके स्वर गीले हो गए हैं
छप्-छप्-छप् मेरा हृदय कर रहा है.....
छप् छप् छप्।11

छप् छप् छप् करता हृदय, अर्थात् जल.... अर्थात् हृदय उमड़ कर बह चला है। उस नदी में आर्त स्वरों की नाव है, जिसे बाँसुरी खे रही है। हृदय को चीरकर यह स्वर इस तरह उभरता है जैसे हर बार पतवार जल की सतह को गहरे तक चीरकर फिर बाहर आती है.... और फिर छप् इस तरह हर बार जल को चीरकर नाव आगे बढ़ती है। लेकिन इस आर्त स्वर का भी कोई प्रभाव प्रेयसी पर नहीं पड़ता है तब कवि और तड़प जाता है और कहता है-

मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं
एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ।
मुझको सूरज की किरनों में जलने दो-
ताकि उसकी आँच और लपट में तुम
फौवारे की तरह नाचो।12

सूखे पहाड़ जिस पर कोई झरना उछलकर बह रहा हो- एक समान चित्र तो ही है। लेकिन यह सामान्य चित्र कवि के लिए "प्यास के पहाड़" हो जाते हैं अर्थात् चिर अतृप्ति कामना। "तृप्ति" तो बात को समाप्त कर देती है। "अतृप्ति" ही उसे चिरजीवित रखती है। वह कुछ भी हो सकता है- प्रेम भी। झरने की तरह उछल कर बहना कवि के लिए तड़प बन जाता है। तब "प्यास के पहाड़" सार्थक बन जाते हैं। इतने बड़े विशाल प्यास के पहाड़ हैं जिनको तृप्त करने के लिए एक मात्र क्षीण-धार झरना। लेकिन प्यास के पहाड़ों पर झरने की तड़प, सूरज की किरनों में जलने के बावजूद प्रयेसी फौवारे की तरह नाच रही है अर्थात् इसका कोई भी असर प्रेयसी पर नहीं पड़ रहा है उल्टे वह शांत और निश्चित है। लेकिन कवि अपनी इस जलन को, इस तड़प को, इस उपेक्षाजन्य पीड़ा को न तो "हाहाकार" और न ही "हाय-हाय" के रूप में व्यक्त किया है अपितु गुनगुना रहा है वह भी कबूतरों के माध्यम से जिसमें हल्के-से, मीठे-से, सोज़ की लज्ज़त है। अजीब है यह दर्द। दर्द तो है लेकिन वही नहीं। रुलाता नहीं है यह दर्द, सोच में डाल देता है। सोच लें और उदास हो जायें.......

कबूतरों ने एक ग़ज़ल गुनगुनाई ......
मैं समझ न सका, रदीफ़-क़ाफिए क्या थे,

इतना ख़फ़ीफ़, इतना हलका, इतना मीठा
उनका दर्द था।13

कवि अपनी प्रेमिका की इस निष्ठुरता को, उसके दिये गये अजीब से मीठे दर्द को केवल अपने आप पर होने देते हैं और अपने प्रेम की इस तीव्रता बयां करते हुए कहते हैं तुम मुझे वैसे ही चाहो जैसे मैं तुझे चाहता हूँ। जहाँ प्रेम के अहं भाव का विलगन हो लेकिन व्यक्तित्व का नहीं। तभी कहते हैं-

हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
...... जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करतीं हैं
जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ।14

वे मुक्त रखते है, तभी तो मुक्त रहना चाहते हैं। ये पंक्तियाँ "टूटी हुई, बिखरी हुई" कविता से उद्धृत की गयी हैं जो न सिर्फ़ कवि की अपितु हिन्दी की भी सर्वोत्कृष्ट प्रेम कविता है।

कवि ने बहुत ईमानदारी के साथ-साथ एक आम आदमी की इच्छा व्यक्त की जो अपने अभावजन्य जीवन संघर्ष के मध्य केवल प्रेम की आकांक्षा करता है-

द्रव्य कुछ नहीं मेरे पास
फिर भी मैं करता हूँ प्यार।
रूप नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूँ प्यार।15

ऐसे प्रेमी कवि, रागी कवि को तो विराग-तत्व ने छुआ तक नहीं है प्रेम के अहसास की पवित्रता में कवि का अकूत विश्वास है। इसीलिए कवि कहता है-

अगर मुझे किसी से ईर्ष्या होती तो मैं
दूसरा जन्म बार-बार हर घंटे लेता जाता:
पर मैं तो जैसे इसी शरीर से अमर हूँ -
तुम्हारी बरकत !16

प्रेम में ही उन्होंने जीवन जीने का विश्वास पाया है। प्रेम का जो स्वरूप वह पाना चाहते हैं, अभी पा नहीं सके, तभी कहते हैं-

चुका भी हूँ मैं नहीं
कहाँ किया मैंने प्रेम
अभी।
जब करूँगा प्रेम
पिघल उठेंगे
युगों के भूधर
उफन उठेंगे
सात सागर।17

प्रेम का वह कितना विराट, कितना उदात्त स्वरूप होगा, जब ऐसा प्लावन होगा। प्रेम की हर छोटी से छोटी, गहरी अनुभूति को शमशेर व्यक्त करने में सफल रहे हैं। इसी कारण शमशेर के ही समकालीन कवि मुक्तिबोध कहते हैं कि "शमशेर मुख्यतः प्रणयजीवन के प्रसंगबद्ध रसवादी कवि हैं।.... प्रणयजीवन के जितने विविध और कोमल चित्र वे प्रस्तुत करते हैं, उतने चित्र शायद और किसी नये कवि में दिखाई नहीं देते। उनकी भावना अत्यंत स्पर्श कोमल है। प्रणय जीवन के भाव प्रसंगों के अभ्यंतर की विविध सूक्ष्म संवेदनाओं के जो गुण चित्र वे प्रस्तुत करते हैं वे न केवल अनूठे हैं वरन् अपने वास्तविक खरेपन के कारण प्रभावशाली हो उठे हैं।18

ध्यान देने योग्य बात है कि शमशेर ने ग़ज़लों में भी अपने प्रेम रंग को अभिव्यक्त किया है और वह भी पूरी ग़ज़लियत की परंपरा के साथ। शमशेर से पहले भी हिन्दी कवि ग़ज़ल को हिन्दी में लाने का प्रयास किया लेकिन बहुत सफल नहीं रहे। शमशेर पहले कवि हैं जिन्होंने हिन्दी पाठकों को ग़ज़ल के सही रूप से परिचित कराया। इस "हिन्दी और उर्दू के दोआब कवि" के ग़ज़लों की विशेषता के बारे में प्रो. मोहम्मद हसन कहते हैं- “वे अपने दिल की चोटों को ज्यों का त्यों बयान करना चाहते हैं और ग़ज़ल की पूरी नरमी, मिठास और मुलायमियत के साथ बयान करना चाहते हैं। इसीलिए शमशेर की ग़ज़ल में जो चीज़ बुनियादी महत्व की है वह अभिव्यक्ति के जोड़-तोड़ का नहीं बल्कि उसका संबंध एक सच्चे ग़ज़लगो के शाइस्ता संस्कृति और उसके अनुशासित स्व के प्रस्फुटित स्वतः स्फूर्त रूपाकारों से है। यही वज़ह है कि शमशेर की शायरी में उनके महबूब की तस्वीरें नहीं मिलती, न मुस्कुराते होंठ, न शराब की महफ़िलें हैं न मिलन की सरसारी। उनके यहाँ ग़ज़ल की बुनियादी थीम वो तड़प है जो महबूब की नाम से जुड़ी हुई है।19

"दूसरा सप्तक" के "वक़्तव्य" में शमशेर लिखते हैं- "हम आप ही अगर अपने दिल और नज़र का दायरा तंग न कर लें तो देखेगें कि सबकी मिली-जुली ज़िन्दगी में कला के रूपों का खज़ाना हर तरह से बेहिसाब बिखरा चला गया है। सुन्दरता का अवतार हमारे सामने पल-छिन होता है। अब यह हम पर है, ख़ासतौर से कवियों पर कि हम अपने सामने चारों ओर की इस अनन्त और अपार लीला को कितना अपने अन्दर बुला सकते है।"20 यानी सुन्दरता उसमें है जो हो भी और नहीं भी। डॉ. पंकज चतुर्वेदी के अनुसार “सौन्दर्य वह है जो जिस समय अभिभूत करें, ठीक उसी समय आहत भी करें।" यानी जिस पल हो उस पल अभिभूत करे और जिस पल छिन हो उस पल आहत करे और आहत होना ही तो चेतना को झकझोरना है। इसीलिए कवि कहता है-

वह सुबह की चोट ही पंखुरी पर21

शमशेर के इसी सौन्दर्य ने प्रत्येक पदार्थ को पदार्थता दी है और पार्थिव वस्तुओं को उसकी पार्थिवता। इसीलिए शमशेर की शाम कोई-सी शाम नहीं है, बल्कि एक निश्चित शाम है- एक विशेष क्षण में दिख गयी एक विशिष्ट शाम है। इसी विशिष्ट रूप में, विशिष्ट प्रसंग में गुलाब, दरिया, बादल, नींदें और साँवला रंग सब बार-बार आते हैं।

शमशेर अपने सौन्दर्य को गढ़ने में विलक्षण बिम्बों और प्रतीकों का सहारा लेते हैं और इन्हीं के माध्यम से सम्पूर्णता की तलाश भी करते हैं। चूँकि शमशेर "इंप्रेशनिस्टिक चित्रकार" भी थे। वह रंगों की हर हरकत को बहुत ही बारीक नज़र से पहचानते थे लेकिन उन्होंने तो अभिव्यक्ति का माध्यम कविता को चुना था इसीलिए वे कविता में बहुत ही विलक्षण, अमूर्त और असंगत बिम्बों की सृष्टि करते हैं। वे अपनी चित्रकारी का शौक कविता में पूरा करते हैं और कविता के बिम्ब को पुनः चित्रकारी में रूपान्तरित कर देते हैं। महावीर अग्रवाल को दिये गये साक्षात्कार में स्वयं कहते हैं “मैंने जो माध्यम चुना, वह कविता के साथ-साथ कविता के ही अन्तर्गत एब्स्ट्रेक्ट पेण्टिंग का था।”22 उनकी कविता की सर्वप्रमुख विशेषता है "सघन ऐन्द्रियता" की अनुभूति लेकिन नख-शिख वर्णन से एकदम अलग जिसमें रंग-रूप, रस, गंध, स्वर, स्पर्श, सब कुछ समा जाता है। इससे जो स्वरूप निर्मित होता है वह ठोसपन लिए आता है। इस ठोसपन की ख़ास विशेषता है कि जो ठोस तो रहता है, पर उसका भार समाप्त हो जाता है। इसीलिए वे अक्सर तैरते से लगते हैं। हर बिम्ब जैसे तैरता-सा, अपने ही शब्दान्तराल में। इस अन्तराल में वह स्थिर नहीं, गतिमान हैं। इसीलिए कवि कहता है-

एक ठोस बदन अष्टधातु का -सा।23
एक काँसे का चिकना बदन हवा में हिल रहा है।24
तुम्हारा सुडौल बदन एक आबशार है।25

शमशेर के इस सघन ऐन्द्रियता के बारे में नामवर सिंह कहते हैं- "शमशेर के सौन्दर्यशास्त्र में नारी देह गोया पहली बार सच्चे अर्थों में अपनी दैहिकता प्राप्त करता है।..... वस्तुतः शमशेर की कविता पदार्थ की पदार्थता का जयगान है और देह की दैहिकता का पावन महोत्सव। शमशेर सौन्दर्य के उद्गाता नहीं, रूप के तक्षक हैं। उनकी दृष्टि प्रायः उस पर टिकती है जो ठोस है और ख़ूब गठा हुआ है।26

शमशेर ने प्रकृति के ऊपर भी कविताएँ लिखी हैं, लेकिन वे प्रकृति के उन्मुक्त चित्रकार तो नहीं हैं, पर प्रकृति उनके यहाँ मूड्स के अनुसार अपना सौन्दर्य खोलती है। अधिकतर वे प्राकृतिक सौन्दर्य को मानवीय सौन्दर्य पर केन्द्रित कर देते हैं।

शाम उनका प्रिय विषय है। शाम उनके रचनाविश्व का आत्मीय क्षण है और अपने परम-आत्मीय क्षण में वे उदास होते हैं। यह परम आत्मीय क्षण ही सृजन का क्षण है। सन् 1949 में अप्रकाशित "उदिता" की भूमिका में वे कहते हैं- "अपने शामों के झरमुट में जब पच्छिम के मैले होते हुए लाल, पीले, बैगनी रंग हर चीज़ को लपेटकर अपने गहरे मिले-जुले धुँधलके में खोने सा लगते हैं- आपने क्या उस वक़्त कभी ध्यान दिया है कि कैसे हर चीज़ एक ख़ामोश राग में डूबने लगती है....? वक़्त के बहते हुए धार में एक ठहराव सा आता हुआ महसूस होता है .... उस अजीब से शांति के क्षण में कहीं दूर उदासी की घण्टी-सी बजती हुई सुनाई देती है।"27 इसी कारण शाम अक्सर उनकी उदासी को प्रतिबिम्बत करती हुई हमारे सामने आती है-

एक पीली शाम
पतझर का ज़रा अटका हुआ पत्ता
शान्त।28

शाम को चित्रित करने वाली प्रायः हर कविता किसी विगत याद से भरी है, उदास है। लेकिन जब वे "उषा" की बात करते हैं, तब मानो उस वक़्त जागरण की चेतना में सराबोर हो जाते हैं। उषा के प्रायः सारे वर्णन उल्लास से भरे हैं। धीरे-धीरे होती सुबह का यह चित्र उनके बिम्बों के द्वारा हमारी चेतना पर अंकित हो जाता है-

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे
भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)
...... जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।29

शमशेर की सौन्दर्य चेतना पर कहीं-कहीं सुररियलिस्टिक (अतियर्थाथवाद) प्रभाव भी दिखता है। अतियर्थाथवाद में बाह्य जगत, जड़-जगत चेतन जैसे स्पंदनशील हो जाते हैं। यथा -

जो कि सिकुड़ा हुआ बैठा था
वो पत्थर सजग सा होकर पसरने लगा
अपने आप।30

शमशेर ने वस्तुओं और उत्सवों पर बहुत नहीं लिखा। वसन्त की बात करते हैं तब फलों, पत्तों, वृक्षों, गाछों, हवाओं पर आये वसन्त की बात नहीं करते, अपितु वसन्त जिस तरह युवतियों पर छाया है, उसका वर्णन करते हैं-

फिर बाल वसन्त आया, फिर लाल वसन्त आया
फिर पीले गुलाबों का, रसभीते गुलाबों का
आया वसन्त .....
सौ नूरजहाएँ, सौ पद्मिनियाँ
फिर लायीं वसन्त
-उन्मक्त वसन्त आया।31

यूँ तो शमशेर व्यक्तियों और मनुष्यों से ज़्यादा आकृष्ट होते हैं, स्वतंत्र प्रकृति से नहीं। उनकी होली एकदम निजी होती है। उनकी होली में गुलाल के रंगी सुबहें और विविधवर्णा सड़कें हैं, पर साथ में समय और स्थल के रंग भी हैं, जो सघन हैं, तरल हैं और वायवीय भी हैं, इस अनन्त बहते समय के छोटे-छोटे प्रहरों में बँटे टुकड़े हैं, उनके रंग हैं। पर उसमें एक बात वे कहते हैं कि -

पर्व
प्रकाश है
अपना।32

जो कुछ है, वह वर्तमान में है और इन उत्सवों में यही सब कुछ है, जो हमें जीना है, पाना है-

एक ही ऋतु हम
जी सकेंगे-
.....यहीं सब कुछ है
इसी ऋतु में
इसी, युग में
इसी
हम में।33

रंजना अरगड़े के अनुसार "प्रकृति उनके यहाँ मूड्स के अनुसार अपना सौन्दर्य खोलती है। उनकी अपनी प्रकृति है जिसमें उमड़ता दरिया है, बरसता दरिया है, झिलमिलाते पाँव हैं, लोहे के बख़्तर कंधों पर उगे सींग और नाखून हैं, शिला का खून पीने वाली जड़ें हैं और आकाश में गंगा की रेतें नीलाहटें, नर्माहटें,......। यूँ बहुत कुछ है जिसका प्रभाव हमारे मन पर गहराई से अंकित हो जाता है।"34

शमशेर का प्रिय रंग साँवला है और यह संयोग की बात है कि उनकी प्रेयसी का रंग भी साँवला है। यह साँवला रंग जो कभी-कभी "केसरिया साँवलापन" रंग हो जाता है तो कभी-कभी "साँवला संगमर्मरी आबशार" तो कभी "एक नीला दरिया बरस रहा है"। नामवर सिंह के शब्दों "शमशेर की कार्यशाला सचमुच एक विशाल चित्रशाला है। रंगों का महोत्सव। ...... इस चित्रशाला में इतने रंगों की लीला है इस तरह-तरह के रंगों की इतनी घुलावट है कि सबका विवरण देना लगभग असंभव है। हिन्दी-कविता में रंगों का ऐसा महोत्सव अन्यत्र दुर्लभ है। सचमुच ही "कवि घघोंल देता है/ हिला-मिला देता/कई दर्पनों के जल/"35

विजयदेव नारायण साही ने शमशेर के बारे में कहा है कि "हिन्दी में आज तक विशुद्ध सौन्दर्य का कोई कवि हुआ है तो वह शमशेर है।....सच तो यह है कि शमशेर की सारी कविताएँ यदि शीर्षकहीन छपें या उन सबका एक ही शीर्षक हो, "सौन्दर्य, शुद्ध सौन्दर्य" तो कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।"36

सौन्दर्य का प्रगतिशील चेतना से कोई विरोध नहीं है। नन्द किशोर नवल ने उद्धृत किया है- "मार्क्सवाद के अनुसार अर्थ-व्यवस्था यदि जड़ है तो सौन्दर्य पुष्प-प्रस्फुटन।" गोर्की ने भी इस बात पर बल दिया है कि जनता की स्वतंत्रता और सौन्दर्य की आकांक्षा ही सर्वहारा संस्कृति के लिए निर्णायक होती है..... इस सौन्दर्य से प्रगतिशील चेतना का विरोध नहीं अपितु घनिष्ठ संबंध है। यह कवि व्यक्तित्व के पूर्ण विकास का सूचक है। सौन्दर्य मनुष्य का हो या प्रकृति का उसकी बहुत सी गहरी और सूक्ष्म अनुभूति शमशेर की कविताओं में मिलती है।"37

प्रेम और सौन्दर्य के कवि शमशेर मार्क्सवादी चेतना को रचनाकार के लिए बहुत ज़रूरी मानते हैं। महावीर अग्रवाल को दिये गये साक्षात्कार में वे स्वयं स्वीकार करते हैं-“मार्क्सवाद को मैं आदमी के इतिहास को समझने की दृष्टि से बहुत ज़रूरी समझता हूँ पर जब विचारधारा को कविता के स्तर पर लाने की कोशिश करता हूँ तो मेरी ख़ास कोशिश यही रहती है कि किसी भी क़ीमत पर काव्यात्मकता खोने न पाए। मार्क्सवाद से मेरा नज़रिया बेहतर हुआ है। अधिक वैज्ञानिक और अधिक विश्वसनीय भी हुआ। इससे अपनी दृष्टि में विस्तार आता है साथ ही विश्वबंधुता का अहसास होता है। मार्क्सवाद का अध्ययन मैं हर रचनाकार एवं कलाकर के लिए ज़रूरी मानता हूँ। उसके बिना रचनाकर को न दिशा मिल सकती है न ही उसकी चेतना विकसित हो सकती है। उसके बिना उसमें वेदना तो आती है पर धार नहीं आ पाती।"38

"वाम वाम वाम दिशा" इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण कविता है। यह कविता जनपक्षधर जीवन और कला का शाश्वत और श्रेष्ठ उदाहरण है। इस कविता में भावावेगों की प्रबलता है, लयात्मकता है, स्वारारोह है जो समूह-गान का रूप लेकर कूच-गीत (मार्चिग सांग) का बोध दिलाती है। कविता अभिजात्य से मुक्ति का एक महान उद्बोधन है। शमशेर की मान्यता है कि समय की गति और मानवता का उज्ज्वल भविष्य दोनों दिशा एक ही है- वामपंथवादी-और उसी में हमारी एकता और मुक्ति निहित है-

वाम वाम वाम दिशा
समय साम्यवादी
..........................
मुक्ति का धनंजय वह
चिरविजयी वय में वह39

इसी प्रगतिशील चेतना की दृष्टि से महत्वपूर्ण कविता है "बात बोलेगी"। इस कविता में शमशेर ने मज़दूर की वास्तविक स्थिति को अंकित किया है साथ ही समाज एवं लोगों की परिस्थिति को भी दर्शाया है इन दो विरोधी स्थितियों को कवि ने हमारे सामने रखा है और कहते हैं-

बात बोलेगी
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।40

"अम्न का राग", "ये शाम है", "शाम होने को हुई", "चीन देश के नाम" और समाज में चल रहे साम्प्रदायीकरण के विरोध में लिखी गई कविताएँ कवि की जनपक्षधरता को ही बताती है।

यही दृष्टिकोण कवि को मानव-धर्म का पक्षधर बनाता है। मानव-मात्र के लिए शांति, एकता और प्रेम की कामना करते हैं। उनकी यह कामना "अम्‍न की राग" कविता में देखने को मिलती है जहाँ देश-भाषा-संस्कृति से परे मानव-मात्र की एकता की शांति और कल्याण की बात कही गई है जो आदर्शवाद के हद की है।

देखो न हक़ीक़त हमारे समय की कि जिसमें
होमर एक हिंदी कवि सरदार जाफ़री को
इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है
कि जिसमें
फैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है
मैंने समझा कि संगीत की कोई अमरलता हिल उठी
मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में
झलकता हुआ देख रहा हूँ।
और कालिदास को वैमर के कुंजों में विहार करते
और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफि़ज़ मेरा तुलसी मेरा
ग़ालिब।41

मानवता का कितना बड़ा स्वप्न कवि ने देखा है। इतना बड़ा स्वप्न देखने वाला कवि ही अपने ढंग से जोड़ने की कला का विकास कर सकता है, जीवन की स्थापना की बात कर सकता है -

लौट आ, ओ फूल की पंखड़ी
फिर फूल में लग जा।42

जीवन की स्थापना का कवि ही सौन्दर्य का कवि होता है। शमशेर सच्चे अर्थो में कवि हैं। उनकी संवेदना, प्रेम, सौन्दर्यचेतना निजी सन्दर्भों में रहते हुए भी सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक सन्दर्भों में विचरण करती है। ये कितनी विरोधी बात है कि जो कवि जीवन को मधुर बनाने की बात करते हैं, मिठास घोलने की बात करते हैं उनका अपना ही बीज इतना कटु-तिक्त था-

इंसान के अंखौटे में डालकर मुझे
सब कुछ तो दे दिया:
जब मुझ मेरे कवि को बीज दिया कटु-तिक्त।43

अपने इस कटु-तिक्त बीज के बावजूद शमशेर जीवन की स्थापना के लिए, सौन्दर्य की स्थापना के लिए "काल" से होड़ लेते हैं। क्योंकि सौन्दर्य काल की सुदीर्घता में नष्ट हो जाता है। वह तो क्षण में होता है, पल-छिन होता है, नश्वर होता है पर बहुत मोहक होता है। इसीलिए कवि कला से काल की होड़ लेता हुआ कला को कालातीत नहीं अपितु कालजयी बनाता हुआ कहता है -

काल
तुझसे होड़ है मेरी: अपराजित तू-
तुझमें अपराजित मैं वास करूँ।44

शमशेर की कविता सघन है, संशलिष्ट है इसी कारण प्रथम पाठ में खुलते नहीं है। लेकिन जब निकट से पढ़ते हैं, बिम्बों की सृष्टि का संस्पर्श पाते हैं तो बिम्ब एक नयनोत्सव की तरह अपनी सजीवता के साथ पाठक को अभिभूत करते हैं, तब उनकी कविताओं का जादू सवार होता है और इस मितव्ययी कवि की लाघ्वी कला के हम बरबस प्रसंशक बन जाते हैं। तब कवि की वह पंक्ति सार्थक हो उठती है-

नश्शा मुझे नहीं होता। नहीं होता।
मुझे पीने वालों को होता
है - मेरी कविता को
अगर वो उठा सकें और एक घूँट
पी सकें
अगर।45

शमशेर को मध्यप्रदेश शासन संस्कृति विभाग द्वारा मैथिली शरण गुप्त सम्मान (1979) से विभूषित किये जाने के अवसर पर अशोक वाजपेयी ने उनके बारे में वक़्तव्य दिया था कि-“शमशेर की कविता समग्र कविता है। एक ऐसे समय में, जब चारों-ओर कविता के अन्यथा शोषण के लिए बड़ी उतावली है शमशेर की कविता हिन्दी कविता में स्वाभिमान और निर्भयता की अकंप आवाज़ है। इस अर्थ में भी वे "कवियों के कवि हैं।"46 इस कवियों के कवि का कवि कर्म अपनी भावनाओं में, अपनी प्रेरणाओं में, अपने आंतरिक संस्कारों में, समाज सत्य के कर्म को ढालना-उसमें अपने को पाना है और उस पाने को अपनी पूरी कलात्मक क्षमता से पूरी सचाई के साथ व्यक्त करना है, जहाँ तक वह कर सकता है और इस प्रकार एक बेहतर इंसान बनने की ओर अग्रसर होना एवं बेहतर समाज बनाने में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करना है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. प्रेम की पाती, "चुका भी हूँ मैं नही" मैं, पृ. 28
2. कला, "इतने पास अपने" पृ. 44
3. सौन्दर्य, प्रतिनिधि कविता, सम्पादक- नामवर सिंह, पृ. 147
4. चीन देश के नाम, वही, पृ.99
5. भाषा, चुका भी हूँ मैं नहीं, पृ.67
6. ग़ज़ल, उदिता पृ. 97
7. ग़ज़ल, कुछ और कविताएँ, पृ. 90
8. ग़ज़ल, उदिता, पृष्ठ संख्या 97
9. वही, 96
10 ग़ज़ल, कुछ और कविताएँ, पृ. 170
11. टूटी हुई, बिखरी हुई, प्रतिनिधि कविताएँ, सम्पादक- नामवर सिंह, पृ. 108
12. वही
13. वही
14. वही, पृ.110
15. प्रेम, प्रतिनिधि कविता, संपादक-नामवर सिंह, पृ. 15.
16. टूटी हुई बिखरी हुई, वही, पृ. 112
17. चुका भी हूँ मैं नहीं !, वही, पृ. 30
18. शमशेर, "मेरी दृष्टि में, मुक्तिबोध", नया पथ (पत्रिका), संपादक-शिव वर्मा, अंक- 3, पृ. 47.
19. शमशेर: कवि से बड़े आदमी, संपादक : महावीर अग्रवाल, पृ. 324.
20. वही
21. वह सलोना जिस्म, प्रतिनिधि कविता, संपादक-नामवर सिंह, पृ. 88.
22. शमशेर: कवि से बड़े आदमी, संपादक-महावीर अग्रवाल, पृ. 291.
23. एक ठोस बदन अष्टधातु का-सा, प्रतिनिधि कविता, संपादक-नामवर सिंह, पृ. 184.
24. वही, पृ. 185
25. वही, पृ. 186.
26. शमशेर के साथ वह आखिरी मुलाकात, नामवर सिंह, नया पथ (पत्रिका) संपादक-शिव वर्मा, अंक-3,
पृ. 49.
27. उदिता की भूमिका, पृ. 102.
28. एक पीली शाम, प्रतिनिधि कविता, संपादक- नामवर सिंह, पृ. 101.
29. उषा, वही, पृ. 102.
30. सुबह, वही, पृ. 104.
31. वसंत आया, कुछ कविताएँ, पृ. 53.
32. होली: रंग और दिशाएँ, प्रतिनिधि कविता, संपादक- नामवर सिंह, पृ. 124.
33. वही
34. कवियों के कवि शमशेर, डा. रंजना अरगड़े, पृ. 41.
35. शमशेर की शमशेरियत (भूमिका), प्रतिनिधि कविता, संपादक- नामवर सिंह, पृ. 7.
36. शमशेर, संपादक- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मलयज, पृ. 25.
37. दस्तावेज़ (13-14), नंद किशोर नवल, पृ. 129.
38. शमशेर: कवि से बड़े आदमी, संपादक-महावीर अग्रवाल, पृ. 275.
39. वाम वाम वाम दिशा, प्रतिनिधि कविता, संपादक- नामवर सिंह, पृ. 47.
40. बात बोलेगी, वही, पृ. 43.
41. अम्‍न का राग, वही, पृ. 93.
42. लौट आ, ओ धार, वही, पृ. 130.
43. ओ मेरे घर, वही, पृ. 152.
44. काल, तुझसे होड़ है मेरी, वही, पृ. 172.
45. एक नीला दरिया बरस रहा है, वही, पृ. 168.
46. शमशेर : कवि से बड़े आदमी, संपादक- महावीर अग्रवाल, पृ. 98.

शोधार्थी : सर्वेश पाण्डेय,
हिन्दी विभाग,
डॉ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय,
सागर (म.प्र.)
मो.नं. – 09179482037,
ई-मेल : pandeysarvesh150@gmail.com

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